कामरेड नमो से मुखतिब: चुनाव आयोग ने आपको सिर्फ चेतावनी दे कर छोड दिया। लेकिन आपका जुर्म काफी संगीन था। आपका prosecution होना चाहिये था। आपने हत्या को जायज ठहराया था।
नमो: मुझे आपकी इस बात पर हसी आती है। आपलोगों ने तो हमेशा ही सक्रिय हिंसा को अपने स्वार्थ के लिये व्यवहार किया है। हाल ही में नन्दीग्राम और उसके अलावा मार्क्सवाद का तो नारा ही रहा है कि POWER FLOWS FROM THE BARELL OF A GUN. भारत में जाँत पाँत और उसके साथ संलग्न हिंसा तो राजनीति का एक सहज आवश्यक अंग रही है। कब किस दल ने हिंसा को अपरिहार्य माना है।
कामरेड: आपने मँच से इसको स्वीकार कर एक अक्षभ्य काम किया है। ये सारे कृत्य रात के अंधेरे एवं चोरी छिपे किये गये कृत्यों में स्थान पाते हैं। अन्य किसी भी दल ने इसे कभी आपकी तरह स्वीकार नहीं किया है। भारतीय राजनीति के कुछ unwritten laws हैं, जिनके तहत हिंसा की भर्त्सना आवश्यक है।
नमो: ये सारे नियम अब बदल रहें हैं। हमने कानुन का शासन काफी सह लिया। अब हमें करवट बदलने की आवश्यकता है। हिन्दुओं में जागृति लाने के लिये उन्हें हिंसा की ओर मोड़ना आवश्यक है। और ये काम नेहुरे नेहुरे नहीं हो सकता। इसीलिये मँच से हमें हिंसा का उद्घोष जरूरी था।
मादाम: राजीव गांधी ने सन 1984 में जब कहा था कि पेड़ गिरने से धरती हिलती है। हमने भी हमारे द्वारा की हुई हिंसा को हमेशा स्वीकार्य कृत्य ही माना है।
मादाम:चुनाव में हिंसा का महत्व है। इसीलिये हमने भी ढेर सारे अपराधी और संगीन अपराधियों को हमेशा चुनावी उम्मीदवार बमाया है। भाई कामरेड तुम और हिंसा से परहेज ? परम पाखँडी हो तुमलोग । इस पाखड पर कम से कम अब नन्दीग्राम के बाद तो बाज आओ।
कामरेड: ळेकिन ये तो कानून के विरुद्ध है। किसी भी प्रकार की हिंसा फैलाना कानूनी अपराध है। और इसीलिये आजतक ये सारे काम हम चोरी छिपे ही करते आ रहें हैं।
नमो: कामरेड पाखँड में तो आपलोगों को स्वर्ण पदक पाने का हक है। आप secular वाद का दम भरने वाले, नस्लीमा को बाहर निकाल देते हैं क्योंकि कुछ असामाजिक तत्व उसे नहीं चाहते हैं। हमने तो उसे तुरन्त शरण मुहैया करवाई है।
मादाम: भइ आज की शाम गुजरात चुनाव के नाम है। इधर उधर के नस्लीमा जैसे विषय उठा कर शाम का स्वाद मत बिगाड़ो।
नमो महोदय: मादाम आप अब भी हमारी बात मान लीजिये।इन कामरेडों के चक्रव्यहू से बाहर आकर हमारे साथ हाथ मिला लीजिये इसीमे आपका भला है।
मादाम: यह क्या मैं नहीं समझती। इन कामरेडों के भरोसे तो सिर्फ दो प्रान्तों में ही झंडा फहराया जा सकता है। लेकिन आपके साथ आने से एक बहुत बड़ा खतरा है कि आपका cadre और संगठन हमें कुछ ही समय में लील जायेगा। हमारी यह 120 वर्ष पुरानी पार्टी खत्म हो जायेगी।
नमो: मादाम आप किस पार्टी की बात कर रहीं हैं। 120 वर्ष पुरानी पार्टी तो कब की मर खप चुकी है। वह तो सन 1947 में ही समाधिस्थ हो गई थी। सन 1969 में एक नयी पार्टी इन्दिरा कंग्रेस ने जन्म लिया था। वह पार्टी भी कमोबेश सन 1984 में खत्म हो गयी। आज जिस पार्टी की आप managing director हैं वह तो एक सर्वथा नई पार्टी है। आज आपकी पार्टी में या अन्य किसी भी पार्टी में फर्क ही क्या है। Party Manifesto तो कभी कोई पढ़ता ही नही है। क्रिया कलाप तो सबके वहीं हैं,यथा टका धर्मः, टका कर्मः। तब पार्टी का नाम कुछ भी हो क्या फर्क पड़ता है।
मादाम: लेकिन धर्म निरपेक्षता का क्या होगा। आपलोग तो मुस्लिम के नाम से चिढ़ते हैं। उन्हें बाबर की औलाद कहते हैं।
नमो: मादाम जिस दिन आप नमाज पढ़ना बन्द कर देंगी हम भी बाबर की बीन बजाना बन्द कर देंगे। हम तो सिर्फ न्युटन के तृतीय सिद्धान्त को प्रमाणित करने के लिये ही हिन्दु व राम रक्षक होने का बीड़ा उठाते हैं।
अब खाने का वक्त हो चला था। मैं चुपचाप सब सुनता हुआ बच्चनजी की पंक्तियां गुनगुना रहा था।
(राम) मन्दिर - (बाबरी) मस्जिद भेद कराते , मेल कराती मधुशाला।
शायद दो के बाद दो पेग और हो जाते तो कांग्रेस पार्टी और भारतीय पार्टी का विलय भी इसी शाम हो ही जाता।
Sunday, December 23, 2007
Saturday, December 22, 2007
Gujarat Elections Part 1
रविवार तारीख 23 दिसम्बर 2007। स्थान गांधीनगर।
गांधीनगर के चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। भारतीय पार्टी या यों कहें कि नमो को जनता का समर्थन प्राप्त हुआ है।
खैर चुनाव के लिये दोनो अहम पर्टियों ने बड़ी जी जान से मेहनत की। कड़ी मेहनत और उसके नतीजे के आने के पश्चात जैसा कि सभी लोग कुछ विश्राम चाहते हैं दोनो पर्टियों के नेता और कुछ also ran एवं ख्वामख्वाह किस्म के नेता गण unwind कर रहें हैं। शाम लगभग सात या साढ़े सात का समय है। भोजन में अभी समय है। सभी involved नेता गण एक टेबल के इर्द गिर्द इकट्ठा हो unwind और relax करने हेतु दो दो पेग ढाल चुके हैं। अब खुले दिल से एक दूसरे के साथ अपना अपना गम गलत करते हुए कुछ इस प्रकार की बातें कर रहें हैं।
मादाम: क नम रे क्या देसी बन्दुक सर्व करते हो, इतालवी बेहतर होती है।
नमो: यह क नम रे क्या कह रहीं हैं। बहुत जल्दी नाम भुल गयीं। अब यह आपके भुलक्कड़पन के कारण ही आप चुनाव में हार गयीं हैं।
आपने कहा था कि हिन्दु मुस्लिम के मुद्दे को इस चुनाव में तवज्जो नहीं देंगी। उसके बाद आपने उसे भूल कर मुझे मौत का सौदागर कहा। आप एक और बात भूल रहीं हैं कि जब आप मुस्लिम मुस्लिम चिल्लाती हैं तब मेरे बिना कुछ कहे अपने आप मेरे हिन्दु वोटों की संख्या में बढ़ोत्तरी की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। यह इस बात का परिचय है कि आपने कक्षा छठी (आपके पति को तो छठी का दूध भी याद था, और आपको छठी कक्षा का पाठ भी याद नहीं) में पढ़ाया हुआ न्युटन का तृतीय सिद्धान्त कि हर क्रिया के प्रत्युत्तर में ठीक उसी की बराबर शक्ति की प्रक्रिया भी होती है, भूल चुकी हैं।
मदाम: अब तुम जो भी कहो, चुनाव आयोग से फटकार तो तुम्हे मुझसे अधिक जोरों की मिलि। यह मेरे ही संवाद ' मौत का सौदागर' का असर था कि तुम आपा खो बैठे। और तुमने सोहराब की हत्या के सेहरा अपने सर पर बांध लिया। क्या फजीहत उठानी पड़ी तुम्हें , इसके फल स्वरुप। तुम कितनी आसानी से मेरे जाल में उलझ गये।
नमो: हाँ, यह जाल तो आपने बड़ी सफायी से लगाया था। मैं जानता हूं कि इस जाल को बांधने में मुख्य भुमिका आपके परिवार की नहीं , बल्कि यह नेपथ्य में खड़े कुल्हड़ से सुड़कते कपमा के कामरेड की है। लेकिन कामरेड गुजरात को चीन समझ बैठे। वैसे चीन को भी वे कितना समझते हैं। लेकिन गुजरात में इन प्रक्रियाओं से वोट नहीं बटोरे जा सकते। सिर्फ अंग्रेजी समाचार पत्रों की सुर्खियां ही बटोरी जा सकती है। और भारत में अंग्रेजी समाचार पढ़ने वालों की सख्या नगण्य है, यह तो हम सन 2004 का चुनाव हार कर ही समझ गये थे। आपने उससे सीख नहीं ली। यहां दो ग्रहों के लोग रहते हैं एक वे जिन्हें हम भारतीय कहते हैं एव दूसरे हैं INDIANS और जो सन 2004 के चुनाव अभियान India Shining के नायक थे।
मादाम : मैने तुम्हारी पार्टी को बुरी तरह से चोट पंहुचायी है। राम तो एक विभीषण के सहारे ही युद्ध जीत गये थे। मैने तो तुम्हारे खिलाफ विभीषणों की पूरी जमात खड़ी कर दी है।
नमो: मदाम आप फिर भूल रही हैं। स्वामी परमहंस ने कहा था कि मुगलों के सिक्के अंग्रेजों के जमाने में नहीं चलते। और आप रामयण के दांव पेंच कलियुग की इक्कीसवीं सदी में चलाने का प्रयास कर रही हैं। विभीषण रावण के खिलाफ राम की मदद कर सकता था, लेकिन आज जब चतुर्दिक सिर्फ रावण ही रावण के खिलाफ युद्ध कर रहें हो तो विभीषण के हिस्से सिर्फ देश निकाला ही आता है। वह नितान्त अशक्त हो सिर्फ इश्तेहार छाप कर consultant की नौकरी हेतू अर्जी लगाने का काम कर सकता है। उससे अधिक कुछ नहीं। और फिर आपके दल में कौन से हनुमान भरे पड़े हैं। वहाँ भी सिर्फ विभीषणों की जमात है। सब के सब लंका के राज्य के हेतू भाई की हत्या की सुपारी उठाने के लिये अति आतुर हैं।
क्रमशः
गांधीनगर के चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। भारतीय पार्टी या यों कहें कि नमो को जनता का समर्थन प्राप्त हुआ है।
खैर चुनाव के लिये दोनो अहम पर्टियों ने बड़ी जी जान से मेहनत की। कड़ी मेहनत और उसके नतीजे के आने के पश्चात जैसा कि सभी लोग कुछ विश्राम चाहते हैं दोनो पर्टियों के नेता और कुछ also ran एवं ख्वामख्वाह किस्म के नेता गण unwind कर रहें हैं। शाम लगभग सात या साढ़े सात का समय है। भोजन में अभी समय है। सभी involved नेता गण एक टेबल के इर्द गिर्द इकट्ठा हो unwind और relax करने हेतु दो दो पेग ढाल चुके हैं। अब खुले दिल से एक दूसरे के साथ अपना अपना गम गलत करते हुए कुछ इस प्रकार की बातें कर रहें हैं।
मादाम: क नम रे क्या देसी बन्दुक सर्व करते हो, इतालवी बेहतर होती है।
नमो: यह क नम रे क्या कह रहीं हैं। बहुत जल्दी नाम भुल गयीं। अब यह आपके भुलक्कड़पन के कारण ही आप चुनाव में हार गयीं हैं।
आपने कहा था कि हिन्दु मुस्लिम के मुद्दे को इस चुनाव में तवज्जो नहीं देंगी। उसके बाद आपने उसे भूल कर मुझे मौत का सौदागर कहा। आप एक और बात भूल रहीं हैं कि जब आप मुस्लिम मुस्लिम चिल्लाती हैं तब मेरे बिना कुछ कहे अपने आप मेरे हिन्दु वोटों की संख्या में बढ़ोत्तरी की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। यह इस बात का परिचय है कि आपने कक्षा छठी (आपके पति को तो छठी का दूध भी याद था, और आपको छठी कक्षा का पाठ भी याद नहीं) में पढ़ाया हुआ न्युटन का तृतीय सिद्धान्त कि हर क्रिया के प्रत्युत्तर में ठीक उसी की बराबर शक्ति की प्रक्रिया भी होती है, भूल चुकी हैं।
मदाम: अब तुम जो भी कहो, चुनाव आयोग से फटकार तो तुम्हे मुझसे अधिक जोरों की मिलि। यह मेरे ही संवाद ' मौत का सौदागर' का असर था कि तुम आपा खो बैठे। और तुमने सोहराब की हत्या के सेहरा अपने सर पर बांध लिया। क्या फजीहत उठानी पड़ी तुम्हें , इसके फल स्वरुप। तुम कितनी आसानी से मेरे जाल में उलझ गये।
नमो: हाँ, यह जाल तो आपने बड़ी सफायी से लगाया था। मैं जानता हूं कि इस जाल को बांधने में मुख्य भुमिका आपके परिवार की नहीं , बल्कि यह नेपथ्य में खड़े कुल्हड़ से सुड़कते कपमा के कामरेड की है। लेकिन कामरेड गुजरात को चीन समझ बैठे। वैसे चीन को भी वे कितना समझते हैं। लेकिन गुजरात में इन प्रक्रियाओं से वोट नहीं बटोरे जा सकते। सिर्फ अंग्रेजी समाचार पत्रों की सुर्खियां ही बटोरी जा सकती है। और भारत में अंग्रेजी समाचार पढ़ने वालों की सख्या नगण्य है, यह तो हम सन 2004 का चुनाव हार कर ही समझ गये थे। आपने उससे सीख नहीं ली। यहां दो ग्रहों के लोग रहते हैं एक वे जिन्हें हम भारतीय कहते हैं एव दूसरे हैं INDIANS और जो सन 2004 के चुनाव अभियान India Shining के नायक थे।
मादाम : मैने तुम्हारी पार्टी को बुरी तरह से चोट पंहुचायी है। राम तो एक विभीषण के सहारे ही युद्ध जीत गये थे। मैने तो तुम्हारे खिलाफ विभीषणों की पूरी जमात खड़ी कर दी है।
नमो: मदाम आप फिर भूल रही हैं। स्वामी परमहंस ने कहा था कि मुगलों के सिक्के अंग्रेजों के जमाने में नहीं चलते। और आप रामयण के दांव पेंच कलियुग की इक्कीसवीं सदी में चलाने का प्रयास कर रही हैं। विभीषण रावण के खिलाफ राम की मदद कर सकता था, लेकिन आज जब चतुर्दिक सिर्फ रावण ही रावण के खिलाफ युद्ध कर रहें हो तो विभीषण के हिस्से सिर्फ देश निकाला ही आता है। वह नितान्त अशक्त हो सिर्फ इश्तेहार छाप कर consultant की नौकरी हेतू अर्जी लगाने का काम कर सकता है। उससे अधिक कुछ नहीं। और फिर आपके दल में कौन से हनुमान भरे पड़े हैं। वहाँ भी सिर्फ विभीषणों की जमात है। सब के सब लंका के राज्य के हेतू भाई की हत्या की सुपारी उठाने के लिये अति आतुर हैं।
क्रमशः
Monday, December 17, 2007
News and Views
कुछ खबरें और उनका व्याकरण
हाल की ताजा खबर है कि दिल्ली के नजदीक एक अभिजात्य विद्यालय के आठवीं कक्षा के दो छात्रों ने अपने एक सहपाठी की विद्यालय में गोली मार कर हत्या कर दी। इस खबर को भारत के सारे समाचार पत्रों ने बडी प्रमुखता के साथ छापा है। भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य मे निःस्सन्देह एक चौंका देने वाली खबर है। इस खबर के सन्दर्भ में इसका व्याकरण तलाशने की आवश्यकता है।
अमेरीका से ऐसी खबरें पहले भी आती रहीं हैं। लेकिन आज भारत में ऐसी खबरों की उत्पत्ति के विश्लेषण की परम आवश्यकता है। भारत में दिल्ली ही ऐसी सोच का स्वाभाविक प्रवेशद्वार हो सकता है। यहां एक खास किस्म की सोच समाज में घर कर गयी है। जो चल सकता है वह सही है। कानून की बन्दिशें सिर्फ मूर्ख और कमजोर व्यक्तियों के हिस्से में आती हैं। पहुंच और रुतबे वाले लोगों के लिये कानूनी बाधायें कुछ मायने नहीं रखती हैं। और सबसे अधिक जो विकृत सोच है वह यह है कि टका धर्मः,टका कर्मः । आर्थिक शक्ति ही जिन्दगी की एक मात्र barometer है।नीरद चौधरी ने दिल्ली के विषय में लिखते हुए ही कहा था कि "The only culture they have is agriculture". संस्कृति से विमुख हो समाज में जो विकृतियाँ स्वाभाविक हैं, वे ही यहां दृष्टिगोचर हैं।
आइये इस समाचार के विभिन्न पहलुओं पर गौर करें उनका विश्लेषण करें एव तत्पश्चात उनसे संलग्न सामाजिक विषंगितियों पर विचार करें।
एक सरकारी कर्मचारी अपना लाइसेंस शुदा रिवाल्वर अपने मित्र के हांथों सौंप देता है। यह जानते हुए भी की यह एक संगीन जुर्म है।
एक तथाकथित सम्भ्रान्त परिवार (Property dealer) में अवैध रुप से प्राप्त किया हुआ हथियार, सहजता एव लापरवाही के साथ रखा हुआ है।
उस छोटे 14 वर्षीय बालक को उसके ही पिता ने खेल खेल में उसे रिवाल्वर जैसे खतरनाक हथियार से वाकिफ़ करवाया है।
एक 14 वर्षीय बालक इतना असहिष्णु और आत्मपरक है कि आम परेशानियां के निदान हेतु जान ले लेना उसके लिये उचित निदान है।
इन सब घटनाओं से पहली बात जो उभर कर आती है कि परिवार के अन्दर शिक्षा का अभाव एव अर्थ का बाहुल्य है। दिल्ली में जमीनों कि कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि होने से Property dealers की एक पूरी जमात खड़ी हो गयी है। प्रायः इस वर्ग में अधिकांशतः शिक्षा के प्रति गहन उदासीनता एवं भैंस (शक्ति या पंहुच) का अक्ल से बड़ा होना माना जाता है। कुछ समय पहले एक छोले भटुरे वाले की हजार करोड़ की जमीन एव प्लाटों की मिल्कीयत की खबर भी इसी समाज से उभर कर आती है। दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना इन सब का मुख्य हेतू है। राजधानी होने से बड़े राजनेताओं का निवास एव उनकी उपस्थिति वहां एक विशेष Power Center का निर्माण करती है। और जो लोग इस Power Center की परिधी में आ पाते हैं उनके लिये कानून का कोइ अर्थ नहीं रह जाता। यह भारत की चिर परीचित सामन्तवादी सोच का सहज उपसंहार है।
सामाजिक हिंसा का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। सभ्यता के प्रथम लक्षण हैं कि आपसी मतभेदों का समाधान बिना हिंसा व आक्रमकता से किया जाये। शिक्षा का भी प्रथम कर्तव्य सभ्यता के इसी पहले सोपान से शुरू होता है ।
हर विषय के विश्लेषण के लिये उसका व्याकरण और सन्दर्भ समझना अति आवश्यक है। इस समाचार के व्याकरण में कहीं न कहीं एक गहन समजिक विद्रुपता छिपी है।
इस समाचार का व्याकरण तो कमोबेश उपरोक्त पंक्तियां परिभाषित कर ही देती हैं। बढता हुआ उपभोक्तावाद और अशिक्षा इस प्रकरण को जमीन प्रदान करते है।
आज आवश्यकता है कि समाज का जागरुक चतुर्थ स्तम्भ इस समस्या एवं संलग्न विंसंगति पर एक गहन चिन्तन कर एक राष्ट्रव्यापी बहस छेडें ।
मैं इस समाचार के पीछे छिपे एक बडे रोग के symptoms को सहज ही देख पा रहा हूं। यह समाचार संवेदनशीलता और जीवनमुल्यों के ह्रास का विशेष द्योतक हैं। जब व्यक्ति पूर्णतया आत्मपरक हो जाये और समाज से सिर्फ स्वार्थ का नाता हो तब पाश्चात्य उपभोक्तावाद ही एक मात्र मूलमत्र हो जाता है। स्वकेन्द्रित व्यक्ति के पास जीवनमूल्यों के लिये कोइ स्थान नहीं रहता। मनुष्य और पशु का भेद है विवेक का। ऐसे व्यक्ति में विवेक के नाम पर सिर्फ चातुर्य बच जाता है और सघर्ष के नाम पर महज अर्थोपार्जन की कशमकश। व्यक्ति उसकी अभिव्यक्ति से इतर हो सिर्फ अपने शरीर में स्थापित हो कर रह जाता है।
परिवार जीवनमुल्यों के प्रति सजगता की प्रमुख पाठशाला है। उपभोक्तावाद ने संवेदनशीलता और चैतन्य भाव की नींव को ही हिला दिया है। जब जीवन मे मैं सर्वोपरि हो जाता है तब mary pompedour का संवाद "be there deluge after me" वसुधैव कुटुम्बकम का पर्याय हो जाता है।
अमेरीका मे सत्तर के दशक मे एक पुस्तक प्रकाशित हुइ थी," IF I AM OK ,YOU ARE OK" यह सम्पूर्ण रुप से उपभोक्तावाद की सहज स्वीकृति थी। इसका परिणाम वही अपेक्षित है,जो आज अमेरीका में प्रतिदिन घट रहा है।
ये सारे प्रकरण कहीं न कहीं उपभोक्तावाद के साथ गहराई के साथ जुडे हुए हैं। गहन उपभोक्तावाद संवेदनशीलता का हन्ता है। शिक्षा अपने मूल ध्येय से विमुख हो सिर्फ जीविकोपार्जन का साधन बन गयी है। शिक्षा का मूल उद्देश्य था व्यक्ति के अन्दर का उसके बहिरंग के साथ सामंजस्य पैदा करना एव निर्भयता प्रदान करना। व्यक्ति को एक विचारशील अभिव्यक्ति में परिवर्तित करना। आज शिक्षा पूरी तरह अपने उस ध्येय से परे हो गयी है। इस अधूरी शिक्षा में महत्व सिर्फ सूचनायें एव किताबी ज्ञान का संकलन भर का है। विद्वता के लिये आवश्यक है उन सूचनाओं को विचारों में परिवर्तित करने का। इसी से शिक्षा व्यावाहारिक हो विद्वता में तद्बील हो पायेगी। शिक्षा के क्षेत्र में नीति शास्त्र का अभाव समाज को सही पृष्ठभुमि नहीं प्रदान कर पा रहा है।
यह हाल की घटना उसी श्रृंखला की एक नयी कड़ी है शायद जिसकी शुरू की कड़ियों में जेसिका लाल की हत्या, नीतिश कटारा की हत्या, बी एम डब्ल्यू केस आदि आते हैं। चार सौ व्यक्तियों के सामने खून होता है और अपराधी छुट जाता है। एक व्यक्ति नशे में धुत अपनी गाड़ी से छः पुलिस वालों को रौंद कर बेदाग निकल जाता है। सजु बाबा के लिये सिने दुनिया सहानुभूति प्रदर्शित्त करती है।
इन सामाजिक विषंगतियों से लड़ने के लिये हमें कई स्तरों पर युद्ध छेड़ना पड़ेगा।
1) पहला एव जड़ पर कुठाराघात करने के लिये एक समुचित शिक्षा का प्रयास। नीति शास्त्र को महत्व एव उसके लिये उचित पठन सामग्री यथा गीता को पाठ्य क्रम में स्थान।
2) कानून को समुचित आधार । इस के पीछे समाज के चतुर्थ स्तम्भ को खास भुमिका अदा करने की आवश्यकता है। जिस तरह प्रेस ने जेसिका लाल केस में सरकार को बाध्य कर केस का retrial करवा दिया इसी तरह जागरुक प्रेस गणतन्त्र में कानून एव व्यवस्था स्थापित करने के में एक अहं भुमिका अदा करने की क्षमता रखती है।
समाज जब कभी कानूनी अवस्थायें कमजोर हुई हैं तब तब समाज में अराजकता को बढ़ावा मिला है। हाल में प्रस्तावित पुलिस रिफार्म भी इस दिशा में क्रान्तिकारी साबित हो सकने की क्षमता रखते हैं।
हाल की ताजा खबर है कि दिल्ली के नजदीक एक अभिजात्य विद्यालय के आठवीं कक्षा के दो छात्रों ने अपने एक सहपाठी की विद्यालय में गोली मार कर हत्या कर दी। इस खबर को भारत के सारे समाचार पत्रों ने बडी प्रमुखता के साथ छापा है। भारतवर्ष के परिप्रेक्ष्य मे निःस्सन्देह एक चौंका देने वाली खबर है। इस खबर के सन्दर्भ में इसका व्याकरण तलाशने की आवश्यकता है।
अमेरीका से ऐसी खबरें पहले भी आती रहीं हैं। लेकिन आज भारत में ऐसी खबरों की उत्पत्ति के विश्लेषण की परम आवश्यकता है। भारत में दिल्ली ही ऐसी सोच का स्वाभाविक प्रवेशद्वार हो सकता है। यहां एक खास किस्म की सोच समाज में घर कर गयी है। जो चल सकता है वह सही है। कानून की बन्दिशें सिर्फ मूर्ख और कमजोर व्यक्तियों के हिस्से में आती हैं। पहुंच और रुतबे वाले लोगों के लिये कानूनी बाधायें कुछ मायने नहीं रखती हैं। और सबसे अधिक जो विकृत सोच है वह यह है कि टका धर्मः,टका कर्मः । आर्थिक शक्ति ही जिन्दगी की एक मात्र barometer है।नीरद चौधरी ने दिल्ली के विषय में लिखते हुए ही कहा था कि "The only culture they have is agriculture". संस्कृति से विमुख हो समाज में जो विकृतियाँ स्वाभाविक हैं, वे ही यहां दृष्टिगोचर हैं।
आइये इस समाचार के विभिन्न पहलुओं पर गौर करें उनका विश्लेषण करें एव तत्पश्चात उनसे संलग्न सामाजिक विषंगितियों पर विचार करें।
एक सरकारी कर्मचारी अपना लाइसेंस शुदा रिवाल्वर अपने मित्र के हांथों सौंप देता है। यह जानते हुए भी की यह एक संगीन जुर्म है।
एक तथाकथित सम्भ्रान्त परिवार (Property dealer) में अवैध रुप से प्राप्त किया हुआ हथियार, सहजता एव लापरवाही के साथ रखा हुआ है।
उस छोटे 14 वर्षीय बालक को उसके ही पिता ने खेल खेल में उसे रिवाल्वर जैसे खतरनाक हथियार से वाकिफ़ करवाया है।
एक 14 वर्षीय बालक इतना असहिष्णु और आत्मपरक है कि आम परेशानियां के निदान हेतु जान ले लेना उसके लिये उचित निदान है।
इन सब घटनाओं से पहली बात जो उभर कर आती है कि परिवार के अन्दर शिक्षा का अभाव एव अर्थ का बाहुल्य है। दिल्ली में जमीनों कि कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि होने से Property dealers की एक पूरी जमात खड़ी हो गयी है। प्रायः इस वर्ग में अधिकांशतः शिक्षा के प्रति गहन उदासीनता एवं भैंस (शक्ति या पंहुच) का अक्ल से बड़ा होना माना जाता है। कुछ समय पहले एक छोले भटुरे वाले की हजार करोड़ की जमीन एव प्लाटों की मिल्कीयत की खबर भी इसी समाज से उभर कर आती है। दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना इन सब का मुख्य हेतू है। राजधानी होने से बड़े राजनेताओं का निवास एव उनकी उपस्थिति वहां एक विशेष Power Center का निर्माण करती है। और जो लोग इस Power Center की परिधी में आ पाते हैं उनके लिये कानून का कोइ अर्थ नहीं रह जाता। यह भारत की चिर परीचित सामन्तवादी सोच का सहज उपसंहार है।
सामाजिक हिंसा का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। सभ्यता के प्रथम लक्षण हैं कि आपसी मतभेदों का समाधान बिना हिंसा व आक्रमकता से किया जाये। शिक्षा का भी प्रथम कर्तव्य सभ्यता के इसी पहले सोपान से शुरू होता है ।
हर विषय के विश्लेषण के लिये उसका व्याकरण और सन्दर्भ समझना अति आवश्यक है। इस समाचार के व्याकरण में कहीं न कहीं एक गहन समजिक विद्रुपता छिपी है।
इस समाचार का व्याकरण तो कमोबेश उपरोक्त पंक्तियां परिभाषित कर ही देती हैं। बढता हुआ उपभोक्तावाद और अशिक्षा इस प्रकरण को जमीन प्रदान करते है।
आज आवश्यकता है कि समाज का जागरुक चतुर्थ स्तम्भ इस समस्या एवं संलग्न विंसंगति पर एक गहन चिन्तन कर एक राष्ट्रव्यापी बहस छेडें ।
मैं इस समाचार के पीछे छिपे एक बडे रोग के symptoms को सहज ही देख पा रहा हूं। यह समाचार संवेदनशीलता और जीवनमुल्यों के ह्रास का विशेष द्योतक हैं। जब व्यक्ति पूर्णतया आत्मपरक हो जाये और समाज से सिर्फ स्वार्थ का नाता हो तब पाश्चात्य उपभोक्तावाद ही एक मात्र मूलमत्र हो जाता है। स्वकेन्द्रित व्यक्ति के पास जीवनमूल्यों के लिये कोइ स्थान नहीं रहता। मनुष्य और पशु का भेद है विवेक का। ऐसे व्यक्ति में विवेक के नाम पर सिर्फ चातुर्य बच जाता है और सघर्ष के नाम पर महज अर्थोपार्जन की कशमकश। व्यक्ति उसकी अभिव्यक्ति से इतर हो सिर्फ अपने शरीर में स्थापित हो कर रह जाता है।
परिवार जीवनमुल्यों के प्रति सजगता की प्रमुख पाठशाला है। उपभोक्तावाद ने संवेदनशीलता और चैतन्य भाव की नींव को ही हिला दिया है। जब जीवन मे मैं सर्वोपरि हो जाता है तब mary pompedour का संवाद "be there deluge after me" वसुधैव कुटुम्बकम का पर्याय हो जाता है।
अमेरीका मे सत्तर के दशक मे एक पुस्तक प्रकाशित हुइ थी," IF I AM OK ,YOU ARE OK" यह सम्पूर्ण रुप से उपभोक्तावाद की सहज स्वीकृति थी। इसका परिणाम वही अपेक्षित है,जो आज अमेरीका में प्रतिदिन घट रहा है।
ये सारे प्रकरण कहीं न कहीं उपभोक्तावाद के साथ गहराई के साथ जुडे हुए हैं। गहन उपभोक्तावाद संवेदनशीलता का हन्ता है। शिक्षा अपने मूल ध्येय से विमुख हो सिर्फ जीविकोपार्जन का साधन बन गयी है। शिक्षा का मूल उद्देश्य था व्यक्ति के अन्दर का उसके बहिरंग के साथ सामंजस्य पैदा करना एव निर्भयता प्रदान करना। व्यक्ति को एक विचारशील अभिव्यक्ति में परिवर्तित करना। आज शिक्षा पूरी तरह अपने उस ध्येय से परे हो गयी है। इस अधूरी शिक्षा में महत्व सिर्फ सूचनायें एव किताबी ज्ञान का संकलन भर का है। विद्वता के लिये आवश्यक है उन सूचनाओं को विचारों में परिवर्तित करने का। इसी से शिक्षा व्यावाहारिक हो विद्वता में तद्बील हो पायेगी। शिक्षा के क्षेत्र में नीति शास्त्र का अभाव समाज को सही पृष्ठभुमि नहीं प्रदान कर पा रहा है।
यह हाल की घटना उसी श्रृंखला की एक नयी कड़ी है शायद जिसकी शुरू की कड़ियों में जेसिका लाल की हत्या, नीतिश कटारा की हत्या, बी एम डब्ल्यू केस आदि आते हैं। चार सौ व्यक्तियों के सामने खून होता है और अपराधी छुट जाता है। एक व्यक्ति नशे में धुत अपनी गाड़ी से छः पुलिस वालों को रौंद कर बेदाग निकल जाता है। सजु बाबा के लिये सिने दुनिया सहानुभूति प्रदर्शित्त करती है।
इन सामाजिक विषंगतियों से लड़ने के लिये हमें कई स्तरों पर युद्ध छेड़ना पड़ेगा।
1) पहला एव जड़ पर कुठाराघात करने के लिये एक समुचित शिक्षा का प्रयास। नीति शास्त्र को महत्व एव उसके लिये उचित पठन सामग्री यथा गीता को पाठ्य क्रम में स्थान।
2) कानून को समुचित आधार । इस के पीछे समाज के चतुर्थ स्तम्भ को खास भुमिका अदा करने की आवश्यकता है। जिस तरह प्रेस ने जेसिका लाल केस में सरकार को बाध्य कर केस का retrial करवा दिया इसी तरह जागरुक प्रेस गणतन्त्र में कानून एव व्यवस्था स्थापित करने के में एक अहं भुमिका अदा करने की क्षमता रखती है।
समाज जब कभी कानूनी अवस्थायें कमजोर हुई हैं तब तब समाज में अराजकता को बढ़ावा मिला है। हाल में प्रस्तावित पुलिस रिफार्म भी इस दिशा में क्रान्तिकारी साबित हो सकने की क्षमता रखते हैं।
Friday, November 23, 2007
Economic Disparity and Casteism – India needs another battle of Independence
Economic Disparity and Casteism – India needs another battle of Independence
INDIA SHINING was the platform of a political party that was vanquished in 2004 electoral polls. Because though India was shining but Bharat that is 77% of the population was NOT. And in Indian system of electoral collage with first past the post system , you cant win elections on the basis of the “Indian” electoral college. It has to be done with the support of the weak and fragile rural Bharat. The hi tech SMS and high octane Mass media campaign can not garner enough support to get one past the post.
The Economic disparity in that of the so called urban and laptop trotting yuppies and that of the country side peasants and proletariats is so wide that one cants see or perceive each others life style or predicaments. Both of them exist impervious of each other.
We have young BPO or KPO kids sporting their blue tooth enabled cell phones on one side of this chasm and farmers committing suicide because of mounting and non payable loans on other side. The unorganized workers , land less tillers, large 10% tribal population have little to reckon with the 9.4% growth. The trickle down effect to them is ZERO.
Providing of the basic human needs is the Primary responsibility of the state. Health and Education are the two very basic needs and not servicing this need is nothing short of criminal negligence of the Sovereign Democratic State.
We have non functional schools, ill spent funds in great and novel poverty eradication program viz., National Rural Employment Guarantee scheme that are lost in the SARAKAARI mire(A recent newspaper report stated that only 6% of the NREG funds reached the target beneficiaries) . All good intended schemes are lost in the cesspool of corruption.
Casteism , Religious fundamentalism are the ultimate bane of India. Scheming Britishers divided India into two segments and our own politicians have divided Indians into hundred cast based and similar other segments.
Mahatma Gandhi had said if Hinduism is to survive casteism has to be eradicated otherwise Hinduism would be eradicated. The brahminical class committed the sacrilege for hundreds of years to maintain their superiority, the politicians have done it TEN times more severe for their narrow parochial vote centric benefits.
Today the status as it stands no political party of any colour is prepared to bell the cat and disembark from the casteist band wagon. Rather each one is continually trying to add confusion to the chaos by dividing casts into sub casts, pitting them each against one another , rendering sarkari benefits to one and depriving another that makes them go at one another’s throat. We need a total paradigm shift to enable the political parties to come out of the morass of casteism. Nothing short of another freedom struggle to throw away this yoke of casteism is imperative and essential..
Recalling the clarion call of Jai Prakash Narayan of 1974/75 I perceive we need nothing short of another independence struggle or as JP termed it ‘TOTAL REVOLUTION’. Most of the efforts of any Government or political outfit are nothing more than ‘Band Aid’ approach to these deep rooted cancers. You need surgical intervention to root out cancer. ‘Band aid’ approach would only keep the wound festering. It is not going to be of any help.
Our freedom struggle was a total committed drive to root out slavery. Gandhiji had said ‘Independence is ability to resist a wrong and not transfer of Power from White to Browns’. We have to work towards devolving power to the have nots too. A poor illiterate citizen for petty crimes such as ticket less travel undergoes imprisonment of several years as an under trial prisoner. Whereas the Rich and Powerful get away with committing the murder in front of four hundred witnesses. The marginalized Bharat’s percepts of Independence is lost in struggle of procuring daily bread.
We need to embark upon a second battle of independence to complete the unfinished task of achieving FREEDOM and devolving power to the people at the bottom of the rung.
Extreme Economic Disparity such as one present in Indian society would never permit homogeneity. Haves and Have-nots would always exist and coexist. Yet the extreme profligacy of few viz., gifting a 125 crore jet to ones spouse as a birthday gift and majority subsisting on less then Rs.20 a day reeks of putrefied death of sensibilities. It is high time that the people living on the fringe too get counted in the process of NATION BUILDING. Gandhiji again had said ‘The Rich are nothing but trustees of the Poor. They are holding their wealth as trustees. If they do not return the same at some point in near future , the poor would have no other option but to seize it from them’. It seemingly appears to be an extremist’s slogan. Yet it was spoken by the MAHATMA the ultimate practitioner of non violence.
INDIA SHINING was the platform of a political party that was vanquished in 2004 electoral polls. Because though India was shining but Bharat that is 77% of the population was NOT. And in Indian system of electoral collage with first past the post system , you cant win elections on the basis of the “Indian” electoral college. It has to be done with the support of the weak and fragile rural Bharat. The hi tech SMS and high octane Mass media campaign can not garner enough support to get one past the post.
The Economic disparity in that of the so called urban and laptop trotting yuppies and that of the country side peasants and proletariats is so wide that one cants see or perceive each others life style or predicaments. Both of them exist impervious of each other.
We have young BPO or KPO kids sporting their blue tooth enabled cell phones on one side of this chasm and farmers committing suicide because of mounting and non payable loans on other side. The unorganized workers , land less tillers, large 10% tribal population have little to reckon with the 9.4% growth. The trickle down effect to them is ZERO.
Providing of the basic human needs is the Primary responsibility of the state. Health and Education are the two very basic needs and not servicing this need is nothing short of criminal negligence of the Sovereign Democratic State.
We have non functional schools, ill spent funds in great and novel poverty eradication program viz., National Rural Employment Guarantee scheme that are lost in the SARAKAARI mire(A recent newspaper report stated that only 6% of the NREG funds reached the target beneficiaries) . All good intended schemes are lost in the cesspool of corruption.
Casteism , Religious fundamentalism are the ultimate bane of India. Scheming Britishers divided India into two segments and our own politicians have divided Indians into hundred cast based and similar other segments.
Mahatma Gandhi had said if Hinduism is to survive casteism has to be eradicated otherwise Hinduism would be eradicated. The brahminical class committed the sacrilege for hundreds of years to maintain their superiority, the politicians have done it TEN times more severe for their narrow parochial vote centric benefits.
Today the status as it stands no political party of any colour is prepared to bell the cat and disembark from the casteist band wagon. Rather each one is continually trying to add confusion to the chaos by dividing casts into sub casts, pitting them each against one another , rendering sarkari benefits to one and depriving another that makes them go at one another’s throat. We need a total paradigm shift to enable the political parties to come out of the morass of casteism. Nothing short of another freedom struggle to throw away this yoke of casteism is imperative and essential..
Recalling the clarion call of Jai Prakash Narayan of 1974/75 I perceive we need nothing short of another independence struggle or as JP termed it ‘TOTAL REVOLUTION’. Most of the efforts of any Government or political outfit are nothing more than ‘Band Aid’ approach to these deep rooted cancers. You need surgical intervention to root out cancer. ‘Band aid’ approach would only keep the wound festering. It is not going to be of any help.
Our freedom struggle was a total committed drive to root out slavery. Gandhiji had said ‘Independence is ability to resist a wrong and not transfer of Power from White to Browns’. We have to work towards devolving power to the have nots too. A poor illiterate citizen for petty crimes such as ticket less travel undergoes imprisonment of several years as an under trial prisoner. Whereas the Rich and Powerful get away with committing the murder in front of four hundred witnesses. The marginalized Bharat’s percepts of Independence is lost in struggle of procuring daily bread.
We need to embark upon a second battle of independence to complete the unfinished task of achieving FREEDOM and devolving power to the people at the bottom of the rung.
Extreme Economic Disparity such as one present in Indian society would never permit homogeneity. Haves and Have-nots would always exist and coexist. Yet the extreme profligacy of few viz., gifting a 125 crore jet to ones spouse as a birthday gift and majority subsisting on less then Rs.20 a day reeks of putrefied death of sensibilities. It is high time that the people living on the fringe too get counted in the process of NATION BUILDING. Gandhiji again had said ‘The Rich are nothing but trustees of the Poor. They are holding their wealth as trustees. If they do not return the same at some point in near future , the poor would have no other option but to seize it from them’. It seemingly appears to be an extremist’s slogan. Yet it was spoken by the MAHATMA the ultimate practitioner of non violence.
Sunday, November 18, 2007
Pakistan and Emergency
Pakistan has been a failed state since its inception. This is the seventh Proclamation of Emergency beginning from Ayub Khan.
In India there is a wide spread condemnation of the recent proclamation of Emergency. For Pakistani’s it’s ‘Just Once Aain’. To them it’s a routine affair.
The current emergency was needed to save Pakistan and Musharraf and not Musharraf alone. The country has been in the throes of terrorism for quite sometime. After Lal Masjid fiasco, attack on Benazir’s cavalcade, the capturing of Pakistani soldiers by terrorists in NWFP and holding them as hostage for months amply indicated the impotence and helplessness of the Pakistani Government. The impending Supreme Court Judgment was only the last straw on the camels back.
Talibanisation of the society has been going on for quite sometime. Majority of the Pakistanis had favored and voted for a Shariah based constitution. The recent statement of Pakistani Cricket captain on TV that the entire Muslim world was supporting him was an extreme hyperbole and reflected a total Talibanisation of society. The national level cricketers have started to wear religion on their sleeves. Growing a beard, Praying enmasse in the Plane etc., depict a deep rooted fundamentalist attitude.
The current emergency seemingly has been proclaimed by Musharraf to get rid of the Mullas and ISI combine Raj. The flip side is that the person responsible for the things to come to such a pass is none other then Musharraf himself. Musharraf the predator can hardly be relied upon to be the deliverer. The concept of a Benevolent Dictator (A phrase given by Mr. Churchill) is absurd. All dictators' benevolence ultimately gravitates to his own kith and kin. Ideally state has enough Power to fight any unholy alliance such as this one. Musharraf had both the civil forces of state and army behind him to suppress any uprising. The state should be able to maintain law and order with in the domain of legal constitution. Any suspension of constitution , muzzling of press, suppressing of Judiciary speak of inherent weakness in the system. Musharraf inspite of being chief of army and president of state is a weak Head of State. He has been hunting with the hounds and running with the hares. He has been holding on to his seat of power only with an active support of the greatest ROGUE nation i.e., USA. Such people are seldom made of STERNER stuff.
Broadly there are only two ways to run any state. These are counting heads (democracy) or breaking heads (dictatorship). Democracy may not be an ideal form of Governance for an uneducated state like Pakistan, yet its a shade better than Breaking Heads i.e., proclaiming of emergency or Dictatorship.
I believe in Pakistan there has never been even a semblance of democracy. The Army with the mullahs have been ruling the state. When terrorists like MQM form a segment of the coalition Government, Emergency is a necessary culmination. Now Musharraf under the guise of emergency would try to shake of the Mullah regime. Godspeed to him. Yet Musharraf would be a bad choice to rule Pakistan unless he faces a PROPER ELECTION and obtains a popular mandate, which I doubt he ever would. Musharraf is a product of Pakistan Army. In Pakistan Army perceives it demeaning to go to people and seek mandate. They have an inherent right to rule or lord over people.
In India we have had a functional democracy since last 60 years. We continuously moan about its deficiencies. We quote Lord Wavell that “Indian can be ruled firmly or not ruled at all” desiring a more firm form of governance. A Democratic but Firm Government is the appropriate prescription for India. Inspite of all the deficiencies, the delays and corruption its lot better then any authoritarian or Army rule.
We have our own blind spots viz., ‘Criminalisation of Politics’, ‘Corruption in Bureaucracy and Legislature’, ‘In effective Judiciary’ and ‘sensationalisation of TRIVIA by an irresponsible MEDIA’ nearly covers the entire spectrum of any society.. All the four pillars of democracy leave much to be desired. Yet I would not even for a moment seek an authoritarian form of Governance as a substitute.
In India there is a wide spread condemnation of the recent proclamation of Emergency. For Pakistani’s it’s ‘Just Once Aain’. To them it’s a routine affair.
The current emergency was needed to save Pakistan and Musharraf and not Musharraf alone. The country has been in the throes of terrorism for quite sometime. After Lal Masjid fiasco, attack on Benazir’s cavalcade, the capturing of Pakistani soldiers by terrorists in NWFP and holding them as hostage for months amply indicated the impotence and helplessness of the Pakistani Government. The impending Supreme Court Judgment was only the last straw on the camels back.
Talibanisation of the society has been going on for quite sometime. Majority of the Pakistanis had favored and voted for a Shariah based constitution. The recent statement of Pakistani Cricket captain on TV that the entire Muslim world was supporting him was an extreme hyperbole and reflected a total Talibanisation of society. The national level cricketers have started to wear religion on their sleeves. Growing a beard, Praying enmasse in the Plane etc., depict a deep rooted fundamentalist attitude.
The current emergency seemingly has been proclaimed by Musharraf to get rid of the Mullas and ISI combine Raj. The flip side is that the person responsible for the things to come to such a pass is none other then Musharraf himself. Musharraf the predator can hardly be relied upon to be the deliverer. The concept of a Benevolent Dictator (A phrase given by Mr. Churchill) is absurd. All dictators' benevolence ultimately gravitates to his own kith and kin. Ideally state has enough Power to fight any unholy alliance such as this one. Musharraf had both the civil forces of state and army behind him to suppress any uprising. The state should be able to maintain law and order with in the domain of legal constitution. Any suspension of constitution , muzzling of press, suppressing of Judiciary speak of inherent weakness in the system. Musharraf inspite of being chief of army and president of state is a weak Head of State. He has been hunting with the hounds and running with the hares. He has been holding on to his seat of power only with an active support of the greatest ROGUE nation i.e., USA. Such people are seldom made of STERNER stuff.
Broadly there are only two ways to run any state. These are counting heads (democracy) or breaking heads (dictatorship). Democracy may not be an ideal form of Governance for an uneducated state like Pakistan, yet its a shade better than Breaking Heads i.e., proclaiming of emergency or Dictatorship.
I believe in Pakistan there has never been even a semblance of democracy. The Army with the mullahs have been ruling the state. When terrorists like MQM form a segment of the coalition Government, Emergency is a necessary culmination. Now Musharraf under the guise of emergency would try to shake of the Mullah regime. Godspeed to him. Yet Musharraf would be a bad choice to rule Pakistan unless he faces a PROPER ELECTION and obtains a popular mandate, which I doubt he ever would. Musharraf is a product of Pakistan Army. In Pakistan Army perceives it demeaning to go to people and seek mandate. They have an inherent right to rule or lord over people.
In India we have had a functional democracy since last 60 years. We continuously moan about its deficiencies. We quote Lord Wavell that “Indian can be ruled firmly or not ruled at all” desiring a more firm form of governance. A Democratic but Firm Government is the appropriate prescription for India. Inspite of all the deficiencies, the delays and corruption its lot better then any authoritarian or Army rule.
We have our own blind spots viz., ‘Criminalisation of Politics’, ‘Corruption in Bureaucracy and Legislature’, ‘In effective Judiciary’ and ‘sensationalisation of TRIVIA by an irresponsible MEDIA’ nearly covers the entire spectrum of any society.. All the four pillars of democracy leave much to be desired. Yet I would not even for a moment seek an authoritarian form of Governance as a substitute.
HOODIA |
Sunday, October 07, 2007
Corporate Social Responsibility
Corporate Social Responsibility
It was heartening to note that Corporate Social Responsibility has indeed become Corporate Index.
At the Outset the corporate world must realize that Corporate Social Responsibility is about inclusive growth and not about charity.
The concept of all inclusive Growth has been well defined in Shanti mantra in our Kato Upanishad at least FOUR Millenniums back. The Mantra reads as:
“OM SAHANA VAVATU
SAHANA BHUNATTU
SAHA VIRYAM KARAWAVAHAI
TEJASVINAVADITAMASTUMA
VIDVISHAVAHAI
OM SHANTI SHANTI SHANTI ”
Together may we be protected
Together may we be nourished
Together may we work with great energy
May our journey together be brilliant and effective
May there be no bad feelings between us
Peace, peace, peace
Mr. JRD Tata the visionary and industrialist, though much before CSR became a buzz word, observed “ In a free enterprise, the community is not just another stake holder in Business. But it’s in fact the very purpose of its existence.
No truer words have been said about CSR, though much before this acronym gained coinage and became a popular jargon. Unlike several other acronyms and jargons parroted this has to delivered with hard core fundamental work.
There is no particular definition of CSR. It has been defined by World Business Council for Sustainable Development a CEO led institution stated:-
“Corporate Social Responsibility is the continuing commitment by business to behave ethically and contribute to economic development while improving the quality of life of the workforce and their families as well as of the local community and society at large"
Internationally CSR is the responsibility of the Corporate world towards its customers, workers, peripherals and several similar segments of the society. In India it would stand modified to principally cover the under privileged class of society as target beneficiary.
The Corporate World’s three primary considerations and in that order are Profit, People and Planet. Well Profit generation need not be elaborated upon. The third “P” i.e., Planet is covered under Pollution Control, Kyoto Protocol and several similar legal and quasi legal regulations. For the second and most important “P ” i.e., People there is no legal regulation. The CSR covers that second “P”.
Through Globalization the Corporate India has recorded a healthy 9.4% growth. Yet the Rural Bharat distinct from this Corporate India lives at or below subsistence level. Whereas Economic Capital has had a tremendous growth, the social capital is required to be nurtured through CSR.
The Vision 2020 of India becoming a super power by 2020 as perceived by our ex president Mr. Abdul Kalam is nearly impossible to achieve unless some hard core fundamental work is done amongst the under privileged class and they are brought into the mainstream and rendered productive and contributors to the GNP
India is a very large country with a mega population of 1.2 billion people. The Corporate world rarely has the infrastructure and professionalism to deliver quality and cost effective CSR projects.
There are several GENUIN NGO’s doing exemplary work in several fields. A marriage between these NGO’s and Corporate world could usher in a very different and vibrant India.
A 2001 survey showed that 80% of the Public believed that the ‘ The Public interest’ could be best served by NGO’s and only 67% believed the Corporate world could do so. Hence as per popular perception and common logic, delivery and execution by NGO’s and Corporate World’s participation in financing and supervision would be an ideal partnership.
The concept of sustained growth and vision 2020 could become a reality only trough this cohesive effort. Best Free Hit Counters
Backpackers Insurance
It was heartening to note that Corporate Social Responsibility has indeed become Corporate Index.
At the Outset the corporate world must realize that Corporate Social Responsibility is about inclusive growth and not about charity.
The concept of all inclusive Growth has been well defined in Shanti mantra in our Kato Upanishad at least FOUR Millenniums back. The Mantra reads as:
“OM SAHANA VAVATU
SAHANA BHUNATTU
SAHA VIRYAM KARAWAVAHAI
TEJASVINAVADITAMASTUMA
VIDVISHAVAHAI
OM SHANTI SHANTI SHANTI ”
Together may we be protected
Together may we be nourished
Together may we work with great energy
May our journey together be brilliant and effective
May there be no bad feelings between us
Peace, peace, peace
Mr. JRD Tata the visionary and industrialist, though much before CSR became a buzz word, observed “ In a free enterprise, the community is not just another stake holder in Business. But it’s in fact the very purpose of its existence.
No truer words have been said about CSR, though much before this acronym gained coinage and became a popular jargon. Unlike several other acronyms and jargons parroted this has to delivered with hard core fundamental work.
There is no particular definition of CSR. It has been defined by World Business Council for Sustainable Development a CEO led institution stated:-
“Corporate Social Responsibility is the continuing commitment by business to behave ethically and contribute to economic development while improving the quality of life of the workforce and their families as well as of the local community and society at large"
Internationally CSR is the responsibility of the Corporate world towards its customers, workers, peripherals and several similar segments of the society. In India it would stand modified to principally cover the under privileged class of society as target beneficiary.
The Corporate World’s three primary considerations and in that order are Profit, People and Planet. Well Profit generation need not be elaborated upon. The third “P” i.e., Planet is covered under Pollution Control, Kyoto Protocol and several similar legal and quasi legal regulations. For the second and most important “P ” i.e., People there is no legal regulation. The CSR covers that second “P”.
Through Globalization the Corporate India has recorded a healthy 9.4% growth. Yet the Rural Bharat distinct from this Corporate India lives at or below subsistence level. Whereas Economic Capital has had a tremendous growth, the social capital is required to be nurtured through CSR.
The Vision 2020 of India becoming a super power by 2020 as perceived by our ex president Mr. Abdul Kalam is nearly impossible to achieve unless some hard core fundamental work is done amongst the under privileged class and they are brought into the mainstream and rendered productive and contributors to the GNP
India is a very large country with a mega population of 1.2 billion people. The Corporate world rarely has the infrastructure and professionalism to deliver quality and cost effective CSR projects.
There are several GENUIN NGO’s doing exemplary work in several fields. A marriage between these NGO’s and Corporate world could usher in a very different and vibrant India.
A 2001 survey showed that 80% of the Public believed that the ‘ The Public interest’ could be best served by NGO’s and only 67% believed the Corporate world could do so. Hence as per popular perception and common logic, delivery and execution by NGO’s and Corporate World’s participation in financing and supervision would be an ideal partnership.
The concept of sustained growth and vision 2020 could become a reality only trough this cohesive effort. Best Free Hit Counters
Backpackers Insurance
Labels:
Corporate Social Responsibility,
NGO's,
Vision 2020
Monday, September 10, 2007
Fear,Hunger and corruption
Fear Hunger and Corruption are the Principal three anathemas to Democracy.
Machiavelli taught the prince that the King should frame such laws, that subjects are compelled to break them. The moment they break the laws, they are reduced to law breakers or criminals and would be too scared to revolt against any misdeeds of the King.
This theory may had been an effective tool of subjugation in a Monarchy form of Dictatorial form of Government i.e, in a state and subject relationship. However in democracy the relationship is of state and citizen and not that of state and subject.
Ex President of US of A Bill Clinton once in an academic institutes felicitation speech had remarked that “The highest seat of power in a democracy is that of an ordinary citizen”
Hence it is the primary duty of a Democratically elected sovereign government to render that power to its common citizens and thereby have a fearless society of its citizens. Mahatma Gandhi defined independence as “ability to resist a wrong”. This ability arises out of fearlessness alone. Fear could be of the state, of the terrorists, of hunger or of any other impending peril.
To eradicate fear, the state has to first eradicate hunger and state autocracy. Very often state supposed to render succor to its citizens due to misperceived priorities becomes perilous. The fear of Hunger is a bigger fear then that of Death. Poverty is more treacherous then Death. Death kills one once . Its victims are the dependants/ family and not the dead. Whereas poverty kills every moment and the principal victim is the supposed bread earner. So the principal fear in India is that of Hunger.
Though law and order and safety of its citizens is always the primary responsibility of the state , in India the situation is dichotomous. Sizeable number of policemen are involved in providing security to the KING i.e, the law makers the so called VIP’s. Number of police personnel’s and other incidentals available for common citizen are woefully inadequate. Besides this political interference, political patronage to the criminals , hooligans functioning under the banner of political cadre skew the situation further.
Corruption is the biggest hurdle in eradicating fear and hunger. Moral poverty always precedes financial poverty. Today India has more billionaires then Japan. In fact it has highest number of billionaires in Asia. The flip side is that we have 77% of our population living on or below subsistence level.
The entire governance is VOTE centric and not people centric. The successive Governments have been fooling all the people all the time. Giving them slogans ,dividing them on the lines of cast, dividing them on the lines of linguistic chauvinism ,creating a chasm between the employers and employees has been the rule of the game known as administration. For the express and only purpose of creating of a Vote bank, Reservation is used as a subterfuge.
It is High time that Government (of whichever political hue) discarded expediency , vote centric antics giving them names of development policies and took a long term view.
As Swami Vivekanand once said that “Only people of high character can build a Great Nation. No people of small character have ever built a Great Nation.” Hence Nation building has to commence with Character Building. This was the priority enshrined in the directive principals of our Constitution too , the corner stone of our republic. Education and Health should had been the first priorities of the Independent India and not Building ASHOKA HOTEL to function as Indias Drawing Room. If the master of the house is more concerned about the drawing room, the kitchen is sure to be bereft of the necessary cereals.
Education that would convert children into responsible citizens required planning with great vision and substantial financial input. We in India are fortunate to have Great tools for Character Building viz., GITA. It has nothing to do with any religion in the conceited percepts of religion. It does not have the mention of the H word any where in its 700 shlokas. It should be included in school syllabus from class V. That’s the formative age of children. GITA would indoctrinate them about responsibilities of an individual. It would teach them the real meaning of DHARMA ( distinct from religion)
We would need different breed of teachers to show the results. The common frustrated illiterate gentry caricaturing as teachers would be totally disastrous. We would have to pick them up from places like “R K Mission”, “Chinmay Mission” etc.,
It’s a program that would need a decade to show results. Yet after the DECADE I would not venture to say that 100% of the students would metamorph into responsible citizens. Even if the number of HITS is barely 10% , we would race so far ahead of the rest of the World, that todays most developed America, would not be visible on the horizon, in our rear view mirror.
History records that he nations who have paid better emoluments to its teachers have progressed best. Its necessary in the long run to make teaching as a desired vocation and not the last refuge of a failure.
Machiavelli taught the prince that the King should frame such laws, that subjects are compelled to break them. The moment they break the laws, they are reduced to law breakers or criminals and would be too scared to revolt against any misdeeds of the King.
This theory may had been an effective tool of subjugation in a Monarchy form of Dictatorial form of Government i.e, in a state and subject relationship. However in democracy the relationship is of state and citizen and not that of state and subject.
Ex President of US of A Bill Clinton once in an academic institutes felicitation speech had remarked that “The highest seat of power in a democracy is that of an ordinary citizen”
Hence it is the primary duty of a Democratically elected sovereign government to render that power to its common citizens and thereby have a fearless society of its citizens. Mahatma Gandhi defined independence as “ability to resist a wrong”. This ability arises out of fearlessness alone. Fear could be of the state, of the terrorists, of hunger or of any other impending peril.
To eradicate fear, the state has to first eradicate hunger and state autocracy. Very often state supposed to render succor to its citizens due to misperceived priorities becomes perilous. The fear of Hunger is a bigger fear then that of Death. Poverty is more treacherous then Death. Death kills one once . Its victims are the dependants/ family and not the dead. Whereas poverty kills every moment and the principal victim is the supposed bread earner. So the principal fear in India is that of Hunger.
Though law and order and safety of its citizens is always the primary responsibility of the state , in India the situation is dichotomous. Sizeable number of policemen are involved in providing security to the KING i.e, the law makers the so called VIP’s. Number of police personnel’s and other incidentals available for common citizen are woefully inadequate. Besides this political interference, political patronage to the criminals , hooligans functioning under the banner of political cadre skew the situation further.
Corruption is the biggest hurdle in eradicating fear and hunger. Moral poverty always precedes financial poverty. Today India has more billionaires then Japan. In fact it has highest number of billionaires in Asia. The flip side is that we have 77% of our population living on or below subsistence level.
The entire governance is VOTE centric and not people centric. The successive Governments have been fooling all the people all the time. Giving them slogans ,dividing them on the lines of cast, dividing them on the lines of linguistic chauvinism ,creating a chasm between the employers and employees has been the rule of the game known as administration. For the express and only purpose of creating of a Vote bank, Reservation is used as a subterfuge.
It is High time that Government (of whichever political hue) discarded expediency , vote centric antics giving them names of development policies and took a long term view.
As Swami Vivekanand once said that “Only people of high character can build a Great Nation. No people of small character have ever built a Great Nation.” Hence Nation building has to commence with Character Building. This was the priority enshrined in the directive principals of our Constitution too , the corner stone of our republic. Education and Health should had been the first priorities of the Independent India and not Building ASHOKA HOTEL to function as Indias Drawing Room. If the master of the house is more concerned about the drawing room, the kitchen is sure to be bereft of the necessary cereals.
Education that would convert children into responsible citizens required planning with great vision and substantial financial input. We in India are fortunate to have Great tools for Character Building viz., GITA. It has nothing to do with any religion in the conceited percepts of religion. It does not have the mention of the H word any where in its 700 shlokas. It should be included in school syllabus from class V. That’s the formative age of children. GITA would indoctrinate them about responsibilities of an individual. It would teach them the real meaning of DHARMA ( distinct from religion)
We would need different breed of teachers to show the results. The common frustrated illiterate gentry caricaturing as teachers would be totally disastrous. We would have to pick them up from places like “R K Mission”, “Chinmay Mission” etc.,
It’s a program that would need a decade to show results. Yet after the DECADE I would not venture to say that 100% of the students would metamorph into responsible citizens. Even if the number of HITS is barely 10% , we would race so far ahead of the rest of the World, that todays most developed America, would not be visible on the horizon, in our rear view mirror.
History records that he nations who have paid better emoluments to its teachers have progressed best. Its necessary in the long run to make teaching as a desired vocation and not the last refuge of a failure.
Monday, September 03, 2007
Happiness
Happiness, Pleasure, Well being, Enjoyment are similar words with different meanings. Happiness without awareness is the most commonly afflicted disease in human being. The typical “I am ok ,u r ok” kind of syndrome is not happiness. Its blind selfishness. Happiness is not in fulfillment of desire. That’s pleasure.
Tilak in Gita Rahasya defined or quantified Happiness through a mathematical equation:
Happiness Quotient = Desires Fulfilled / Desires Entertained
He said its impossible to achieve happiness by increasing the numeratori.e,Desires Fulfilled. More the desire you fulfill more you entertain. The denominator increases at a faster progression as compared to numerator. That diminishes the quotient.
The only option is reducing the denominator. By reducing the denominator you can increase the quotient. By continuously reducing the denominator i.e desires entertained and finally reaching zero the quotient becomes infinite i.e, anant or ANAND.
As all external answers even this is merely interesting not complete. Primarily Happiness can not be measured. A caveman was happy if he got his stomach full. He did not look beyond. That can not be defined as happiness. Its stupor.
Desires per se are essential for growth and activity. Annihilation of desires is like killing of Cancer cells by radio therapy , it would kill lot of good cells too. Self centered desires like cancer cells do cause more harm than good though. Yet desires are an essential pre -requisite for Human evolution.
As defined by Aristotle , Happiness is an activity not a emotion. A contended person sans of any activity would seldom be really happy.
The safety catch is that one should not relate the fulfillment of desires with ones innerself or happiness.
Happiness must relate to being socially contributor, to being an active participant in general well being. An alcoholic maybe on the seventh cloud yet that emotion though devoid of any desires can not be termed as happiness.
Happiness has to be independent of desires. An old axiom “getting what u like is success and liking what u get is happiness” is again an incomplete definition.
Happiness most of the time is an illusion. We perceive well being, health, wealth, as happiness. All these are conditioned responses. A hand out of our accumulated subconsciousness.
As Dr. Radhakrishnan said in his book “An idealist’s view of religion” that the biggest challenge facing the mankind is that they have stopped thinking and have become robot automata”. A person looks for external stimuli, recognition to know or evaluate his self . He looks at the mirror to know if he is fairest of all. He does not have enough confidence on his own self. That’s the principal reason why happiness has become elusive.
Without thinking, we are in the danger of becoming the clones as described by Aldous Huxleys in “Bravo new world” and likely to seek induced happiness. The induction or stimuli could be “som” as in this book or any other tangible or intangible substance. These are extremely superficial and transitory.
Few occasions when I HAVE FELT HAPPY are related to the moments when I did though small deeds but made the environment or surroundings slightly better. I have committed several wrongs too for my benefits. They have given on occasions big profits yet seldom happiness. Those are moments of a trade off for immediate pleasure for sustained happiness . This is a subject on which one can go on and on and yet reach nowhere. Happiness is in the journey and not in the destination.
Tilak in Gita Rahasya defined or quantified Happiness through a mathematical equation:
Happiness Quotient = Desires Fulfilled / Desires Entertained
He said its impossible to achieve happiness by increasing the numeratori.e,Desires Fulfilled. More the desire you fulfill more you entertain. The denominator increases at a faster progression as compared to numerator. That diminishes the quotient.
The only option is reducing the denominator. By reducing the denominator you can increase the quotient. By continuously reducing the denominator i.e desires entertained and finally reaching zero the quotient becomes infinite i.e, anant or ANAND.
As all external answers even this is merely interesting not complete. Primarily Happiness can not be measured. A caveman was happy if he got his stomach full. He did not look beyond. That can not be defined as happiness. Its stupor.
Desires per se are essential for growth and activity. Annihilation of desires is like killing of Cancer cells by radio therapy , it would kill lot of good cells too. Self centered desires like cancer cells do cause more harm than good though. Yet desires are an essential pre -requisite for Human evolution.
As defined by Aristotle , Happiness is an activity not a emotion. A contended person sans of any activity would seldom be really happy.
The safety catch is that one should not relate the fulfillment of desires with ones innerself or happiness.
Happiness must relate to being socially contributor, to being an active participant in general well being. An alcoholic maybe on the seventh cloud yet that emotion though devoid of any desires can not be termed as happiness.
Happiness has to be independent of desires. An old axiom “getting what u like is success and liking what u get is happiness” is again an incomplete definition.
Happiness most of the time is an illusion. We perceive well being, health, wealth, as happiness. All these are conditioned responses. A hand out of our accumulated subconsciousness.
As Dr. Radhakrishnan said in his book “An idealist’s view of religion” that the biggest challenge facing the mankind is that they have stopped thinking and have become robot automata”. A person looks for external stimuli, recognition to know or evaluate his self . He looks at the mirror to know if he is fairest of all. He does not have enough confidence on his own self. That’s the principal reason why happiness has become elusive.
Without thinking, we are in the danger of becoming the clones as described by Aldous Huxleys in “Bravo new world” and likely to seek induced happiness. The induction or stimuli could be “som” as in this book or any other tangible or intangible substance. These are extremely superficial and transitory.
Few occasions when I HAVE FELT HAPPY are related to the moments when I did though small deeds but made the environment or surroundings slightly better. I have committed several wrongs too for my benefits. They have given on occasions big profits yet seldom happiness. Those are moments of a trade off for immediate pleasure for sustained happiness . This is a subject on which one can go on and on and yet reach nowhere. Happiness is in the journey and not in the destination.
Thursday, August 23, 2007
Religion is the Opium of Masses
Communism, Christianity and Religion
The Most Famous quote of communists is ‘Religion is the opium of Masses’ attributed to the principal architect of communism that is Karl Marx. Hence seemingly there could be only matters of discord in these two subjects.
Communism rejects all concepts of God and religion. It says that only oppressed people believe in religion. When they do not see any reprieve in their day to day life they seek an illusory solace in Religion and God. Communism wishes to remove those distressful conditions and make religion and God irrelevant.
Christianity in its original form must had started in around Jesus or immediately thereafter as one of the scores of ism’s trying to bring solace to the oppressed and desolate. It was a natural corollary to the Roman empire and its lack of human concern. Roman Empire had made landlords into tillers, slaves out of citizens and peasants out of noble. The onslaught of cruel Roman empire had subjected people to extreme physical and emotional hardship.
The time was ripe for people who could claim to be Gods messenger and talk about salvation. There must had been dozens of saints of the likes of Jesus Christ (if he ever existed) competing with each other trying to give comfort to troubled and defeated souls.
Its only a matter of coincidence and the strength of its followers viz., John that Christianity today can certainly be acclaimed as one of the greatest revolutions of the last Few Milleniums of human written history.
Very much like Communism it also promised salvation to the oppressed and desolate. The distinction was that it promised salvation and riches after death and Communism before death.
There is one major fallacy in the statement of Marx when he says that ‘Religion is the opium of Masses’ and goes on to talk about Christianity alone, as if it was the only religion existing on the earth in the nineteenth century.
Hinduism unlike Christianity did not believe in any other God beyond Human Being.The four Mahavakyas Prajnanam Brahm or Tat Twam Asi or Aham Brahmasmi or Ayamatma Brahma principally do not distinguish Man from God. It believes in the innate Godhood in Man. It replaces Gods Idol from the altar and puts human bust there. So when Ludwig Feurbach one of the major Guru’s of Karl Marx says that God is the merely outward projection of inward human nature, in Hinduism we do not find any dichotomy. The four Mahavakyas said something similar at least four millenniums back.
Hinduism was beyond comprehension of the west in days of Marx. There was a major language barrier as most of the works i.e., Upanishads (due to close door attitude of Brahmins) existed only in Sanskrit.
Hinduism believed in re birth yet it did lay due stress on the acts and deeds during ones life time. The Grihasth or the common family man leading a responsible life was placed higher then Saints. The famous tale of Lord Vishnu and Narad went on to exemplify this. The responsibilities towards ones family and society were to be maintained and fulfilled by all.
Lords work, social service, was always complimenting it never substituting it.
So Religion per se Hinduism was never to be opiated with. It was the religion that Lord Krishna described in the midst of most intense human activity i.e., a WAR. It teaches that you fight. If you win you enjoy the riches of earth and if you lose you enjoy the fruits of heaven. But battle is an essential activity. Don’t shy away from it. If you shy away from Battle you would be committing the most grave impious act. Opium is related with stupor and escapism. Far from that Hinduism teaches intense struggle and bravery. Opium is Tamas , and it has no place in Hinduism
The Most Famous quote of communists is ‘Religion is the opium of Masses’ attributed to the principal architect of communism that is Karl Marx. Hence seemingly there could be only matters of discord in these two subjects.
Communism rejects all concepts of God and religion. It says that only oppressed people believe in religion. When they do not see any reprieve in their day to day life they seek an illusory solace in Religion and God. Communism wishes to remove those distressful conditions and make religion and God irrelevant.
Christianity in its original form must had started in around Jesus or immediately thereafter as one of the scores of ism’s trying to bring solace to the oppressed and desolate. It was a natural corollary to the Roman empire and its lack of human concern. Roman Empire had made landlords into tillers, slaves out of citizens and peasants out of noble. The onslaught of cruel Roman empire had subjected people to extreme physical and emotional hardship.
The time was ripe for people who could claim to be Gods messenger and talk about salvation. There must had been dozens of saints of the likes of Jesus Christ (if he ever existed) competing with each other trying to give comfort to troubled and defeated souls.
Its only a matter of coincidence and the strength of its followers viz., John that Christianity today can certainly be acclaimed as one of the greatest revolutions of the last Few Milleniums of human written history.
Very much like Communism it also promised salvation to the oppressed and desolate. The distinction was that it promised salvation and riches after death and Communism before death.
There is one major fallacy in the statement of Marx when he says that ‘Religion is the opium of Masses’ and goes on to talk about Christianity alone, as if it was the only religion existing on the earth in the nineteenth century.
Hinduism unlike Christianity did not believe in any other God beyond Human Being.The four Mahavakyas Prajnanam Brahm or Tat Twam Asi or Aham Brahmasmi or Ayamatma Brahma principally do not distinguish Man from God. It believes in the innate Godhood in Man. It replaces Gods Idol from the altar and puts human bust there. So when Ludwig Feurbach one of the major Guru’s of Karl Marx says that God is the merely outward projection of inward human nature, in Hinduism we do not find any dichotomy. The four Mahavakyas said something similar at least four millenniums back.
Hinduism was beyond comprehension of the west in days of Marx. There was a major language barrier as most of the works i.e., Upanishads (due to close door attitude of Brahmins) existed only in Sanskrit.
Hinduism believed in re birth yet it did lay due stress on the acts and deeds during ones life time. The Grihasth or the common family man leading a responsible life was placed higher then Saints. The famous tale of Lord Vishnu and Narad went on to exemplify this. The responsibilities towards ones family and society were to be maintained and fulfilled by all.
Lords work, social service, was always complimenting it never substituting it.
So Religion per se Hinduism was never to be opiated with. It was the religion that Lord Krishna described in the midst of most intense human activity i.e., a WAR. It teaches that you fight. If you win you enjoy the riches of earth and if you lose you enjoy the fruits of heaven. But battle is an essential activity. Don’t shy away from it. If you shy away from Battle you would be committing the most grave impious act. Opium is related with stupor and escapism. Far from that Hinduism teaches intense struggle and bravery. Opium is Tamas , and it has no place in Hinduism
Saturday, August 18, 2007
Independance Day
Independance Day
I remember the media made 31st December 1999 into a major event. It was heralded as turn of millenium and accordingly major celebrations took place all over India (actually all over the world, but I am concerned about India in this blog).
Anyone with a little bit of sense could comprehend that the turn of millenium on 31st December 1999 was deceptive. It was actually on 31st Dec 2000. However thats not important. A change of year or a millenium is a GROSS NON EVENT. The gregorian saints decided to initiate a calender from a particular date. It does not bear any significance. The time or the Earth existed much before that. Yet millions of Indians rejoiced and participated in this celebration without giving any second thought.
I frequently ask people if they remeber 15th August 1997. The 50th aniversary of our independance. Invariably they have to be reminded of the fact that it was the 50th aniversary of our independance a real milestone in Indian History. When I ask them how they celebrated it, I get blank stares. None did. Except for customary flag hoisting in schools and offices it was an absolute NON EVENT.
I would like to share how I celebrated it. I did do something different or special that qualifies me to ask the question from people as to what did they do on the said date.
Ours is a joint family of four brothers. I was 44 then.We live in Kolkata. I packed six kids of our family in our newly purchased SUV and hit the road at around 11 PM. We were carrying about 100 paper tricolour flags. We accosted strangers on the road , handed them a flag each and requested them to hold the flag aloft and say JAIHIND loudly. We must had done so with about 60 to 70 persons in the two to three hours that we roamed the streets. The experience was quite revealing.
No FOUR WHEEL vehicle passenger responded.We met several police persons, non responded.We met half a dozen Journalists hanging out near the All India Radio building. None responded.The children of lesser God that is the the TWO WHEELER passengers, mostly did respond.
My effort had a single motive of making this date the 50 th aniversay a memorable date in the lives of the young children of our family. Or else they would never remember that they had witnessed such an important event, in their life.My mission was a GRAND success.The Children remember it vivdly even today after a lapse of TEN years.
I percieve unless we start elebrating 15th August instead of 31st December we shall not understand the significance of the Independance.
I remember the media made 31st December 1999 into a major event. It was heralded as turn of millenium and accordingly major celebrations took place all over India (actually all over the world, but I am concerned about India in this blog).
Anyone with a little bit of sense could comprehend that the turn of millenium on 31st December 1999 was deceptive. It was actually on 31st Dec 2000. However thats not important. A change of year or a millenium is a GROSS NON EVENT. The gregorian saints decided to initiate a calender from a particular date. It does not bear any significance. The time or the Earth existed much before that. Yet millions of Indians rejoiced and participated in this celebration without giving any second thought.
I frequently ask people if they remeber 15th August 1997. The 50th aniversary of our independance. Invariably they have to be reminded of the fact that it was the 50th aniversary of our independance a real milestone in Indian History. When I ask them how they celebrated it, I get blank stares. None did. Except for customary flag hoisting in schools and offices it was an absolute NON EVENT.
I would like to share how I celebrated it. I did do something different or special that qualifies me to ask the question from people as to what did they do on the said date.
Ours is a joint family of four brothers. I was 44 then.We live in Kolkata. I packed six kids of our family in our newly purchased SUV and hit the road at around 11 PM. We were carrying about 100 paper tricolour flags. We accosted strangers on the road , handed them a flag each and requested them to hold the flag aloft and say JAIHIND loudly. We must had done so with about 60 to 70 persons in the two to three hours that we roamed the streets. The experience was quite revealing.
No FOUR WHEEL vehicle passenger responded.We met several police persons, non responded.We met half a dozen Journalists hanging out near the All India Radio building. None responded.The children of lesser God that is the the TWO WHEELER passengers, mostly did respond.
My effort had a single motive of making this date the 50 th aniversay a memorable date in the lives of the young children of our family. Or else they would never remember that they had witnessed such an important event, in their life.My mission was a GRAND success.The Children remember it vivdly even today after a lapse of TEN years.
I percieve unless we start elebrating 15th August instead of 31st December we shall not understand the significance of the Independance.
Sunday, July 22, 2007
He and Me
एक दिन या शायद एक रात
मैं अचानक उससे टकरा गया
पलट कर देखा
कुछ बिसरा सा पहचाना सा चेहरा दिखा
मैंने पुछा
क्या तुम वही हो
जिसकी दहलीज पर मेरी
मेरी मां ने ताउम्र दीप जलाये
या वह
जिसपर मेरे पिता ने अपने
अडिग विश्वास का लंगर डाल रखा था।
या वह
जिसका आस्तित्व एक कमजोर आदमी की बैशाखी सा।
या वह जिसका डर दिखला कर
मन्दिर का पुजारी
लोगों से पैसे ऐंठ अपनी जीविका चलाता था।
एक हल्की सी मुस्कान
एक मद्धिम सा स्वर
मेरे कानों में गुंजा
नहीं
ये सारी परिभाषायें
लोगों के अपने अपने दृष्टि भ्रम हैं।
मैं तो इन सबसे परे हूं ।
मुझे जानने के लिये पहले खुद को जानो
जिस दिन खुद को पहचान पाओगे।
उसी दिन मुझे भी जान जाओगे ।
मेरी उलझन देख
वह प्रतिभुति मुस्कराई
यह कठिन है
तो खुद को भुल जाओ
कबीर सा खुद को पहचानो
या मीरा सा खुद को भुल जाओ
इन के बीच की परिस्थिति में तो यार
मुझे जानने के तुम्हारे सारे प्रयत्न हैं बेकार।
मैं अचानक उससे टकरा गया
पलट कर देखा
कुछ बिसरा सा पहचाना सा चेहरा दिखा
मैंने पुछा
क्या तुम वही हो
जिसकी दहलीज पर मेरी
मेरी मां ने ताउम्र दीप जलाये
या वह
जिसपर मेरे पिता ने अपने
अडिग विश्वास का लंगर डाल रखा था।
या वह
जिसका आस्तित्व एक कमजोर आदमी की बैशाखी सा।
या वह जिसका डर दिखला कर
मन्दिर का पुजारी
लोगों से पैसे ऐंठ अपनी जीविका चलाता था।
एक हल्की सी मुस्कान
एक मद्धिम सा स्वर
मेरे कानों में गुंजा
नहीं
ये सारी परिभाषायें
लोगों के अपने अपने दृष्टि भ्रम हैं।
मैं तो इन सबसे परे हूं ।
मुझे जानने के लिये पहले खुद को जानो
जिस दिन खुद को पहचान पाओगे।
उसी दिन मुझे भी जान जाओगे ।
मेरी उलझन देख
वह प्रतिभुति मुस्कराई
यह कठिन है
तो खुद को भुल जाओ
कबीर सा खुद को पहचानो
या मीरा सा खुद को भुल जाओ
इन के बीच की परिस्थिति में तो यार
मुझे जानने के तुम्हारे सारे प्रयत्न हैं बेकार।
Sunday, July 15, 2007
The Strive
तुम्हारी खोज
मैने आरम्भ में तुम्हे ढुंढा
तमाम इबादत गाहों में।
वहाँ मिली
कुछ मुर्त्तियां
कुछ किताबें
कुछ दिशाहीन संकेत
इनमें ऐसा कुछ भी नहीं था
जो मुझे, तुम तक ले जाता।
थक हार कर
अन्त में मैने ढुंढा तुम्हें
अपने ही मानस के अन्दर
तमाम सीढ़ियां उतरीं
एक लम्बी जंग झेली
और तब आखिरी सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे
पाया तुम्हें।
तुम्हें पाने के पश्चात
सारे चित्र हठात् एक दुसरे में घुल गये
मैं समझ नहीं पा रहा था
कि, उस अन्तिम सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे जो मिले
वो तुम थे या मैं।
और फिर मैं और तुम एकाकार हो गये थे।
तुम रक्त बन कर दौड़ रहे थे
मेरी धमनियों में
तुम दृष्टि बन कर समाहित थे
मेरे चक्षुओं में
और अब सारा जग तुममय था
अब हर जगह तुम थे
वो तुम थे या मैं था
नहीं जानता
क्योंकि अब तुम और मैं तो
एकाकार हो चुके थे।
मैने आरम्भ में तुम्हे ढुंढा
तमाम इबादत गाहों में।
वहाँ मिली
कुछ मुर्त्तियां
कुछ किताबें
कुछ दिशाहीन संकेत
इनमें ऐसा कुछ भी नहीं था
जो मुझे, तुम तक ले जाता।
थक हार कर
अन्त में मैने ढुंढा तुम्हें
अपने ही मानस के अन्दर
तमाम सीढ़ियां उतरीं
एक लम्बी जंग झेली
और तब आखिरी सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे
पाया तुम्हें।
तुम्हें पाने के पश्चात
सारे चित्र हठात् एक दुसरे में घुल गये
मैं समझ नहीं पा रहा था
कि, उस अन्तिम सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे जो मिले
वो तुम थे या मैं।
और फिर मैं और तुम एकाकार हो गये थे।
तुम रक्त बन कर दौड़ रहे थे
मेरी धमनियों में
तुम दृष्टि बन कर समाहित थे
मेरे चक्षुओं में
और अब सारा जग तुममय था
अब हर जगह तुम थे
वो तुम थे या मैं था
नहीं जानता
क्योंकि अब तुम और मैं तो
एकाकार हो चुके थे।
Friday, July 13, 2007
Democracy and common folk
गणतन्त्र का TRICKLE DOWN EFECT
सरकारी योजनायें
घोड़ों की नाईं खाती दाने
आम लोगों को उन योजनाओं
के लाभ के दाने
पहुंचते
उसी घोड़े की लीद की मार्फत
जनता चिड़िया सम
सड़क पर बैठ
उसी घोड़े की लीद से चुगती
अपने हिस्से के दाने
यही है गणतान्त्रिक प्रणाली
का “trickle down effect”
आज के गणतन्त्र का परिचय
गण यानि एक बेचारा
एक घुसपैठिया
एक ख्वाम्ख्वाह
एक परेशानी
एक बेवजह की अड़चन
एक आंकड़ा
और तन्त्र
एक स्वयंजीवी संस्था
स्वयं से, स्वयं के लिये, स्वयं के द्वारा
एक हथियार
सारे initiatives की हत्या के लिये
एक संस्था अधिकारों के निजीकरण के लिये
Government Plans( Like Horses)
Consume lot of Funds ( consume grains)
Supposed to generate benefit to common masses as a trickle down effect
But the common peoples benefit is equivalent to the
The undigested grains that pass thru the eusaphagus of horse
And exit along with his shit
Common people hv to remain satisfied with their share
By picking it out of the proverbial horse shit
In Indian Democracy
The all powerful individual is treated as DIRT by the govt.
And Govt is for the government , by the government and of the Government
It kills all the initiative
And usurps all powers from common folk.
सरकारी योजनायें
घोड़ों की नाईं खाती दाने
आम लोगों को उन योजनाओं
के लाभ के दाने
पहुंचते
उसी घोड़े की लीद की मार्फत
जनता चिड़िया सम
सड़क पर बैठ
उसी घोड़े की लीद से चुगती
अपने हिस्से के दाने
यही है गणतान्त्रिक प्रणाली
का “trickle down effect”
आज के गणतन्त्र का परिचय
गण यानि एक बेचारा
एक घुसपैठिया
एक ख्वाम्ख्वाह
एक परेशानी
एक बेवजह की अड़चन
एक आंकड़ा
और तन्त्र
एक स्वयंजीवी संस्था
स्वयं से, स्वयं के लिये, स्वयं के द्वारा
एक हथियार
सारे initiatives की हत्या के लिये
एक संस्था अधिकारों के निजीकरण के लिये
Government Plans( Like Horses)
Consume lot of Funds ( consume grains)
Supposed to generate benefit to common masses as a trickle down effect
But the common peoples benefit is equivalent to the
The undigested grains that pass thru the eusaphagus of horse
And exit along with his shit
Common people hv to remain satisfied with their share
By picking it out of the proverbial horse shit
In Indian Democracy
The all powerful individual is treated as DIRT by the govt.
And Govt is for the government , by the government and of the Government
It kills all the initiative
And usurps all powers from common folk.
Sunday, July 08, 2007
A Metropolis city
मैं कई सालों से
गुमशुदा लोगों के शहर
में रह रहा हूँ ।
यह उन लोगों का शहर है
जो अपने परिवार से
समाज से
सारे अपनों से गुमशुदा
विक्षिप्त इस शहर में रहने आ गये हैं।
इनके लापता विज्ञापनों के चित्र तो
छपे थे
लेकिन उन अधूरे, धुंधले चित्रों के
चेहरे नहीं होते
उनसे
उन्हें ढुंढ पाना तो कतई है असम्भव
ये अपने परिचय के सारे मानक
यथा नाम, जाति,धर्म, साकिन
अतीत के गर्भ में
कब का खो चुके हैं
न इनका कोइ भूत है
न भविष्य
इनकी मृत्यु !
ये चलते चलते गिर जाते हैं
और मर जाते हैं
मरणोपरान्त बिना किसी संस्कार के
तुरन्त ही शव गायब भी हो जाते हैं
इधर गिरे उधर लाश धुंआ हुई
बिना किसी परिचय के
इनका शोक समारोह भी नहीं सम्भव
मैं जब पुछता हूं कि
कौन मरा था
लोग विष्मय से मुझे देखते हैं।
जैसे कोई मरा ही न हो।
हां इन गुमशुदा अपरि्चित लोगों के शहर में
मुझे परिचय का मानक जरुर मिल गया है।
लोग मुझे पागल समझ्ते हैं।
गुमशुदा लोगों के शहर
में रह रहा हूँ ।
यह उन लोगों का शहर है
जो अपने परिवार से
समाज से
सारे अपनों से गुमशुदा
विक्षिप्त इस शहर में रहने आ गये हैं।
इनके लापता विज्ञापनों के चित्र तो
छपे थे
लेकिन उन अधूरे, धुंधले चित्रों के
चेहरे नहीं होते
उनसे
उन्हें ढुंढ पाना तो कतई है असम्भव
ये अपने परिचय के सारे मानक
यथा नाम, जाति,धर्म, साकिन
अतीत के गर्भ में
कब का खो चुके हैं
न इनका कोइ भूत है
न भविष्य
इनकी मृत्यु !
ये चलते चलते गिर जाते हैं
और मर जाते हैं
मरणोपरान्त बिना किसी संस्कार के
तुरन्त ही शव गायब भी हो जाते हैं
इधर गिरे उधर लाश धुंआ हुई
बिना किसी परिचय के
इनका शोक समारोह भी नहीं सम्भव
मैं जब पुछता हूं कि
कौन मरा था
लोग विष्मय से मुझे देखते हैं।
जैसे कोई मरा ही न हो।
हां इन गुमशुदा अपरि्चित लोगों के शहर में
मुझे परिचय का मानक जरुर मिल गया है।
लोग मुझे पागल समझ्ते हैं।
Wednesday, July 04, 2007
Satya
सत्य क्या है
सत्य एक सफर है।
इस सफर के सारे मील के पत्थर
सारे सत्य है।
लेकिन सारे अधूरे सत्य ।
सफर के
हर पड़ाव से शुरु होती है
एक नये सत्य की खोज
सनद रहे
सत्य कोई
स्कूली पाठ नहीं
कि अध्यापक ने पढ़ाया
और तुम ने याद कर लिया
हर सत्य की कोख से
प्रतिपादित होता है
एक नूतन व पृथक सत्य के लिये दिशा संकेत
फिर उस नयी दिशा में प्रवास
और एक और अनथक प्रयास
हर सत्य के साक्षात्कार से
उर्जा ग्रहण कर
निरन्तर यात्रा
नित्य एक नयी यात्रा
एक ग्रहणशील यात्रा
नित्य नये सूर्य के आह्वान के मानिन्द
यह यात्रा ही है एकमात्र सम्पूर्ण सत्य।
सत्य एक सफर है।
इस सफर के सारे मील के पत्थर
सारे सत्य है।
लेकिन सारे अधूरे सत्य ।
सफर के
हर पड़ाव से शुरु होती है
एक नये सत्य की खोज
सनद रहे
सत्य कोई
स्कूली पाठ नहीं
कि अध्यापक ने पढ़ाया
और तुम ने याद कर लिया
हर सत्य की कोख से
प्रतिपादित होता है
एक नूतन व पृथक सत्य के लिये दिशा संकेत
फिर उस नयी दिशा में प्रवास
और एक और अनथक प्रयास
हर सत्य के साक्षात्कार से
उर्जा ग्रहण कर
निरन्तर यात्रा
नित्य एक नयी यात्रा
एक ग्रहणशील यात्रा
नित्य नये सूर्य के आह्वान के मानिन्द
यह यात्रा ही है एकमात्र सम्पूर्ण सत्य।
Saturday, June 23, 2007
उसकी आवाज
उसकी आवाज
वह मेरी प्रेयसी की आवाज थी
उस आवाज में थे
जीवन एवं जीवनेतर
तमाम खुशियों के वादे
उस आवाज ने मेरी जिन्दगी में
Kaleidoscope के तमाम रंग भर दिये
जिन्दगी वही
लेकिन अब हठात्
जिन्दगी कि कठिनाईयां तमाम
शेष हो गयी थी
क्यों,
क्योंकि
अब हांलाकि राह वही
राहदारी (toll tax) वही
लेकिन मंजिल बदल गयी थी
अब मुझे जाना था क्षितिज के पार
अपनी प्रेयसी के घर
और,अपना घर,
अपना घर तो अब मैंने फूंक दिया था
पहले धूप मे ,बारिश मे ,आंधी मे ,तूफान मे
घर की छांह काम आती थी
अब तो धूप है न बारिश
अब तो है सिर्फ एक शीतल बयार
इस बयार में है मेरी प्रेयसी के आवाज की प्रतिध्वनि
हां अब मूझे जाना है
अपने प्रिय के घर
और इस हेतू
गोस्वामी की नाईं
अब अर्थी नाव बन गई थी
और सांप भी रस्सी
अब कहीं कोई दुर्गमता
या अलभ्यता नहीं रही थी बाकी।
वह मेरी प्रेयसी की आवाज थी
उस आवाज में थे
जीवन एवं जीवनेतर
तमाम खुशियों के वादे
उस आवाज ने मेरी जिन्दगी में
Kaleidoscope के तमाम रंग भर दिये
जिन्दगी वही
लेकिन अब हठात्
जिन्दगी कि कठिनाईयां तमाम
शेष हो गयी थी
क्यों,
क्योंकि
अब हांलाकि राह वही
राहदारी (toll tax) वही
लेकिन मंजिल बदल गयी थी
अब मुझे जाना था क्षितिज के पार
अपनी प्रेयसी के घर
और,अपना घर,
अपना घर तो अब मैंने फूंक दिया था
पहले धूप मे ,बारिश मे ,आंधी मे ,तूफान मे
घर की छांह काम आती थी
अब तो धूप है न बारिश
अब तो है सिर्फ एक शीतल बयार
इस बयार में है मेरी प्रेयसी के आवाज की प्रतिध्वनि
हां अब मूझे जाना है
अपने प्रिय के घर
और इस हेतू
गोस्वामी की नाईं
अब अर्थी नाव बन गई थी
और सांप भी रस्सी
अब कहीं कोई दुर्गमता
या अलभ्यता नहीं रही थी बाकी।
Thursday, June 21, 2007
Yakhsa
यक्ष
मुझे नित्य ही मृत्यु की सजा मिलती है।
नित्य ही मेरा यक्ष से होता है सामना
मैं कोई युद्धिष्ठिर तो हुं नहीं
कि उत्तीर्ण हो पाउं
अतएव हर रोज मुझे मृत्यु की सजा ही मिलती है।
नित्य ही मेरा कुछ न कुछ मर जाता है।
अब कल ही यक्ष ने मुझसे पूछा
सत्य क्या है।
मैने टालने हेतु
शंकराचार्य के हवाले से कहा
इस मिथ्या जगत में भला
सत्य की क्या हस्ती।
कि बताउं
सत्य क्या है।
तब यक्ष गुर्राया
तुम भारी नाम के पार्श्व से
खेल रहे हो आखेट
सामने आओ या
मृत्यु का करो वरण।
मैं हिम्मत बांध बाहर आया
मन्द मन्द मुस्कुराया
बोला
इस प्रश्न का उत्तर काफी सघन है।
सुन पाओगे, झेल पाओगे इसकी विभीषिका
तो सुनो
यह द्वापर नहीं कलियुग है।
इस प्रश्न के उत्तर के लिये
पहले भिन्न भिन्न सत्य को पहचानो
पहला सत्य वह है
जो अदालत में शपथ लेकर बतलाया जाता है।
दूसरा सत्य जो थाने की डायरी में दर्ज़ पाता है।
तीसरा वह जो मन्त्री मुख से
जनता को परोसा जाता है।
फिर मृत्यु के भय से मैंने
समुचित उत्तर ग़ोएब्बेल्स की धुरी से दिया
“कि आज हर वह संवाद जो
निरन्तर और शक्ति के साथ दोहराया जाये
सत्य है”
इसीलिये सिर्फ अशक्त लोगों के हिस्से ही
आती है मिथ्या
कौन भला कौन सुनता है
उनके हिस्से के शब्द
आज यहां निरुत्तर जिन्दगी ही सत्य है।
उत्तर तलाशने की प्रक्रिया में
मृत्यु के वरण की सम्भावनाएं हैं
निश्चित।
इसलिये
जिन्दगी को जीने के लिये
इस कलियुग में पहन लिये हैं, मैने
कर्ण सम संवेदनहीनता के कवच कुन्डल
और इसी तहर
अब हर रोज मैं तुम्हें भी झेल पाता हूं।
और अब नित्य कुछ कुछ मर कर भी
आंशिक ही सही लेकिन जिन्दा हूं
मुझे नित्य ही मृत्यु की सजा मिलती है।
नित्य ही मेरा यक्ष से होता है सामना
मैं कोई युद्धिष्ठिर तो हुं नहीं
कि उत्तीर्ण हो पाउं
अतएव हर रोज मुझे मृत्यु की सजा ही मिलती है।
नित्य ही मेरा कुछ न कुछ मर जाता है।
अब कल ही यक्ष ने मुझसे पूछा
सत्य क्या है।
मैने टालने हेतु
शंकराचार्य के हवाले से कहा
इस मिथ्या जगत में भला
सत्य की क्या हस्ती।
कि बताउं
सत्य क्या है।
तब यक्ष गुर्राया
तुम भारी नाम के पार्श्व से
खेल रहे हो आखेट
सामने आओ या
मृत्यु का करो वरण।
मैं हिम्मत बांध बाहर आया
मन्द मन्द मुस्कुराया
बोला
इस प्रश्न का उत्तर काफी सघन है।
सुन पाओगे, झेल पाओगे इसकी विभीषिका
तो सुनो
यह द्वापर नहीं कलियुग है।
इस प्रश्न के उत्तर के लिये
पहले भिन्न भिन्न सत्य को पहचानो
पहला सत्य वह है
जो अदालत में शपथ लेकर बतलाया जाता है।
दूसरा सत्य जो थाने की डायरी में दर्ज़ पाता है।
तीसरा वह जो मन्त्री मुख से
जनता को परोसा जाता है।
फिर मृत्यु के भय से मैंने
समुचित उत्तर ग़ोएब्बेल्स की धुरी से दिया
“कि आज हर वह संवाद जो
निरन्तर और शक्ति के साथ दोहराया जाये
सत्य है”
इसीलिये सिर्फ अशक्त लोगों के हिस्से ही
आती है मिथ्या
कौन भला कौन सुनता है
उनके हिस्से के शब्द
आज यहां निरुत्तर जिन्दगी ही सत्य है।
उत्तर तलाशने की प्रक्रिया में
मृत्यु के वरण की सम्भावनाएं हैं
निश्चित।
इसलिये
जिन्दगी को जीने के लिये
इस कलियुग में पहन लिये हैं, मैने
कर्ण सम संवेदनहीनता के कवच कुन्डल
और इसी तहर
अब हर रोज मैं तुम्हें भी झेल पाता हूं।
और अब नित्य कुछ कुछ मर कर भी
आंशिक ही सही लेकिन जिन्दा हूं
Wednesday, June 20, 2007
Me
मैं और मैं
मैं जानता हूं कि
मैं, मैं नहीं।
मैं वह हूं
फिर भी
मैं अपने
अहम् के दरवाजे के इस तरफ खड़ा
अपने स्थूल मैं, में
स्थिर हो, रह गया हूं ।
मेरी इस स्थूल से सूक्ष्म
की यात्रा में
मुख्य अड़चन मेरे सुशुप्त पन की है
मैं आजतक
तमाम दिशा संकेतों से अनभिज्ञ
खुद अपने ही अहम् की उंगली थामे
एक वृत्ताकार दिशा में
निरन्तर चल रहा हूं
यह वृत्ताकार यात्रा तो
कालातित, अनादि और अनन्त है
और इस वृत्ताकार यात्रा में
दिन ढ़ले तक की तय दूरी
सदा शून्य ही होती है
अब शून्य displacement के अन्तर्गत
ढेर सारी उर्जा के क्षय पश्चात भी
Work done की मात्रा
तो शून्य ही रहेगी।
हां इन्तज़ार है उस क्षण का
जब मेरी अहम् की खुमारी टूटेगी
और मैं अपने उस रुप से रुबरु हो
Displacement का पहला कदम
बढ़ा पाउंगा
हां खुली आंखों को ही
गन्तव्य भी होगा परिलक्षित
और तब अनावृत्त दिशा संकेत
मार्ग दर्शक बन
Energy conservation के नियमों की परीधि में
भक्ति और ज्ञान को शक्ति में बदल देंगे
मेरी यात्रा
मेरी यात्रा का अन्तिम पड़ाव
तो तत् त्वम असि है
जहां परमाणुवीय E = MC² सिद्धान्तानुसार
मेरा पुरा का पुरा मैं, ही
शुद्ध उर्जा में रुपान्तरित में हो जायेगा।
मैं जानता हूं कि
मैं, मैं नहीं।
मैं वह हूं
फिर भी
मैं अपने
अहम् के दरवाजे के इस तरफ खड़ा
अपने स्थूल मैं, में
स्थिर हो, रह गया हूं ।
मेरी इस स्थूल से सूक्ष्म
की यात्रा में
मुख्य अड़चन मेरे सुशुप्त पन की है
मैं आजतक
तमाम दिशा संकेतों से अनभिज्ञ
खुद अपने ही अहम् की उंगली थामे
एक वृत्ताकार दिशा में
निरन्तर चल रहा हूं
यह वृत्ताकार यात्रा तो
कालातित, अनादि और अनन्त है
और इस वृत्ताकार यात्रा में
दिन ढ़ले तक की तय दूरी
सदा शून्य ही होती है
अब शून्य displacement के अन्तर्गत
ढेर सारी उर्जा के क्षय पश्चात भी
Work done की मात्रा
तो शून्य ही रहेगी।
हां इन्तज़ार है उस क्षण का
जब मेरी अहम् की खुमारी टूटेगी
और मैं अपने उस रुप से रुबरु हो
Displacement का पहला कदम
बढ़ा पाउंगा
हां खुली आंखों को ही
गन्तव्य भी होगा परिलक्षित
और तब अनावृत्त दिशा संकेत
मार्ग दर्शक बन
Energy conservation के नियमों की परीधि में
भक्ति और ज्ञान को शक्ति में बदल देंगे
मेरी यात्रा
मेरी यात्रा का अन्तिम पड़ाव
तो तत् त्वम असि है
जहां परमाणुवीय E = MC² सिद्धान्तानुसार
मेरा पुरा का पुरा मैं, ही
शुद्ध उर्जा में रुपान्तरित में हो जायेगा।
Monday, June 18, 2007
मेरा राम
पहले मेरे गांव तक
सिर्फ एक पगडंडी आती थी
इस पगडंडी पर से लोग पैदल ही आते जाते थे।
लोगों के कंधों पर होते थे
छोटे छोटे थैले
जिनमें होती थी छोटी छोटी इच्छाएं
कुछ बहुत ही छोटे छोटे इरादे।
तब हमारा सूरज भी
जापान से नहीं
पिछवाड़े की पोखर से ही उगा करता था ।
लेकिन अब
हां, अब तो मेरे गांव तक पक्की सड़क आ गयी है।
इस सड़क के रास्ते
वाहनों में भर भर कर
आधुनिकता की
एक नयी फिज़ा भी आ रही है।
अचानक एक दिन मेरे गांव
एक ट्रक भी आया था इसी सड़क से
मेरे गांव में ट्रक का आना
चौधरी के दरवाजे कुछ पेटियां उतारना
और चले जाना
मेरे गांव के लिये एक अभूतपूर्व घटना थी।
कौतुहूलतावश जब चाचा चौधरी से पुछा
तो पता चला
कि आधी पेटियों पर पाने वाले के खाने में
मेरे गांव के पुजारी का नाम था
और बाकी आधी पेटियों पर
मेरे गांव की मस्जिद के मौलवी का नाम था
किन्तु गौर तलब बात यह थी कि
सारी पेटियों पर प्रेषक के खाने में
एक ही नाम था।
किसी एक ने एक ही मन्तव्य से
अलग अलग गन्तव्यों पर
भेजी थी बराबर बराबर एक सी ही पेटियां।
कुछ ही दिनों में
मेरे गांव की फिज़ा में एक बिल्कुल नयी मह्क थी।
मेरे गांव की मस्जिद का मौलवी
मेरे बचपन का साथी
जो विगत कई वर्षों से
हर सुबह मुझसे मिलता
अपने कुरान वाले हाथों को ऊपर उठा कर
मुझसे राम राम करता
और मस्जिद की ओर चल देता ।
तब उसके हाथों में कुरान
मुंह में राम
और चेहरे पर एक नूर हुआ करता था।
हां आजकल भी हर सुबह वह दिखता है।
लेकिन अब उसके चेहरे पर
दोस्ती का नूर नहीं
एक अजनबी पन का एहसास रह्ता है।
अब हाथों में कुरान नही
अविश्वास की बैशाखी है
मुंह में राम नहीं
एक चुप्पी है।
हां मेरे बचपन का साथी अब गुंगा हो गया है।
और अब इस सड़क के रास्ते आयी
आधुनिकता के धुंधलके में
मेरी हर सुबह का राम मुझसे खो गया है।
सिर्फ एक पगडंडी आती थी
इस पगडंडी पर से लोग पैदल ही आते जाते थे।
लोगों के कंधों पर होते थे
छोटे छोटे थैले
जिनमें होती थी छोटी छोटी इच्छाएं
कुछ बहुत ही छोटे छोटे इरादे।
तब हमारा सूरज भी
जापान से नहीं
पिछवाड़े की पोखर से ही उगा करता था ।
लेकिन अब
हां, अब तो मेरे गांव तक पक्की सड़क आ गयी है।
इस सड़क के रास्ते
वाहनों में भर भर कर
आधुनिकता की
एक नयी फिज़ा भी आ रही है।
अचानक एक दिन मेरे गांव
एक ट्रक भी आया था इसी सड़क से
मेरे गांव में ट्रक का आना
चौधरी के दरवाजे कुछ पेटियां उतारना
और चले जाना
मेरे गांव के लिये एक अभूतपूर्व घटना थी।
कौतुहूलतावश जब चाचा चौधरी से पुछा
तो पता चला
कि आधी पेटियों पर पाने वाले के खाने में
मेरे गांव के पुजारी का नाम था
और बाकी आधी पेटियों पर
मेरे गांव की मस्जिद के मौलवी का नाम था
किन्तु गौर तलब बात यह थी कि
सारी पेटियों पर प्रेषक के खाने में
एक ही नाम था।
किसी एक ने एक ही मन्तव्य से
अलग अलग गन्तव्यों पर
भेजी थी बराबर बराबर एक सी ही पेटियां।
कुछ ही दिनों में
मेरे गांव की फिज़ा में एक बिल्कुल नयी मह्क थी।
मेरे गांव की मस्जिद का मौलवी
मेरे बचपन का साथी
जो विगत कई वर्षों से
हर सुबह मुझसे मिलता
अपने कुरान वाले हाथों को ऊपर उठा कर
मुझसे राम राम करता
और मस्जिद की ओर चल देता ।
तब उसके हाथों में कुरान
मुंह में राम
और चेहरे पर एक नूर हुआ करता था।
हां आजकल भी हर सुबह वह दिखता है।
लेकिन अब उसके चेहरे पर
दोस्ती का नूर नहीं
एक अजनबी पन का एहसास रह्ता है।
अब हाथों में कुरान नही
अविश्वास की बैशाखी है
मुंह में राम नहीं
एक चुप्पी है।
हां मेरे बचपन का साथी अब गुंगा हो गया है।
और अब इस सड़क के रास्ते आयी
आधुनिकता के धुंधलके में
मेरी हर सुबह का राम मुझसे खो गया है।
Sunday, June 10, 2007
One and Zero
इकाई
हां मैं ढ़ुंढ़ रहा था एक इकाई
वही इकाई जिसके पीछे शून्य भी खड़े हों
तो भी संख्या दहाई, सैंकड़ा, लाख कुछ भी हो सकती है।
हां,शुन्यों के ढ़ेर में
बहुत ढ़ुंढ़ने के बाद मिली मुझे एक इकाई,
लेकिन खड़ी इकाई के खाने में।
मैंने विष्मय से पुछा।
क्यों भई इकाई, इस अन्तिम पंक्ति में क्यों हो
अग्रिम पंक्ति में आओ
और नजदीक खड़े शून्यों को भी सार्थक बनाओ।
इकाई ठिठकी , सुबकी, सहमी बोली
नहीं
मै यहीं ठीक हूँ।
क्यों?
क्योंकि शून्यों ने अब बांध ली है जमात
और मुझे धकेल कर खड़ा कर दिया है इकाई के खाने में।
क्यों? ऐसा क्यों,क्या वे सार्थक नहीं होन चाहते।
नहीं
सार्थक जिन्दगी उन्हें बोझिल लगने लगी है
और उन्होंने निरर्थक जिन्दगी को ही जीना मान लिया है।
हां मैं ढ़ुंढ़ रहा था एक इकाई
वही इकाई जिसके पीछे शून्य भी खड़े हों
तो भी संख्या दहाई, सैंकड़ा, लाख कुछ भी हो सकती है।
हां,शुन्यों के ढ़ेर में
बहुत ढ़ुंढ़ने के बाद मिली मुझे एक इकाई,
लेकिन खड़ी इकाई के खाने में।
मैंने विष्मय से पुछा।
क्यों भई इकाई, इस अन्तिम पंक्ति में क्यों हो
अग्रिम पंक्ति में आओ
और नजदीक खड़े शून्यों को भी सार्थक बनाओ।
इकाई ठिठकी , सुबकी, सहमी बोली
नहीं
मै यहीं ठीक हूँ।
क्यों?
क्योंकि शून्यों ने अब बांध ली है जमात
और मुझे धकेल कर खड़ा कर दिया है इकाई के खाने में।
क्यों? ऐसा क्यों,क्या वे सार्थक नहीं होन चाहते।
नहीं
सार्थक जिन्दगी उन्हें बोझिल लगने लगी है
और उन्होंने निरर्थक जिन्दगी को ही जीना मान लिया है।
Thursday, June 07, 2007
मुर्दों का शहर
यहां तुम किसे आवाज दे रहे हो
यह तो मुर्दों का शहर है।
जबकि बढ़ना ही जिन्दगी का
एक मात्र प्रतीक चिन्ह है।
इस शहर के लोगों ने
एक अरसे से बढ़ना छोड़ दिया है
क्यों, क्योंकि वे कब के मर चुके हैं।
और निरन्तर मुर्दे की नांई घट रहे हैं।
मुर्दे की पहले चमड़ी जाती है
फिर मांस और फिर हाड़
इसी तरह इन लोगों ने पहले
तहज़ीब खोयी , फिर तमीज़
और आखिर में अपनी पहचान भी खोयेंगे
लेकिन ये मरे कब और कैसे
एक दिन हठात्
भौतिकवाद के वियोग चिन्ह ने
इनकी जिन्दगी के समीकरण के
तमाम चिन्ह बदल दिये
अब योग वियोग हो गया
और वियोग, योग
और अब इन लोगों ने
निरन्तर घटने को ही बढ़ना मान लिया है।
यह तो मुर्दों का शहर है।
जबकि बढ़ना ही जिन्दगी का
एक मात्र प्रतीक चिन्ह है।
इस शहर के लोगों ने
एक अरसे से बढ़ना छोड़ दिया है
क्यों, क्योंकि वे कब के मर चुके हैं।
और निरन्तर मुर्दे की नांई घट रहे हैं।
मुर्दे की पहले चमड़ी जाती है
फिर मांस और फिर हाड़
इसी तरह इन लोगों ने पहले
तहज़ीब खोयी , फिर तमीज़
और आखिर में अपनी पहचान भी खोयेंगे
लेकिन ये मरे कब और कैसे
एक दिन हठात्
भौतिकवाद के वियोग चिन्ह ने
इनकी जिन्दगी के समीकरण के
तमाम चिन्ह बदल दिये
अब योग वियोग हो गया
और वियोग, योग
और अब इन लोगों ने
निरन्तर घटने को ही बढ़ना मान लिया है।
Friday, June 01, 2007
अनुभव
अनुभव अधिकतर दुःस्वप्न से
कड़वे
कसैले
मातें
घातें और
अन्धेरी रातें
फिर भी इन सबको हर्ष से स्वीकारा मैने
क्योंकि इन सबमें से बीना मैंने
साहस का ताना
आत्मविश्वास का बाना
और बुन ली एक पुरे आस्तित्व की चादर
गोकि तुम्हारे साथ थी
सजीली रातें
मीठी बातें
अनगिनत सौगातें
क्या बिन पाये तुम इनमें से
कमजोर इरादे
अनहद मुरादें
और VIAGRA ढुंढता
एक जाली सा बेवजूद व्यक्तित्व
मनुष्य की जिन्दगी युं नहीं जीयी जाती बन्धु
काश तुमने मनुष्यता के प्रमुख के अवलम्ब
बुद्धि को अपना सारथी बनाया होता।
यह तो एक पाशविक विलाशिता थी
जब बुद्धि पर तुम्हारा मस्तिष्क हावी था।
और तुम सफल हो कर भी
कभी खुश नहीं हो सके
तमाम
साजो सामान
वृहद अरमान
उंचे सम्मान
फिर भी कुछ ऐसा था
जो तुम्हें मिला ही नहीं
और तुमने निर्धनों की मौत ही पाई।
और अब जो बाकी है तुममें
वह मनुष्य नहीं
सिर्फ एक, एक आयामी समीकरण है
और एक आयामी समीकरण में तो
चौड़ाई और गहराई से नावाकिफ
सिर्फ लम्बाई ही होती है।
कड़वे
कसैले
मातें
घातें और
अन्धेरी रातें
फिर भी इन सबको हर्ष से स्वीकारा मैने
क्योंकि इन सबमें से बीना मैंने
साहस का ताना
आत्मविश्वास का बाना
और बुन ली एक पुरे आस्तित्व की चादर
गोकि तुम्हारे साथ थी
सजीली रातें
मीठी बातें
अनगिनत सौगातें
क्या बिन पाये तुम इनमें से
कमजोर इरादे
अनहद मुरादें
और VIAGRA ढुंढता
एक जाली सा बेवजूद व्यक्तित्व
मनुष्य की जिन्दगी युं नहीं जीयी जाती बन्धु
काश तुमने मनुष्यता के प्रमुख के अवलम्ब
बुद्धि को अपना सारथी बनाया होता।
यह तो एक पाशविक विलाशिता थी
जब बुद्धि पर तुम्हारा मस्तिष्क हावी था।
और तुम सफल हो कर भी
कभी खुश नहीं हो सके
तमाम
साजो सामान
वृहद अरमान
उंचे सम्मान
फिर भी कुछ ऐसा था
जो तुम्हें मिला ही नहीं
और तुमने निर्धनों की मौत ही पाई।
और अब जो बाकी है तुममें
वह मनुष्य नहीं
सिर्फ एक, एक आयामी समीकरण है
और एक आयामी समीकरण में तो
चौड़ाई और गहराई से नावाकिफ
सिर्फ लम्बाई ही होती है।
Thursday, May 31, 2007
Proletariat
बरगद का पेड़
(my poem written in 1975 when i was abt 21)
बरगद का पेड़ तो बूढा ही पैदा हुआ था
वह सदा झुका रहा है
हथेलियां जमीं पर टिकि रही
सूरज के ताप से झुलसता
ताउम्र चौपाये सा पीठ झुकाये खड़ा रहा
वह नासमझ समझता था कि
सूर्य की किरणें तो जीवनदायिनी हैं।
एक दिन हठात्
उसकी मुलाकात हुई
हकीम शफाखाना से
साथ में थी खोयी हुई जवानी
वापस दिलाने का वादा।
उसके वादे से आश्वस्त
जैसे ही हथेलियां जमीन से उठाईं
वह ह्हरहरा कर ढ़ेर हो गया।
वह भूल गया था कि
उसने तो जवानी कभी खोई ही नहीं थी
वह तो बुढ़ा ही पैदा हुआ था
वह यह भी नहीं जानता था कि
खुद हकीम भी सूरजमुखी ही था
और माँ पृथ्वी
निःस्पन्द थी
क्योंकि बेटा कमाउं नहीं था
(my poem written in 1975 when i was abt 21)
बरगद का पेड़ तो बूढा ही पैदा हुआ था
वह सदा झुका रहा है
हथेलियां जमीं पर टिकि रही
सूरज के ताप से झुलसता
ताउम्र चौपाये सा पीठ झुकाये खड़ा रहा
वह नासमझ समझता था कि
सूर्य की किरणें तो जीवनदायिनी हैं।
एक दिन हठात्
उसकी मुलाकात हुई
हकीम शफाखाना से
साथ में थी खोयी हुई जवानी
वापस दिलाने का वादा।
उसके वादे से आश्वस्त
जैसे ही हथेलियां जमीन से उठाईं
वह ह्हरहरा कर ढ़ेर हो गया।
वह भूल गया था कि
उसने तो जवानी कभी खोई ही नहीं थी
वह तो बुढ़ा ही पैदा हुआ था
वह यह भी नहीं जानता था कि
खुद हकीम भी सूरजमुखी ही था
और माँ पृथ्वी
निःस्पन्द थी
क्योंकि बेटा कमाउं नहीं था
Wednesday, May 30, 2007
मैं और वह
मैं और वह
मैं अज्ञ
वह सर्वज्ञ
फिर भी वह मेरे साथ साथ चला
ठीक रेल की पटरियों की नाईं
साथ साथ लेकिन पृथक
मैने तो जिन्दगी के तमाम रंग सेये
कभी हर्ष से हरा हुआ
कभी अवसाद से पीला
कभी जीत के उन्माद में
पेड़ों से उंचा उठा
कभी हार के उत्ताप उत्ताप से तिनके सा नीचे झुका
उसने देखा मेरी जिन्दगी को
चलचित्र की नाईं
और निर्विकल्प
अपने ज्ञान चक्षुओं से सिर्फ मुझे घूरता रहा
उसे पता था कि यह सारे रंग
ये सारे आकार तो पर्दे के नहीं Celluloid के हैं।
और पर्दे तो ये सिर्फ छायाओं का खेल है
और पर्दे पर भी इनका आस्तित्व
Hall के अन्धेरे के साथ ही जुड़ा है।
जिस दिन Hall उसकी रोशनी से जगमगाया
उसी दिन उसी क्षण
ये सारे रंग ये सारे आकार गायब हो जायेंगे
वह यह सब जानता था
और मैं इन सबसे अनभिज्ञ
कभी हँसा कभी रोया
वह तो यह भी जनता था कि
अगर मैं और वह मिल गये
तो यात्रा तुरन्त समाप्त हो जायेगी
मैं विमूढ़ बस सिर्फ साथ साथ चलता रहा
मैं अज्ञ
वह सर्वज्ञ
फिर भी वह मेरे साथ साथ चला
ठीक रेल की पटरियों की नाईं
साथ साथ लेकिन पृथक
मैने तो जिन्दगी के तमाम रंग सेये
कभी हर्ष से हरा हुआ
कभी अवसाद से पीला
कभी जीत के उन्माद में
पेड़ों से उंचा उठा
कभी हार के उत्ताप उत्ताप से तिनके सा नीचे झुका
उसने देखा मेरी जिन्दगी को
चलचित्र की नाईं
और निर्विकल्प
अपने ज्ञान चक्षुओं से सिर्फ मुझे घूरता रहा
उसे पता था कि यह सारे रंग
ये सारे आकार तो पर्दे के नहीं Celluloid के हैं।
और पर्दे तो ये सिर्फ छायाओं का खेल है
और पर्दे पर भी इनका आस्तित्व
Hall के अन्धेरे के साथ ही जुड़ा है।
जिस दिन Hall उसकी रोशनी से जगमगाया
उसी दिन उसी क्षण
ये सारे रंग ये सारे आकार गायब हो जायेंगे
वह यह सब जानता था
और मैं इन सबसे अनभिज्ञ
कभी हँसा कभी रोया
वह तो यह भी जनता था कि
अगर मैं और वह मिल गये
तो यात्रा तुरन्त समाप्त हो जायेगी
मैं विमूढ़ बस सिर्फ साथ साथ चलता रहा
Tuesday, May 29, 2007
Desire
उत्कण्ठा
क्या तुम भी मुझे
उतना ही चाहते हो
जितना मैं तुम्हें चाहता हूँ।
क्या मुझसे मिलने कि
तुममें भी हो वो उत्कण्ठा
जो मुझ में है।
कभी सोचता हूं कि
क्यों तुम तक चलूं
क्या पाउंगा तुमसे मिलकर
शायद यह तुम्हारी उत्कण्ठा का
आकर्षण है,जो चुम्बक सम
मेरे अणुओं का ध्रुवीकरण कर रहा है
और मैं स्वचालित सा
तुम्हारे आकर्षण से बद्ध
तुम्हारी ओर खींचा जा रहा हूं।
कभी सोचता हूं
कि काश मैं कबीर बनूं
अपनी धूरी से जुड़ा
ताना बिना गिनता
निःस्पन्द अपनी जगह पर खड़ा रहूं
और तुम निर्बल हो मुझ तक खींचे चले आओ।
और मेरे करघे के ताने बाने में उतर जाओ।
हां तुम, मुझसे मिलकर
निश्चित ही जीवन्त हो जाओगे।
मुझसे मिलकर जरूर कुछ पाओगे
निर्गुण से सगुण हो
एक से अनेक हो
निराकार से हो साकार
हाँ, तुम सशक्त हो जओगे
मुझसे मिलकर
हां मुझ से मिलकर ही
तुम कर सकोगे कंस का वध
और लंकाधिपति के अहंकार का विनाश्।
क्या तुम भी मुझे
उतना ही चाहते हो
जितना मैं तुम्हें चाहता हूँ।
क्या मुझसे मिलने कि
तुममें भी हो वो उत्कण्ठा
जो मुझ में है।
कभी सोचता हूं कि
क्यों तुम तक चलूं
क्या पाउंगा तुमसे मिलकर
शायद यह तुम्हारी उत्कण्ठा का
आकर्षण है,जो चुम्बक सम
मेरे अणुओं का ध्रुवीकरण कर रहा है
और मैं स्वचालित सा
तुम्हारे आकर्षण से बद्ध
तुम्हारी ओर खींचा जा रहा हूं।
कभी सोचता हूं
कि काश मैं कबीर बनूं
अपनी धूरी से जुड़ा
ताना बिना गिनता
निःस्पन्द अपनी जगह पर खड़ा रहूं
और तुम निर्बल हो मुझ तक खींचे चले आओ।
और मेरे करघे के ताने बाने में उतर जाओ।
हां तुम, मुझसे मिलकर
निश्चित ही जीवन्त हो जाओगे।
मुझसे मिलकर जरूर कुछ पाओगे
निर्गुण से सगुण हो
एक से अनेक हो
निराकार से हो साकार
हाँ, तुम सशक्त हो जओगे
मुझसे मिलकर
हां मुझ से मिलकर ही
तुम कर सकोगे कंस का वध
और लंकाधिपति के अहंकार का विनाश्।
Nature - Gods Poetry
तुम्हारी कविता
आज मैं तुम्हारी कविता पढ़ रहा था
हां वही पद
जो तुमने पेड़ों पर खिलाये
तालों में भरे
और कहीं सागर की लहरों पर थिरकते पद
फिर शायद इन्हें पढ़ते पढ़ते
मैं इन पदों में तुम्हें तलाशने लगा।
नदी पर सूर्य के प्रतिबिम्ब में पाया
तुम्हारे होने का एहसास
पक्षियों की कलरव में भी
तुम्हारी आवाज
पुष्पित पौधों की सुगन्ध में था
तुम्हारा सौरभ
लहलहाते खेतों में था तुम्हारा स्वेद
आषाढ़ के मेघों के इन्द्रधनुष में थे
तुम्हारे रंग
तुम्हारी छाया तो सर्वप्त व्याप्त थी
तुम कहीं नजर नहीं आये
तुम्हारे नहीं मिलने से उदास
जब आईने में अपना चेहरा देखा
तो,तुम नजर आये
अब तुम्हारी कविता जहन में उतरी
और पाया कि
तुम्हारे होने या न होने की वस्तविकता
तो मेरे होने या न होने
के साथ ही जुड़ी है
मैं और तुम एक दूसरे के पूरक
परस्पर एक दूसरे को धरातल प्रदान करते हैं
मैं जैसे ही अपनी ओर मुड़ता हूं
तुम्हारा अक्स मेरे अन्दर
उतर आता है
और फिर आईने में
मैं नहीं तुम नजर आते हो।
आज मैं तुम्हारी कविता पढ़ रहा था
हां वही पद
जो तुमने पेड़ों पर खिलाये
तालों में भरे
और कहीं सागर की लहरों पर थिरकते पद
फिर शायद इन्हें पढ़ते पढ़ते
मैं इन पदों में तुम्हें तलाशने लगा।
नदी पर सूर्य के प्रतिबिम्ब में पाया
तुम्हारे होने का एहसास
पक्षियों की कलरव में भी
तुम्हारी आवाज
पुष्पित पौधों की सुगन्ध में था
तुम्हारा सौरभ
लहलहाते खेतों में था तुम्हारा स्वेद
आषाढ़ के मेघों के इन्द्रधनुष में थे
तुम्हारे रंग
तुम्हारी छाया तो सर्वप्त व्याप्त थी
तुम कहीं नजर नहीं आये
तुम्हारे नहीं मिलने से उदास
जब आईने में अपना चेहरा देखा
तो,तुम नजर आये
अब तुम्हारी कविता जहन में उतरी
और पाया कि
तुम्हारे होने या न होने की वस्तविकता
तो मेरे होने या न होने
के साथ ही जुड़ी है
मैं और तुम एक दूसरे के पूरक
परस्पर एक दूसरे को धरातल प्रदान करते हैं
मैं जैसे ही अपनी ओर मुड़ता हूं
तुम्हारा अक्स मेरे अन्दर
उतर आता है
और फिर आईने में
मैं नहीं तुम नजर आते हो।
Sunday, May 27, 2007
An Ode
श्रद्धाँजलि (व्यक्तिगत)
(An ode to my late Father)
तुमने कुछ समय पहले
देह त्याग किया था।
लोगों ने इसे मृत्यु की संज्ञा दी
मृत्यु तो शेष का पर्याय है
देह त्याग को तो मरना नहीं कहते।
तुम तो देह त्याग कर
एक से अनेक हो गये
पहले जबकि तुम्हारी भौतिक छाया
सिर्फ मुझे प्राप्त थी
अब आध्यात्मिक हो विश्वव्यापी हो गई है।
अब जीवित से ज्यादा जीवन्त हो
मेरे मानस में जिन्दा है।
मृत्यु तो तुम्हें उस दिन ग्रसेगी
जिस दिन मेरे अन्दर का आदमी मरेगा।
और मै तुम्हें विस्मृत कर दूंगा
लोग कहते हैं
मृत्यु व्यक्ति के
यश-अपयश,सुख-दुख, छोटे-बड़े के
भेद समाप्त कर देती है।
लेकिन तुमने तो इन भेदों को
कभी जिया ही नहीं
हाँ, शायद इसीलिये
भौतिक मृत्यु
तुम्हारी जिन्दगी के तारों की
स्पन्दना को कभी रोक नहीं पाई।
और इसीलिये उनकी धुन
आज भी
पहले से अधिक मुखर
मेरे कानों में
नक्कारों सी गुँजती है।
(An ode to my late Father)
तुमने कुछ समय पहले
देह त्याग किया था।
लोगों ने इसे मृत्यु की संज्ञा दी
मृत्यु तो शेष का पर्याय है
देह त्याग को तो मरना नहीं कहते।
तुम तो देह त्याग कर
एक से अनेक हो गये
पहले जबकि तुम्हारी भौतिक छाया
सिर्फ मुझे प्राप्त थी
अब आध्यात्मिक हो विश्वव्यापी हो गई है।
अब जीवित से ज्यादा जीवन्त हो
मेरे मानस में जिन्दा है।
मृत्यु तो तुम्हें उस दिन ग्रसेगी
जिस दिन मेरे अन्दर का आदमी मरेगा।
और मै तुम्हें विस्मृत कर दूंगा
लोग कहते हैं
मृत्यु व्यक्ति के
यश-अपयश,सुख-दुख, छोटे-बड़े के
भेद समाप्त कर देती है।
लेकिन तुमने तो इन भेदों को
कभी जिया ही नहीं
हाँ, शायद इसीलिये
भौतिक मृत्यु
तुम्हारी जिन्दगी के तारों की
स्पन्दना को कभी रोक नहीं पाई।
और इसीलिये उनकी धुन
आज भी
पहले से अधिक मुखर
मेरे कानों में
नक्कारों सी गुँजती है।
Saturday, May 26, 2007
Happiness
Happiness
( Few Years back in an international survey it was observed that Americans were the happiest persons and India came second. This poem is a cynical response to the said survey. The me is Janata, Mother is Governemnt,)
हाँ मैं खुश हूँ
कबीर के शब्दों के प्रतिकुल
(कबीर कहता है: सुखिया सब संसार , खाये और सोये
दुखिया दास कबीर जागे और रोये)
बिन खाये सोया हूँ
फिर भी खुश हूँ।
मुझे मेरी माँ ने अफीम चटा दी है।
( In rural India it was a general practice of mothers to give a lick of opium to their young infants,to enable them to complete their domestic chores peacefully)
मां की व्यस्त दिनचर्या में एक व्यधान था।
इसीलिये मेरी मां ने मुझे
अशिक्षा की, भाग्यशीलता की
धर्मान्धता की और जांत- पांत की
अफीम चटा दी है
अब मैं बड़ी खुशी के साथ
बिन खाये भी सो पाता हूं।
मां भी क्या करती
वह तो व्यस्त थी
गाय दूहने में
फसल काटने में
पूजा घर में
और पड़ोसी मुल्कों के साथ उच्चस्तरीय वार्तालाप में
मैं और मेरी भूख जो
इन सबके बीच एक व्यधान थी
को अफीम चटा दी है।
और अब मैं कबीर के इतर
बिन खाये भी खुश खुश सो पाता हूं।
हं इसी बीच सर्वेक्षण वाले आये थे।
जो मेरी खुशी को एक कीर्तिमान दे गये।
( Few Years back in an international survey it was observed that Americans were the happiest persons and India came second. This poem is a cynical response to the said survey. The me is Janata, Mother is Governemnt,)
हाँ मैं खुश हूँ
कबीर के शब्दों के प्रतिकुल
(कबीर कहता है: सुखिया सब संसार , खाये और सोये
दुखिया दास कबीर जागे और रोये)
बिन खाये सोया हूँ
फिर भी खुश हूँ।
मुझे मेरी माँ ने अफीम चटा दी है।
( In rural India it was a general practice of mothers to give a lick of opium to their young infants,to enable them to complete their domestic chores peacefully)
मां की व्यस्त दिनचर्या में एक व्यधान था।
इसीलिये मेरी मां ने मुझे
अशिक्षा की, भाग्यशीलता की
धर्मान्धता की और जांत- पांत की
अफीम चटा दी है
अब मैं बड़ी खुशी के साथ
बिन खाये भी सो पाता हूं।
मां भी क्या करती
वह तो व्यस्त थी
गाय दूहने में
फसल काटने में
पूजा घर में
और पड़ोसी मुल्कों के साथ उच्चस्तरीय वार्तालाप में
मैं और मेरी भूख जो
इन सबके बीच एक व्यधान थी
को अफीम चटा दी है।
और अब मैं कबीर के इतर
बिन खाये भी खुश खुश सो पाता हूं।
हं इसी बीच सर्वेक्षण वाले आये थे।
जो मेरी खुशी को एक कीर्तिमान दे गये।
Sunday, May 20, 2007
Gujarat
गुजरात
कुछ खास लोगों के लिये पता नहीं क्यों गुजरात एक हौवा बन गया है । अंग्रेजी संचार माध्यम तमाम अंग्रेजी पत्र पत्रिकायें, अंग्रेजी टीवी चैनेल ऐसा प्रतीत होता है कि किसी गहरे दुराग्रह से ग्रस्त हैं । गुजरात की हर घटना को खुर्दबीन से जांचने की प्रक्रिया । कुछ सच्चे कुछ झूठे आरोपों को सनसनीखेज बनाना । sms से तथाकथित जनमत संग्रह द्वारा एक विचित्र सा खाका खींचना मानो साप्ताहिक स्थायी स्तम्भ हो गये हों। जनमत संग्रह कभी कभी बड़े विचित्र उत्तर प्रस्तुत करता है। उदाहरण के तौर पर सन् 2001 में एक सर्वेक्षण किया गया था कि “ आपके अनुसार बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना का नाम बताईये”। जिस घटना को बीसवीं सदी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटना के लिये सबसे अधिक मत प्राप्त हुए वह थी “डायना की मौत”। द्वितीय विश्वयुद्ध को दूसरे पायदान पर रखा गया। इससे जनसमूह के सामुहिक मानसिक दीवालियेपन के साफ संकेत मिलते हैं। सुनियोजित जनमत से मन चाहे परिणाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
गुजरात इन दिनों दो कारणों से समचार में है।
1) Fake Counter case
2) महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शित चित्र
1) Fake Encounters सरकार के पास एक अनुचित लेकिन आवश्यक हथियार विगत कई दशकों से रहा है। परीस्थितियां जैसे जैसे खराब होती रहीं हैं वैसे वैसे इस हथियार का प्रयोग बढा है। सबसे पहले व्यापक रुप से बंगाल में सन् 1972 से 77 के दौरान कौंग्रेस के राज्यकाल में इस हथियार का प्रयोग हुआ था। नक्सलवाद से निबटने के लिये श्री सिद्धार्थ शंकर राय ने इसका उपयोग किया। कालान्तर में अपराधियों से निबटने के लिये यह एक कारगर समाधान के रुप में उभरा। उदाहरण स्वरुप भागलपुर आंख फोड़वा कांड आदि।
छिटपुट state sponsored हत्याएं Fake Counters समाज में स्वीकृति पा चुके हैं। इन विषयों को फिल्म व टेली सीरीयलों में उचित व आवश्यक ठहराया गया है। आज हिन्दुस्तान जिस लचर कानूनी व्यवस्था का शिकार है उसके अन्तर्गत एक थोड़े से भी प्रभावशाली अपराधी को सजा दिलाना अत्यन्त दुरूह कार्य हो गया है। आज पकड़े जाते हैं और कल छूट जाते हैं।
इजराईल की नाईं ZERO TOLERANCE ही इस स्थिति से निबटने के लिये एक कारगर उपाय है। वर्ना कंधार और उसके पश्चात का अज़हर मंसूर का काश्मीर में फैलाया हुआ आतकंवाद हमेशा एक पीड़ा दायक नासूर की भांति हमारी नपुंसकता का द्योतक रहेंगा।
वंजारा ने क्या किया या क्या नहीं यह investigation का विषय है। किन्तु महज Fake Encounters को ले इतना बवाल मचाना कहीं न कहीं किसी खास मंशा को दर्शाता है।
भारत में हर वर्ष सैंकड़ों की संख्या में FAKE ENCOUNTERS होते हैं। ग़ुजरात में इनकी संख्या नगण्य है। उत्तर प्रदेश,बिहार जैसे राज्यों मे आये दिन ऐसी घटनायें घटती रहती हैं। किसी समाचार पत्र वालों की नींद नहीं हराम नहीं होती।
3) महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शित चित्र : इस प्रदर्शिनी में परीक्षार्थ हिन्दु व क्रिश्चियनिटि की संवेदनाओं के खिलाफ कूछ चित्र प्रदर्शित किये गये।
ईनमें देवी दुर्गा नग्न रुप से को एक पुर्ण विकसित मानव को प्रसव करते हुए दर्शाया गया है। कुछ ऐसी ही आपत्तिजनक तस्वीर यीशु की भी थी। हमारे संविधान में इन विषयों पर बिल्कुल साफ प्रावधान है। धार्मिक भावनओं को ठेस पहुंचाती हुई कृतियां प्रतिबन्धित हैं व प्रशासन उन के खिलाफ कारवाई करने के लिये बाद्ध है।
जब डेनिश कार्टूनों के खिलाफ भारत वर्ष में रैलियां निकाली जा रहीं थीं तब यहां के बुद्धिजीवी उन कार्टुनों के खिलाफ उंचे सूर में आवाज उठा रहे थे,एवं भावनाओं के स्तर पर चोट पहुंचाने के बहाने से डेनिश प्रधान मन्त्री कि आधिकारिक यात्रा रद्द करवा दी।
बंगाल में तस्लीमा नसरीन की पुस्तक को प्रतिबंधित किया जाता है। satanic verses को बिना पढ़े प्रतिबंधित किया जाना एक विचित्र मानसिकता को दर्शाता है।तब कलात्मक स्वतंत्रता की दुहाई नहीं दी जाती।
मेरा यह भी मानना है कि BJP के नेता जैन महोदय ने भी बिला वजह एक अदनी सी पेंटिग को महत्वपूर्ण बना दिया। लेकिन जब प्रशासन सूर्य नमश्कार को स्वास्थ्य से ना जोड़ धर्म के साथ जोड़ कर देखता है, जब वन्देमातरम गाने के लिये सर्वजनिक रुप से फतवे दिये जाते हैं, जब 15 अगस्त को हिन्दुस्तान की सरजमीं पर तिरंगा झण्डा फरहाने के अपराध में नेताओं की गिरफ्तारी की जाती है,
तब अनायास ही majority समुदाय भी एक घायल मनःस्थिति का शिकार हो जाता है।
हुसेन साहब सिर्फ हजरत मोहम्मद की एक तस्वीर बना कर दिखा दें। उनकी जान सांसत में आ जायेगी। हांलाकि इस मानसिकता को उद्धृत करना कहीं से भी औचित्य के दायरे मे नहीं आता है। किन्तु सरकारी दोहरेपन से भी परीस्थितियां विषम हो जाती हैं।
अगर यही चित्र प्रदर्शिनी की घटना भी देश के अन्य किसी राज्य में घटी होती तो शायद इतना बड़ा समाचार नहीं बनती।
इन लोगों को गुजरात की औद्यौगिक क्रान्ति नजर नहीं आती। आर्थिक प्रगति नहीं दिखती। दिखती हैं सिर्फ कुछ fringe घटनायें।
कुछ खास लोगों के लिये पता नहीं क्यों गुजरात एक हौवा बन गया है । अंग्रेजी संचार माध्यम तमाम अंग्रेजी पत्र पत्रिकायें, अंग्रेजी टीवी चैनेल ऐसा प्रतीत होता है कि किसी गहरे दुराग्रह से ग्रस्त हैं । गुजरात की हर घटना को खुर्दबीन से जांचने की प्रक्रिया । कुछ सच्चे कुछ झूठे आरोपों को सनसनीखेज बनाना । sms से तथाकथित जनमत संग्रह द्वारा एक विचित्र सा खाका खींचना मानो साप्ताहिक स्थायी स्तम्भ हो गये हों। जनमत संग्रह कभी कभी बड़े विचित्र उत्तर प्रस्तुत करता है। उदाहरण के तौर पर सन् 2001 में एक सर्वेक्षण किया गया था कि “ आपके अनुसार बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना का नाम बताईये”। जिस घटना को बीसवीं सदी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटना के लिये सबसे अधिक मत प्राप्त हुए वह थी “डायना की मौत”। द्वितीय विश्वयुद्ध को दूसरे पायदान पर रखा गया। इससे जनसमूह के सामुहिक मानसिक दीवालियेपन के साफ संकेत मिलते हैं। सुनियोजित जनमत से मन चाहे परिणाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
गुजरात इन दिनों दो कारणों से समचार में है।
1) Fake Counter case
2) महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शित चित्र
1) Fake Encounters सरकार के पास एक अनुचित लेकिन आवश्यक हथियार विगत कई दशकों से रहा है। परीस्थितियां जैसे जैसे खराब होती रहीं हैं वैसे वैसे इस हथियार का प्रयोग बढा है। सबसे पहले व्यापक रुप से बंगाल में सन् 1972 से 77 के दौरान कौंग्रेस के राज्यकाल में इस हथियार का प्रयोग हुआ था। नक्सलवाद से निबटने के लिये श्री सिद्धार्थ शंकर राय ने इसका उपयोग किया। कालान्तर में अपराधियों से निबटने के लिये यह एक कारगर समाधान के रुप में उभरा। उदाहरण स्वरुप भागलपुर आंख फोड़वा कांड आदि।
छिटपुट state sponsored हत्याएं Fake Counters समाज में स्वीकृति पा चुके हैं। इन विषयों को फिल्म व टेली सीरीयलों में उचित व आवश्यक ठहराया गया है। आज हिन्दुस्तान जिस लचर कानूनी व्यवस्था का शिकार है उसके अन्तर्गत एक थोड़े से भी प्रभावशाली अपराधी को सजा दिलाना अत्यन्त दुरूह कार्य हो गया है। आज पकड़े जाते हैं और कल छूट जाते हैं।
इजराईल की नाईं ZERO TOLERANCE ही इस स्थिति से निबटने के लिये एक कारगर उपाय है। वर्ना कंधार और उसके पश्चात का अज़हर मंसूर का काश्मीर में फैलाया हुआ आतकंवाद हमेशा एक पीड़ा दायक नासूर की भांति हमारी नपुंसकता का द्योतक रहेंगा।
वंजारा ने क्या किया या क्या नहीं यह investigation का विषय है। किन्तु महज Fake Encounters को ले इतना बवाल मचाना कहीं न कहीं किसी खास मंशा को दर्शाता है।
भारत में हर वर्ष सैंकड़ों की संख्या में FAKE ENCOUNTERS होते हैं। ग़ुजरात में इनकी संख्या नगण्य है। उत्तर प्रदेश,बिहार जैसे राज्यों मे आये दिन ऐसी घटनायें घटती रहती हैं। किसी समाचार पत्र वालों की नींद नहीं हराम नहीं होती।
3) महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शित चित्र : इस प्रदर्शिनी में परीक्षार्थ हिन्दु व क्रिश्चियनिटि की संवेदनाओं के खिलाफ कूछ चित्र प्रदर्शित किये गये।
ईनमें देवी दुर्गा नग्न रुप से को एक पुर्ण विकसित मानव को प्रसव करते हुए दर्शाया गया है। कुछ ऐसी ही आपत्तिजनक तस्वीर यीशु की भी थी। हमारे संविधान में इन विषयों पर बिल्कुल साफ प्रावधान है। धार्मिक भावनओं को ठेस पहुंचाती हुई कृतियां प्रतिबन्धित हैं व प्रशासन उन के खिलाफ कारवाई करने के लिये बाद्ध है।
जब डेनिश कार्टूनों के खिलाफ भारत वर्ष में रैलियां निकाली जा रहीं थीं तब यहां के बुद्धिजीवी उन कार्टुनों के खिलाफ उंचे सूर में आवाज उठा रहे थे,एवं भावनाओं के स्तर पर चोट पहुंचाने के बहाने से डेनिश प्रधान मन्त्री कि आधिकारिक यात्रा रद्द करवा दी।
बंगाल में तस्लीमा नसरीन की पुस्तक को प्रतिबंधित किया जाता है। satanic verses को बिना पढ़े प्रतिबंधित किया जाना एक विचित्र मानसिकता को दर्शाता है।तब कलात्मक स्वतंत्रता की दुहाई नहीं दी जाती।
मेरा यह भी मानना है कि BJP के नेता जैन महोदय ने भी बिला वजह एक अदनी सी पेंटिग को महत्वपूर्ण बना दिया। लेकिन जब प्रशासन सूर्य नमश्कार को स्वास्थ्य से ना जोड़ धर्म के साथ जोड़ कर देखता है, जब वन्देमातरम गाने के लिये सर्वजनिक रुप से फतवे दिये जाते हैं, जब 15 अगस्त को हिन्दुस्तान की सरजमीं पर तिरंगा झण्डा फरहाने के अपराध में नेताओं की गिरफ्तारी की जाती है,
तब अनायास ही majority समुदाय भी एक घायल मनःस्थिति का शिकार हो जाता है।
हुसेन साहब सिर्फ हजरत मोहम्मद की एक तस्वीर बना कर दिखा दें। उनकी जान सांसत में आ जायेगी। हांलाकि इस मानसिकता को उद्धृत करना कहीं से भी औचित्य के दायरे मे नहीं आता है। किन्तु सरकारी दोहरेपन से भी परीस्थितियां विषम हो जाती हैं।
अगर यही चित्र प्रदर्शिनी की घटना भी देश के अन्य किसी राज्य में घटी होती तो शायद इतना बड़ा समाचार नहीं बनती।
इन लोगों को गुजरात की औद्यौगिक क्रान्ति नजर नहीं आती। आर्थिक प्रगति नहीं दिखती। दिखती हैं सिर्फ कुछ fringe घटनायें।
Sunday, May 13, 2007
Race Horses
रेस के घोड़े
I wrote this (my first) poem during the emergency period (26th june 1975 to next nineteen months). I was barely twenty one and angry with the muzzling of the press and suspension of habeas corpus. The villain of course in my poem of course was the the PM. An outpouring of a young mind..
तुम हवाओं में
रंग भरने का गुमाँ लिये
आये थे
फिर लोगों के चश्मे रंगने लगे
या फिर एक दिशा मात्र में
रंग भर कर
लोगों को BLINKERS पहना दिये
और सारे वायुमंडल के रंगीन होने का
ऐलान कर दिया
हाँ रेस के घोड़े
(जो BLINKERS नहीं पहनते)
दौड़ते हैं शनिवार की शाम को
या अन्य किसी छुट्टी के दिन
काफी होउस के इर्दगिर्द
यहां भी रेसकोर्स सम
दौड़ जहां से शुरु होती है
खत्म भी वहीं होती है।
हां धूल कफी उड़ चुकी होती है
I wrote this (my first) poem during the emergency period (26th june 1975 to next nineteen months). I was barely twenty one and angry with the muzzling of the press and suspension of habeas corpus. The villain of course in my poem of course was the the PM. An outpouring of a young mind..
तुम हवाओं में
रंग भरने का गुमाँ लिये
आये थे
फिर लोगों के चश्मे रंगने लगे
या फिर एक दिशा मात्र में
रंग भर कर
लोगों को BLINKERS पहना दिये
और सारे वायुमंडल के रंगीन होने का
ऐलान कर दिया
हाँ रेस के घोड़े
(जो BLINKERS नहीं पहनते)
दौड़ते हैं शनिवार की शाम को
या अन्य किसी छुट्टी के दिन
काफी होउस के इर्दगिर्द
यहां भी रेसकोर्स सम
दौड़ जहां से शुरु होती है
खत्म भी वहीं होती है।
हां धूल कफी उड़ चुकी होती है
Gandi and Bhishma Pitamah
गाँधीजी एवम् भीष्म पितामह
गाँधीजी भारतीय राजनीति के पितामह स्वरुप या राष्ट्रवादी राजनीतिक किले के बिम्ब थे। गाँधी जी सभी वर्गों के लिये ठीक उसी तरह आदर्श थे, जिस तरह भीष्म पितामह पाण्ड़वों एवं कौरवों दोनों के आराध्य थे। इक्कीस वर्ष दक्षिण अफ़्रीका में रहने के बाद, गाँधीजी की भारत की राजनीतिक यात्रा का आरम्भ काग्रेंस पार्टी के झण्ड़े तले जरुर हुआ था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने अपने आप को औपचारिक रुप से congress party से अलग कर लिया था एवं पूरे देश के नेता बन गये थे।
गाँधीजी काग्रेंस पार्टी में रहते हुए भी काग्रेंसी नेताओं की सत्ता लोलुपता से उतने ही दु:खी थे, जितने भीष्म पितामह कौरव दल में रहते हुए भी दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं से दु:खी थे। इसके बावजूद दोनों ने सत्ता लोलुपों का साथ दिया। जिस तरह भीष्म पितामह नें राष्ट्र विभाजन को स्वीकृति दे दुर्योधन की महत्वाकांक्षा के सामने घुटने टेके ,उसी तरह जब भारत के विभाजन के सन्दर्भ में कांगेस की बैठक हो रही थी, गाँधीजी उस सभा में मौन धारण किये हुए थे। दोनो अपनी इच्छाओं के विरुद्ध देश के विभाजन के मूक दर्शक बन कर रह गये। दोनो ही क्रमश: नेहरू व जिन्ना की महत्वाकांक्षाओं से हारे। “वीर भोग्ये वसुंधरा” या पौरुष के विचार से अर्जुन या कर्ण को ही सत्ता मिलनी चाहिये थी। गांधीजी ने भी अगर जाहिर तौर पर नेहरू के बजाय सरदार पटेल को देश के नेतृत्व के लिये चुना होता तो निःस्सन्देह देश का इतिहास काफ़ी भिन्न होता।
गांधी जी का विवादित ब्रह्मचर्य और भीष्म की ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा दोनो ही निरर्थक थे। गांधी जी के पिता के देहान्त के समय का अवसाद उनके पूरे जीवन पर भारी था,और एक दिन इसी अवसाद ने उन्हें ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिये मजबूर कर दिया। ब्रह्मचर्य को इतना महत्व देना दोनो के लिये एक कमजोरी क प्रतीक था न कि पौरुष क।
भीष्म पितामह ने जहां भूलस्वरुप युधिष्ठिर की द्यूतक्रीड़ा ,शकुनि का कपट, लाक्षागृह के षडयंत्र को नजरन्दाज किया वहीं गांधी जी का पाकिस्तान के तमाम नापाक कारनामों यथा काश्मीर में युद्ध के बावजूद पाकिस्तान को 56 करोड़ दिलवाने हेतू अनशन पर बैठ जाना उससे भी बड़ी भूल थी।
दोनों की हत्याओं के पीछे दो मुखौटों का हाथ था। जहां भीष्म को स्वेच्छा मृत्यु का वरदान था,मृत्यु उनके पाँव के पास उनकी आज्ञा की प्रतीक्षारत खड़ी रही। वहीं गांधी का व्यक्तित्व इतना वृहत् था कि किसी भी बन्दूक की गोली से उनकी हत्या असम्भव थी।
भीष्म पितामह की मृत्यु शरशैया पर होती है। ये वाण कितने भी नुकीले रहें हों वे उनके उपर आराम से लेटे हुए थे। मृत्यु उनके पाँव के पास उनकी आज्ञा की प्रतिक्षा में खड़ी थी। विभाजन के स्वभाविक चरोमोत्कर्ष महाभारत की समाप्ति पर ही मृत्यु को आज्ञा मिलती है। उनके शरीर को लहुलुहान करने वाले वाण अर्जुन के नहीं वरन् उनकी अपनी नपुंसकता के थे। धृतराष्ट्र के पुत्र मोह का विरोध नहीं करना,अपने वृद्ध पिता की व्याभिचारिता के लिये पौरुष का त्याग कर, अपनी चेतना का परित्याग, एक व्यक्ति की गलत इच्छाओं के सम्मान हेतू अपना एवं अपने राज्य के भविष्य को गलत दिशा देना,अम्बा का अपहरण एवं परित्याग, द्रौपदी के चीर हरण का प्रतिरोध नहीं करना आदि चिन्ह पौरुष के नहीं कहे जा सकते थे।
विभाजन के फलस्वरुप हुए दंगों में पश्चिमी भारत में नर संहार पुर्वी भारत की तुलना में कम से कम दस गुना हुआ। नोआखली में महज एक पखवाड़े में शान्ति बहाल हो चुकी थी। इस समय गांधी जी का दीर्घकालीन कलकत्ता प्रवास कुछ वैसा ही था जैसा भीष्म पितामह का द्रौपदी का चीरहरण के समय सभा में मूक उपस्थित रहना। यहां एक द्रौपदी का चीर हरण हुआ था वहां पश्चिमी भारत में लाखों द्रौपदीयों का चीर हरण हो रहा था। लेकिन गांधी जी उनकी तरफ पीठ कर नोआखली में बैठे रहे।
नाथुराम गोडसे या कोई भी अन्य व्यक्ति पिस्तौल से गांधी जी हत्या नहीं कर सकता था।
गांधी जी कि हत्या भले ही गोडसे ने 1948 में की हो,गांधीवाद की हत्या की प्रक्रिया विभाजन की स्वीकृति के साथ ही हो गई थी। जिस तरह तुलसी दास कहते हैं कि “राम का नाम,राम से कहीं बड़ा था” उसी तरह गांधी एक व्यक्ति से उपर एक विचारधारा का नाम था। उनकी हत्या उनके अपने नामधारीयों ने की। जिस तरह भीष्म पितामह की हत्या उनके अपने पोते अर्जुन के हाथों हुई, उसी तरह गांधी जी की हत्या भी उनके ही राजनीतिज्ञ वंशजों ने ही की है। राजघाट पर बनी हुई समाधि तो सिर्फ एक प्रतीक मत्र है। उनकी हत्या भारत के हर गांव हर शहर में हुई है।
जहां गांधीजी की समुचित विचारधारा का केन्द्र भारतीय ग्रमीण समाज था वहीं उनके राजनीतिक पुत्र नेहरुजी पक्के देशप्रेमी होते हुए भी एक अभिजात्य (elitist) सोच से ग्रसित थे। जहां गांधी जी की प्राथमिकता गांव के शौचालयों की थी वहीं नेहरु जी की प्रधान मन्त्री के रुप में पहली मानसिक संरचना विदेशी मेहमानों हेतू अशोक होटल की थी। अशोक होटल का निर्माण भारत के drawing room के स्वरुप किया गया। ये अर्जुन के तरकश का पहला तीर था, जिसने भीष्म स्वरुप गांधी को बिंधा। हाल में दिये गये एक भाषण में यह कहा गया है कि, “नेहरु जी भारत पर राज्य करने वाले अंतिम अंग्रेज थे।“ यह संवाद अपनी पूरी भंगिमाओं के साथ अग्राह्य होते हुए भी कई अर्थों में एक ऐतिहासिक सत्य है।
भारत के विभाजन के लिये अगर जिन्ना मुख्य दोषी है तो नेहरु जी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के वजूद को नकारा नहीं जा सकता । पराकाष्ठा स्वरुप आज तो परिस्थिति यह है कि
बापु तेरे चरखे पर , खद्दरधारी आज कात रहें हैं
सोने के धागे
सन् 1937 के चुनाव के पश्चात महात्मा गांधी ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि , “आज सत्ता में बैठे हुए लोगों के भ्रष्ट आचरण को देख कर मैं भारत के भविष्य के प्रति सशंकित हूँ।” उसी समय आवश्यकता थी एक समानान्तर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आन्दोलन की। गलत महत्वाकांक्षाओं की हत्या ही समुचित समाधान है।
भीष्म पितामह भी महाभारत के प्रारम्भ में अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहते हैं कि “ मुझे विभाजन स्वीकार नहीं करना चाहिये था। यह युद्ध उसी समय छेड़ देना चाहिये था।
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का समाधान विभाजन नहीं युद्ध है। अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं जीवित रहीं तो विभाजन के पश्चात भी महाभारत ही होगा।”
भातर पाक के चार युद्ध पांच हजार वर्ष के पश्चात भी उस कथन को प्रमाणित ही करते हैं।
फिर भी निःशंक दोनो ही महापुरुष, युगावतार थे। (My musings here are inspired by Shashi’s The Great Indian Novel”
गाँधीजी भारतीय राजनीति के पितामह स्वरुप या राष्ट्रवादी राजनीतिक किले के बिम्ब थे। गाँधी जी सभी वर्गों के लिये ठीक उसी तरह आदर्श थे, जिस तरह भीष्म पितामह पाण्ड़वों एवं कौरवों दोनों के आराध्य थे। इक्कीस वर्ष दक्षिण अफ़्रीका में रहने के बाद, गाँधीजी की भारत की राजनीतिक यात्रा का आरम्भ काग्रेंस पार्टी के झण्ड़े तले जरुर हुआ था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने अपने आप को औपचारिक रुप से congress party से अलग कर लिया था एवं पूरे देश के नेता बन गये थे।
गाँधीजी काग्रेंस पार्टी में रहते हुए भी काग्रेंसी नेताओं की सत्ता लोलुपता से उतने ही दु:खी थे, जितने भीष्म पितामह कौरव दल में रहते हुए भी दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं से दु:खी थे। इसके बावजूद दोनों ने सत्ता लोलुपों का साथ दिया। जिस तरह भीष्म पितामह नें राष्ट्र विभाजन को स्वीकृति दे दुर्योधन की महत्वाकांक्षा के सामने घुटने टेके ,उसी तरह जब भारत के विभाजन के सन्दर्भ में कांगेस की बैठक हो रही थी, गाँधीजी उस सभा में मौन धारण किये हुए थे। दोनो अपनी इच्छाओं के विरुद्ध देश के विभाजन के मूक दर्शक बन कर रह गये। दोनो ही क्रमश: नेहरू व जिन्ना की महत्वाकांक्षाओं से हारे। “वीर भोग्ये वसुंधरा” या पौरुष के विचार से अर्जुन या कर्ण को ही सत्ता मिलनी चाहिये थी। गांधीजी ने भी अगर जाहिर तौर पर नेहरू के बजाय सरदार पटेल को देश के नेतृत्व के लिये चुना होता तो निःस्सन्देह देश का इतिहास काफ़ी भिन्न होता।
गांधी जी का विवादित ब्रह्मचर्य और भीष्म की ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा दोनो ही निरर्थक थे। गांधी जी के पिता के देहान्त के समय का अवसाद उनके पूरे जीवन पर भारी था,और एक दिन इसी अवसाद ने उन्हें ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिये मजबूर कर दिया। ब्रह्मचर्य को इतना महत्व देना दोनो के लिये एक कमजोरी क प्रतीक था न कि पौरुष क।
भीष्म पितामह ने जहां भूलस्वरुप युधिष्ठिर की द्यूतक्रीड़ा ,शकुनि का कपट, लाक्षागृह के षडयंत्र को नजरन्दाज किया वहीं गांधी जी का पाकिस्तान के तमाम नापाक कारनामों यथा काश्मीर में युद्ध के बावजूद पाकिस्तान को 56 करोड़ दिलवाने हेतू अनशन पर बैठ जाना उससे भी बड़ी भूल थी।
दोनों की हत्याओं के पीछे दो मुखौटों का हाथ था। जहां भीष्म को स्वेच्छा मृत्यु का वरदान था,मृत्यु उनके पाँव के पास उनकी आज्ञा की प्रतीक्षारत खड़ी रही। वहीं गांधी का व्यक्तित्व इतना वृहत् था कि किसी भी बन्दूक की गोली से उनकी हत्या असम्भव थी।
भीष्म पितामह की मृत्यु शरशैया पर होती है। ये वाण कितने भी नुकीले रहें हों वे उनके उपर आराम से लेटे हुए थे। मृत्यु उनके पाँव के पास उनकी आज्ञा की प्रतिक्षा में खड़ी थी। विभाजन के स्वभाविक चरोमोत्कर्ष महाभारत की समाप्ति पर ही मृत्यु को आज्ञा मिलती है। उनके शरीर को लहुलुहान करने वाले वाण अर्जुन के नहीं वरन् उनकी अपनी नपुंसकता के थे। धृतराष्ट्र के पुत्र मोह का विरोध नहीं करना,अपने वृद्ध पिता की व्याभिचारिता के लिये पौरुष का त्याग कर, अपनी चेतना का परित्याग, एक व्यक्ति की गलत इच्छाओं के सम्मान हेतू अपना एवं अपने राज्य के भविष्य को गलत दिशा देना,अम्बा का अपहरण एवं परित्याग, द्रौपदी के चीर हरण का प्रतिरोध नहीं करना आदि चिन्ह पौरुष के नहीं कहे जा सकते थे।
विभाजन के फलस्वरुप हुए दंगों में पश्चिमी भारत में नर संहार पुर्वी भारत की तुलना में कम से कम दस गुना हुआ। नोआखली में महज एक पखवाड़े में शान्ति बहाल हो चुकी थी। इस समय गांधी जी का दीर्घकालीन कलकत्ता प्रवास कुछ वैसा ही था जैसा भीष्म पितामह का द्रौपदी का चीरहरण के समय सभा में मूक उपस्थित रहना। यहां एक द्रौपदी का चीर हरण हुआ था वहां पश्चिमी भारत में लाखों द्रौपदीयों का चीर हरण हो रहा था। लेकिन गांधी जी उनकी तरफ पीठ कर नोआखली में बैठे रहे।
नाथुराम गोडसे या कोई भी अन्य व्यक्ति पिस्तौल से गांधी जी हत्या नहीं कर सकता था।
गांधी जी कि हत्या भले ही गोडसे ने 1948 में की हो,गांधीवाद की हत्या की प्रक्रिया विभाजन की स्वीकृति के साथ ही हो गई थी। जिस तरह तुलसी दास कहते हैं कि “राम का नाम,राम से कहीं बड़ा था” उसी तरह गांधी एक व्यक्ति से उपर एक विचारधारा का नाम था। उनकी हत्या उनके अपने नामधारीयों ने की। जिस तरह भीष्म पितामह की हत्या उनके अपने पोते अर्जुन के हाथों हुई, उसी तरह गांधी जी की हत्या भी उनके ही राजनीतिज्ञ वंशजों ने ही की है। राजघाट पर बनी हुई समाधि तो सिर्फ एक प्रतीक मत्र है। उनकी हत्या भारत के हर गांव हर शहर में हुई है।
जहां गांधीजी की समुचित विचारधारा का केन्द्र भारतीय ग्रमीण समाज था वहीं उनके राजनीतिक पुत्र नेहरुजी पक्के देशप्रेमी होते हुए भी एक अभिजात्य (elitist) सोच से ग्रसित थे। जहां गांधी जी की प्राथमिकता गांव के शौचालयों की थी वहीं नेहरु जी की प्रधान मन्त्री के रुप में पहली मानसिक संरचना विदेशी मेहमानों हेतू अशोक होटल की थी। अशोक होटल का निर्माण भारत के drawing room के स्वरुप किया गया। ये अर्जुन के तरकश का पहला तीर था, जिसने भीष्म स्वरुप गांधी को बिंधा। हाल में दिये गये एक भाषण में यह कहा गया है कि, “नेहरु जी भारत पर राज्य करने वाले अंतिम अंग्रेज थे।“ यह संवाद अपनी पूरी भंगिमाओं के साथ अग्राह्य होते हुए भी कई अर्थों में एक ऐतिहासिक सत्य है।
भारत के विभाजन के लिये अगर जिन्ना मुख्य दोषी है तो नेहरु जी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के वजूद को नकारा नहीं जा सकता । पराकाष्ठा स्वरुप आज तो परिस्थिति यह है कि
बापु तेरे चरखे पर , खद्दरधारी आज कात रहें हैं
सोने के धागे
सन् 1937 के चुनाव के पश्चात महात्मा गांधी ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि , “आज सत्ता में बैठे हुए लोगों के भ्रष्ट आचरण को देख कर मैं भारत के भविष्य के प्रति सशंकित हूँ।” उसी समय आवश्यकता थी एक समानान्तर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आन्दोलन की। गलत महत्वाकांक्षाओं की हत्या ही समुचित समाधान है।
भीष्म पितामह भी महाभारत के प्रारम्भ में अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहते हैं कि “ मुझे विभाजन स्वीकार नहीं करना चाहिये था। यह युद्ध उसी समय छेड़ देना चाहिये था।
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का समाधान विभाजन नहीं युद्ध है। अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं जीवित रहीं तो विभाजन के पश्चात भी महाभारत ही होगा।”
भातर पाक के चार युद्ध पांच हजार वर्ष के पश्चात भी उस कथन को प्रमाणित ही करते हैं।
फिर भी निःशंक दोनो ही महापुरुष, युगावतार थे। (My musings here are inspired by Shashi’s The Great Indian Novel”
Saturday, May 12, 2007
WAR
युद्ध
हाँ मैं कभी हारा नहीं
मेरे हर अन्त में थी एक अनन्त की प्रतिध्वनि
और मेरे हर मरुस्थल में तुम
चौमासे की तरह आये
कभी सोचता हूँ की
सत्य तो यह है कि
कबीर* सम जब तलक तुम नहीं हारो
तो मैं कैसे हारुं
हाँ तुम हारो, तो मैं हारुं
हर सुबह जिन्दगीं का सुरज उगा
और शाम
हर,शाम ने जब जैसे
सुरज की तमाम किरणें समेटी
तुम भी बस उसी तरह
मेरे मानस में सिमट आए
जिन्दगीं के हर क्षण में
तुम्हारी पद्चाप सुनी मैंने
हालांकि कभी ढुंढा नहीं तुम्हें
फिर भी तुम्हारी उपस्थिति का आभाष
हमेशा रहा आस पास मुझे
जब कभी मेरे कक्ष में
किसी अंधेरे ने किया प्रवेश
तुम्हारी किरणों नें बिजली सा कौंध
किया उस अंधेरे का अपहरण
जब कभी अशक्त हो लड़खड़ाया
तब सहारे स्वरूप तुम्हारा ही कन्धा पाया
हाँ लड़ाईयाँ कभी जीती कभी हारी
लेकिन युद्ध कभी कोई हारा नहीं मैंने
Yes I never lost
You came as infinite in all my ends
And you came as monsoon in
All my deserts
Sometimes I think that unless you lose
How can I lose
Yes I would lose only if you’d lose
Every morning the sun of life arose
And evenings
Yes , In the evenings as the Sun gathered
All its rays
You also got assimilated in myself
In every moment of my life
I heard your footsteps
Though never looked for you
Yet I could feel your presence always
Whenever any darkness entered my room
Your rays whisked it away
In all my weak moments
It was your shoulder alone I could locate
Yes I did lose several battles but never lost a war
~ Kuldip Gupta ~
*(Kabir has said at a place that I would die if and only if you i.e, god dies)
हाँ मैं कभी हारा नहीं
मेरे हर अन्त में थी एक अनन्त की प्रतिध्वनि
और मेरे हर मरुस्थल में तुम
चौमासे की तरह आये
कभी सोचता हूँ की
सत्य तो यह है कि
कबीर* सम जब तलक तुम नहीं हारो
तो मैं कैसे हारुं
हाँ तुम हारो, तो मैं हारुं
हर सुबह जिन्दगीं का सुरज उगा
और शाम
हर,शाम ने जब जैसे
सुरज की तमाम किरणें समेटी
तुम भी बस उसी तरह
मेरे मानस में सिमट आए
जिन्दगीं के हर क्षण में
तुम्हारी पद्चाप सुनी मैंने
हालांकि कभी ढुंढा नहीं तुम्हें
फिर भी तुम्हारी उपस्थिति का आभाष
हमेशा रहा आस पास मुझे
जब कभी मेरे कक्ष में
किसी अंधेरे ने किया प्रवेश
तुम्हारी किरणों नें बिजली सा कौंध
किया उस अंधेरे का अपहरण
जब कभी अशक्त हो लड़खड़ाया
तब सहारे स्वरूप तुम्हारा ही कन्धा पाया
हाँ लड़ाईयाँ कभी जीती कभी हारी
लेकिन युद्ध कभी कोई हारा नहीं मैंने
Yes I never lost
You came as infinite in all my ends
And you came as monsoon in
All my deserts
Sometimes I think that unless you lose
How can I lose
Yes I would lose only if you’d lose
Every morning the sun of life arose
And evenings
Yes , In the evenings as the Sun gathered
All its rays
You also got assimilated in myself
In every moment of my life
I heard your footsteps
Though never looked for you
Yet I could feel your presence always
Whenever any darkness entered my room
Your rays whisked it away
In all my weak moments
It was your shoulder alone I could locate
Yes I did lose several battles but never lost a war
~ Kuldip Gupta ~
*(Kabir has said at a place that I would die if and only if you i.e, god dies)
Friday, May 11, 2007
Kavita
एक दिन मेरे मैं ने
झुंझला कर पुछा,
आखिर तुम क्यों लिखते हो कविता
आज जब पेट भरना ही एक विराट प्रश्न है,
तब जठरानल के सन्मुख निर्रर्थक है तुम्हारी कविता
बताओ क्या किसी का पेट भर पाई है तुम्हारी कविता।
और तो और महज कल और आज में क्या,
कुछ भी परिवर्तन ला पायी है तुम्हारी कविता।
क्या बन्दुक या परचम बन,
सरहद पर दुश्मनों से जुझ पायी है तुम्हारी कविता।
जब और्केष्ट्रा के सामने ही कभी
नहीं टिक पाई तुमहारी कविता।
तब आज रीमिक्स की चकाचौंध में
बिल्कुल बेमानी हो चुकी है, तुम्हारी कविता।
जब इन सबसे हो वाकिफ़,
तो फ़िर आखिरकार क्यों लिखते हो कविता।
तभी मानस पर मेरे कौंध गई कुरुक्षेत्र की कविता
जिसने परचम बन अर्जुन को क्षात्र धर्म का ज्ञान दिलाया,
और महाभारत को भी स्तुत्य बना गई थी वही कविता।
सिर्फ़ आज और कल का परिर्वत्तन ही नहीं
आज के गणतन्त्र की आधारशिला में भी थी
रुसो और वाल्टेयर की कविता।
भारत में आजादी की अनहद गूंज मे भी,
प्रतिध्वनित थी बकिंम चन्द्र की ही एक कविता।
शब्दों में अगर सत्य हो तो
सिर्फ़ एक इकाई ही नहीं
पूरे मानव जगत का पेट भर सकती है एक कविता।
जिस तिमिर के प्रथम प्रहर हैं Orchestra व Remix,
उस तिमिर को भेदने वाली
उषा की प्रथम किरण है कविता।
जब कवि और काव्य पात्र एकात्म होते हैं,
तब शब्दों में चित्र, भाव एवं संगीत की त्रिवेणी बहती है
यह त्रिवेणी जब कागज पर उतरती है,
तब वह होती है कविता।
आदि में था शब्द, और शब्द में था ईश्वर ।
इसीलिये ईश्वर सी सर्वशक्तिमान है कविता।
मैंने, मेरे वेताल रुपी मैं को समझाया
हां इसी महाशक्ति को साधने हेतू
निरन्तर मैं लिखता हूं कविता।
झुंझला कर पुछा,
आखिर तुम क्यों लिखते हो कविता
आज जब पेट भरना ही एक विराट प्रश्न है,
तब जठरानल के सन्मुख निर्रर्थक है तुम्हारी कविता
बताओ क्या किसी का पेट भर पाई है तुम्हारी कविता।
और तो और महज कल और आज में क्या,
कुछ भी परिवर्तन ला पायी है तुम्हारी कविता।
क्या बन्दुक या परचम बन,
सरहद पर दुश्मनों से जुझ पायी है तुम्हारी कविता।
जब और्केष्ट्रा के सामने ही कभी
नहीं टिक पाई तुमहारी कविता।
तब आज रीमिक्स की चकाचौंध में
बिल्कुल बेमानी हो चुकी है, तुम्हारी कविता।
जब इन सबसे हो वाकिफ़,
तो फ़िर आखिरकार क्यों लिखते हो कविता।
तभी मानस पर मेरे कौंध गई कुरुक्षेत्र की कविता
जिसने परचम बन अर्जुन को क्षात्र धर्म का ज्ञान दिलाया,
और महाभारत को भी स्तुत्य बना गई थी वही कविता।
सिर्फ़ आज और कल का परिर्वत्तन ही नहीं
आज के गणतन्त्र की आधारशिला में भी थी
रुसो और वाल्टेयर की कविता।
भारत में आजादी की अनहद गूंज मे भी,
प्रतिध्वनित थी बकिंम चन्द्र की ही एक कविता।
शब्दों में अगर सत्य हो तो
सिर्फ़ एक इकाई ही नहीं
पूरे मानव जगत का पेट भर सकती है एक कविता।
जिस तिमिर के प्रथम प्रहर हैं Orchestra व Remix,
उस तिमिर को भेदने वाली
उषा की प्रथम किरण है कविता।
जब कवि और काव्य पात्र एकात्म होते हैं,
तब शब्दों में चित्र, भाव एवं संगीत की त्रिवेणी बहती है
यह त्रिवेणी जब कागज पर उतरती है,
तब वह होती है कविता।
आदि में था शब्द, और शब्द में था ईश्वर ।
इसीलिये ईश्वर सी सर्वशक्तिमान है कविता।
मैंने, मेरे वेताल रुपी मैं को समझाया
हां इसी महाशक्ति को साधने हेतू
निरन्तर मैं लिखता हूं कविता।
Thursday, May 10, 2007
That Moment
वह क्षण
हां वह क्षण
एक हकीकत का अनुभव
एक प्रकाश की अनुभूति
एक स्वतंत्रता का एह्सास
हां
यह वही क्षण था
जब मैंने तुम्हें आत्मसात किया था
तुम जो कि अनिवर्चनीय हो
तुम्हारे उस क्षण को कैसे बाँधू शब्दों में
एक लचर – सा मानस
ओर एक अपरिमित संचार
मेरे शब्द या मेरा मौन
कौन अधिक मुखर होगा
उस क्षण की मार्जना में
हां मेरे शब्दों का व्यास
उस अनुभव से अलग मेरा अपना है
लेकिन मेरे क ओर ख रेखा की घुरी
शून्य से ही शुरु होती है
इसीलिये मेरे शब्दों में भी पूरा सत्य ही होगा
यह खुशी जो मेरे चेहरे पर
अक्षुण्ण व्याप्त है
उसी अनुभव की परिचायक है
उसी क्षण मैंने तुम्हें पाया
या खुद को खोया, नहीं जानता
लेकिन एक नैसर्गिक आनन्द का अनुभव
कुछ ऐसा था
उस क्षण को आराध्य बना गया
हां वह क्षण
एक हकीकत का अनुभव
एक प्रकाश की अनुभूति
एक स्वतंत्रता का एह्सास
हां
यह वही क्षण था
जब मैंने तुम्हें आत्मसात किया था
तुम जो कि अनिवर्चनीय हो
तुम्हारे उस क्षण को कैसे बाँधू शब्दों में
एक लचर – सा मानस
ओर एक अपरिमित संचार
मेरे शब्द या मेरा मौन
कौन अधिक मुखर होगा
उस क्षण की मार्जना में
हां मेरे शब्दों का व्यास
उस अनुभव से अलग मेरा अपना है
लेकिन मेरे क ओर ख रेखा की घुरी
शून्य से ही शुरु होती है
इसीलिये मेरे शब्दों में भी पूरा सत्य ही होगा
यह खुशी जो मेरे चेहरे पर
अक्षुण्ण व्याप्त है
उसी अनुभव की परिचायक है
उसी क्षण मैंने तुम्हें पाया
या खुद को खोया, नहीं जानता
लेकिन एक नैसर्गिक आनन्द का अनुभव
कुछ ऐसा था
उस क्षण को आराध्य बना गया
Tuesday, May 08, 2007
Journey
यात्रा
मैं आखिरकार घर से निकल ही पड़ा
मेरा यह सफ़र मुझको
मुझको मुझ तक ले जाने को था
ड्गर अनजानी
मंजिल अनदेखी,
सिर्फ़ एक किरण का दिशा संकेत
ओर मैं पुर्णता की आदिम इच्छा का कम्पास ले
आखिरकार घर से निकल ही पड़ा।
इस यात्रा में किसी हमसफ़र के लिये
कहीं कोई जगह नहीं है।
मेरे साथ है
पुर्णता की प्रबलता इच्छा
एक उत्कंठा, ओर मेरा आधा मैं।
पूर्णता तो यात्रा की समाप्ति का पर्याय ही है।
इसीलिये इस रास्ते में,
वापसी का कहीं कोई पदचिन्ह नहीं है।
जो भी गया कभी लौट कर नहीं आया।
मैं आखिरकार घर से निकल ही पड़ा
मेरा यह सफ़र मुझको
मुझको मुझ तक ले जाने को था
ड्गर अनजानी
मंजिल अनदेखी,
सिर्फ़ एक किरण का दिशा संकेत
ओर मैं पुर्णता की आदिम इच्छा का कम्पास ले
आखिरकार घर से निकल ही पड़ा।
इस यात्रा में किसी हमसफ़र के लिये
कहीं कोई जगह नहीं है।
मेरे साथ है
पुर्णता की प्रबलता इच्छा
एक उत्कंठा, ओर मेरा आधा मैं।
पूर्णता तो यात्रा की समाप्ति का पर्याय ही है।
इसीलिये इस रास्ते में,
वापसी का कहीं कोई पदचिन्ह नहीं है।
जो भी गया कभी लौट कर नहीं आया।
Sunday, April 29, 2007
Indan National Congress THE CSR OF BRITISH GOVERNMENT
Indan National Congress THE CSR OF BRITISH GOVERNMENT
Indian National Congress was formed by a British Civil Servant Mr A O Hume in 1885. The stated objectives were greater participation of educated Indians in Government.
It never envisaged anything rebellious. It was merely a hollow Corporate Social Responsibility activity of the British Government. We have been hearing about workers participation in Corporate Managemnent since time ad nauseam. Indian National Congress was something similar.
The muzzling of press through Vernacular Press Act in 1878 and the discriminatory Judicial process related Ilbert Bill of 1882 and its aftermath , as well as the reduction of the age limit for the Civil Services Exams in 1876 resulted in a wave of opposition from the middle class Indians. Consequently some of them came together and formed a number of small political parties that came out in the streets for protests and rallies. The British foresaw the situation resulting in another rebellion on the pattern of the War of Independence of 1857. To avoid such a situation, the British decided to provide an outlet to the local people where they could discuss their political problems. In order to achieve this goal, Allan Octavian Hume, a retired British civil servant, had a series of meetings with Lord Dufferin, the Viceroy. He also visited England and met people like John Bright, Sir James Caird, Lord Ripon and some members of the British Parliament. Formation of Indian National Congress was an outcome of this CSR process.
Corporate social responsibility is the continuing commitment by corporate to behave ethically and contribute to economic development while improving the quality of life of the workforce and their families as well as of the local community and society at large.
In a similar but weaker vein on suggestion of the British civil servant Mr Humes an organization principally a debating society under the name and style of Indian National Congress was set up in 1885. It was supposed to provide a vent to the NATIVES to let out their feeling to the Viceroy to help him to Govern India more effectively.
However Britishers cunningly got Muslims against it under their divide and rule policy. The Muslims boycotted it. Sir Syed Ahmed was in the forefront opposing Congress. The Tragedy was that the muslims and the rich Hindus were not comfortable with any other perception of rulers. They were comfortable with feudal system of governance. The British system of governance was comfortable to most of them. Muslims were made to believe that Indian National Congress was a Hindu party and would not take care of their interests.
To counter congress British Government promoted Muslim League another debating drawing room organization.
Yet the CSR efforts went astray with the arrival of nationalist leaders like, Lal-Bal-Pal, Mahatma Gandhi etc., They realized it too late that the education being provided under the CSR efforts had opened the vistas of the world to these persons.A British officer remarked that “we were trying to build administrators , by teaching revolutionary literature.” Once the elite Hindus had had English education the Vista of the whole world was opened to them. That included revolutionary literature of Roussau Voltaire and the likes.
Indian National Congress was formed by a British Civil Servant Mr A O Hume in 1885. The stated objectives were greater participation of educated Indians in Government.
It never envisaged anything rebellious. It was merely a hollow Corporate Social Responsibility activity of the British Government. We have been hearing about workers participation in Corporate Managemnent since time ad nauseam. Indian National Congress was something similar.
The muzzling of press through Vernacular Press Act in 1878 and the discriminatory Judicial process related Ilbert Bill of 1882 and its aftermath , as well as the reduction of the age limit for the Civil Services Exams in 1876 resulted in a wave of opposition from the middle class Indians. Consequently some of them came together and formed a number of small political parties that came out in the streets for protests and rallies. The British foresaw the situation resulting in another rebellion on the pattern of the War of Independence of 1857. To avoid such a situation, the British decided to provide an outlet to the local people where they could discuss their political problems. In order to achieve this goal, Allan Octavian Hume, a retired British civil servant, had a series of meetings with Lord Dufferin, the Viceroy. He also visited England and met people like John Bright, Sir James Caird, Lord Ripon and some members of the British Parliament. Formation of Indian National Congress was an outcome of this CSR process.
Corporate social responsibility is the continuing commitment by corporate to behave ethically and contribute to economic development while improving the quality of life of the workforce and their families as well as of the local community and society at large.
In a similar but weaker vein on suggestion of the British civil servant Mr Humes an organization principally a debating society under the name and style of Indian National Congress was set up in 1885. It was supposed to provide a vent to the NATIVES to let out their feeling to the Viceroy to help him to Govern India more effectively.
However Britishers cunningly got Muslims against it under their divide and rule policy. The Muslims boycotted it. Sir Syed Ahmed was in the forefront opposing Congress. The Tragedy was that the muslims and the rich Hindus were not comfortable with any other perception of rulers. They were comfortable with feudal system of governance. The British system of governance was comfortable to most of them. Muslims were made to believe that Indian National Congress was a Hindu party and would not take care of their interests.
To counter congress British Government promoted Muslim League another debating drawing room organization.
Yet the CSR efforts went astray with the arrival of nationalist leaders like, Lal-Bal-Pal, Mahatma Gandhi etc., They realized it too late that the education being provided under the CSR efforts had opened the vistas of the world to these persons.A British officer remarked that “we were trying to build administrators , by teaching revolutionary literature.” Once the elite Hindus had had English education the Vista of the whole world was opened to them. That included revolutionary literature of Roussau Voltaire and the likes.
Thursday, April 19, 2007
Godhara
गोधरा हिरोशिमा की नाईं
हठात् विश्व के नक्शे पे आ गया
एक गुमनाम सा कस्बा
इन्सानियत की कब्रगाह बन
सुर्खियों में था
यह बात और थी कि
उन सुर्खियों को सुर्ख रंग
इन्सानों के लहू से ही मिला था
अब मुझ जैसे समर्थ लोगों को
प्रतिशोध में कुछ और शहरों के नाम
सुर्खियों में लाने थे
फिर से हुई इन्सानियत की हत्या
फिर कुछ और लहू बहा
अब कुछ और शहरों के नाम
सुर्खियों में थे
मैने लूटा दुकानों को
इस बात से बेखबर
कि अपनी पांच हज़ार साल की धरोहर
उसी दहलीज़ पर मैं खुद
लूटा कर आया हूं
हां वही सम्पदा जो मुझे
राम बुद्ध औ गांधी से
विरासत में मिलि थी
एक छण में गवां कर आया हूं।
हां मैं अब अपना सब कुछ लूटा
भेड़िये में तबदील हो गया था
समर्थ को नहीं दोष गुनगुनाता
कुछ और शिकार तलाश रहा था
इन्सानियत अब जर्द औ रक्तविहीन हो
हाशिये पे पंहुच चुकी थी
वसुधैव कुटुम्बकम का मन्त्र
अब बासी हो चला था
राम का वर्गीकरण कर
उसका धनुष अपने हाथों में ले
मैं, हाँ अब मैं ही
राम की रक्षा कर रहा था
Godhra like Hiroshima
All of a sudden Got Identified on the World Map
An Unknown town was in headlines
By turning into a graveyard of humanity
Although the vermillion hue of the headline
Was obtained from human blood alone
Now it was the turn of certain other
Strong men such as me
To bring names of certain other towns in headlines
Once Again Humanity was murdered
Some more blood was shed
And Few more towns
Hit the headlines
I Robbed shops
Unaware of The Fact
That I had Lost My Five Thousand Years
Estate In The bargain
Yes the Same Estate that I had got as inheritance
From Ram ,Buddha and Gandhi
I lost at the same doorstep in a second
Now Bereft Of everything
I had Metamorphosised into A Wolf
And Pleading Might is Right
I was Looking For a Fresh Prey
The Humanity had become Anemic and Pale
And had become marginalized
The Concept of universal Brotherhood
Had Become Stale
Now I Had segmented Ram
Taken his bow in my hand
And me , yes little me
Had Become the protector of Ram
हठात् विश्व के नक्शे पे आ गया
एक गुमनाम सा कस्बा
इन्सानियत की कब्रगाह बन
सुर्खियों में था
यह बात और थी कि
उन सुर्खियों को सुर्ख रंग
इन्सानों के लहू से ही मिला था
अब मुझ जैसे समर्थ लोगों को
प्रतिशोध में कुछ और शहरों के नाम
सुर्खियों में लाने थे
फिर से हुई इन्सानियत की हत्या
फिर कुछ और लहू बहा
अब कुछ और शहरों के नाम
सुर्खियों में थे
मैने लूटा दुकानों को
इस बात से बेखबर
कि अपनी पांच हज़ार साल की धरोहर
उसी दहलीज़ पर मैं खुद
लूटा कर आया हूं
हां वही सम्पदा जो मुझे
राम बुद्ध औ गांधी से
विरासत में मिलि थी
एक छण में गवां कर आया हूं।
हां मैं अब अपना सब कुछ लूटा
भेड़िये में तबदील हो गया था
समर्थ को नहीं दोष गुनगुनाता
कुछ और शिकार तलाश रहा था
इन्सानियत अब जर्द औ रक्तविहीन हो
हाशिये पे पंहुच चुकी थी
वसुधैव कुटुम्बकम का मन्त्र
अब बासी हो चला था
राम का वर्गीकरण कर
उसका धनुष अपने हाथों में ले
मैं, हाँ अब मैं ही
राम की रक्षा कर रहा था
Godhra like Hiroshima
All of a sudden Got Identified on the World Map
An Unknown town was in headlines
By turning into a graveyard of humanity
Although the vermillion hue of the headline
Was obtained from human blood alone
Now it was the turn of certain other
Strong men such as me
To bring names of certain other towns in headlines
Once Again Humanity was murdered
Some more blood was shed
And Few more towns
Hit the headlines
I Robbed shops
Unaware of The Fact
That I had Lost My Five Thousand Years
Estate In The bargain
Yes the Same Estate that I had got as inheritance
From Ram ,Buddha and Gandhi
I lost at the same doorstep in a second
Now Bereft Of everything
I had Metamorphosised into A Wolf
And Pleading Might is Right
I was Looking For a Fresh Prey
The Humanity had become Anemic and Pale
And had become marginalized
The Concept of universal Brotherhood
Had Become Stale
Now I Had segmented Ram
Taken his bow in my hand
And me , yes little me
Had Become the protector of Ram
Saturday, April 14, 2007
Gandhi
गांधी
गांधी तेरे चर्खे पर
खद्दरधारी आज कात रहें हैं सोने के धागे
पहन जन सेवा का मुखौटा
रहते लूट खसोट मे सबसे आगे
राष्ट्र के तीनों स्तम्भ
गाँधी तेरे तीन बन्दरों की नाईं
आंख कान मुंह बन्द कर लाचार
रक्षक नेता कान बन्द कर तक्षक बन गये
करते राष्ट्रसेवा के नाम पर व्याभिचार।
राजघाट पर हर साल मगरमcछी आंसू बहाते
दो अक्टुबार को माला पहनाते
बाकी 363 दिन
तेरा नाम बेच बेच कर अर्थ कमाते
स्विस बैंकों में उसे जमा करा
मेरा भारत महान का नारा लगाते
तेरी गांधी टोपी तो आज ऊछल रही है बीच बाजार ।
परिवार वाद के साये में
पहन तेरे नाम का मुखौटा
भूमन्डलीकरण के नाम पर
रामराज्य के बदले, रोमराज्य का करते प्रचार ।
अधिकारी गण अहं से अन्धे हो गये
आंखें मीच फरमान सुनाते
गणतन्त्र की होली जलाते
मन्त्रियों के तलवे सहलाते
अपनी प्रोन्नति और कुर्सी की जद्दोजहद में
क्यों सुने वे जनता की पुकार।
न्यायपालिका भी मुंह बन्द कर बैठी
अपने Ivory Tower में खुद ही बन्द
संविधान के अनुcछेद, ज्यों बन गये हों कारागार।
आज जब सिर्फ तम है चतुर्दिक
इस तमस से हमें उबारने
हे युगावतार एकबार तुम फिर से आओ
तेरी खादी का द्रौपदी सा
आज हो रहा है चीर हरण
कृष्ण सम परित्राणाम साधुनाम एकबार तुम फिर से आओ
भारत को बांटा दो टुकड़ों में अंग्रेजों ने
भारतीयों के सौ टुकड़े कर दिये
इन खद्दरधारी जांतपांत के रंगरेजोंने
तुम्हारे उत्तराधिकारियों
के हांलाकि कुल अनेक हो गये
इन सब खल कुलों के चिन्ह भले ही हों अलग अलग
लेकिन हैं ये सारे दुष्कृताम
इन सब के विनाशाय
एकबार तुम फिर से आओ
गांधी तेरा ईश सत्य था
और सत्याग्रह तेरी थाती
आज सत्य रह गया किताबों में
और ईश दुबके बैठे मन्दिर माही
अनाचार अब धर्म हो गया
अपने सत्य के धर्म संस्थापनार्थ
एक बार तुम फिर से आओ
हे कलियुग के युगावतार
एक बार तुम फिर से आओ।
गांधी तेरे चर्खे पर
खद्दरधारी आज कात रहें हैं सोने के धागे
पहन जन सेवा का मुखौटा
रहते लूट खसोट मे सबसे आगे
राष्ट्र के तीनों स्तम्भ
गाँधी तेरे तीन बन्दरों की नाईं
आंख कान मुंह बन्द कर लाचार
रक्षक नेता कान बन्द कर तक्षक बन गये
करते राष्ट्रसेवा के नाम पर व्याभिचार।
राजघाट पर हर साल मगरमcछी आंसू बहाते
दो अक्टुबार को माला पहनाते
बाकी 363 दिन
तेरा नाम बेच बेच कर अर्थ कमाते
स्विस बैंकों में उसे जमा करा
मेरा भारत महान का नारा लगाते
तेरी गांधी टोपी तो आज ऊछल रही है बीच बाजार ।
परिवार वाद के साये में
पहन तेरे नाम का मुखौटा
भूमन्डलीकरण के नाम पर
रामराज्य के बदले, रोमराज्य का करते प्रचार ।
अधिकारी गण अहं से अन्धे हो गये
आंखें मीच फरमान सुनाते
गणतन्त्र की होली जलाते
मन्त्रियों के तलवे सहलाते
अपनी प्रोन्नति और कुर्सी की जद्दोजहद में
क्यों सुने वे जनता की पुकार।
न्यायपालिका भी मुंह बन्द कर बैठी
अपने Ivory Tower में खुद ही बन्द
संविधान के अनुcछेद, ज्यों बन गये हों कारागार।
आज जब सिर्फ तम है चतुर्दिक
इस तमस से हमें उबारने
हे युगावतार एकबार तुम फिर से आओ
तेरी खादी का द्रौपदी सा
आज हो रहा है चीर हरण
कृष्ण सम परित्राणाम साधुनाम एकबार तुम फिर से आओ
भारत को बांटा दो टुकड़ों में अंग्रेजों ने
भारतीयों के सौ टुकड़े कर दिये
इन खद्दरधारी जांतपांत के रंगरेजोंने
तुम्हारे उत्तराधिकारियों
के हांलाकि कुल अनेक हो गये
इन सब खल कुलों के चिन्ह भले ही हों अलग अलग
लेकिन हैं ये सारे दुष्कृताम
इन सब के विनाशाय
एकबार तुम फिर से आओ
गांधी तेरा ईश सत्य था
और सत्याग्रह तेरी थाती
आज सत्य रह गया किताबों में
और ईश दुबके बैठे मन्दिर माही
अनाचार अब धर्म हो गया
अपने सत्य के धर्म संस्थापनार्थ
एक बार तुम फिर से आओ
हे कलियुग के युगावतार
एक बार तुम फिर से आओ।
Thursday, April 12, 2007
Sun and Me
मैं क्यों नहीं मान पाता हूं
कि सूर्योदय के बाद सूर्यास्त होता है
सोम के बाद मंगल होता
और आज के बाद कल होता
क्योंकि मैं जानता हूँ कि
सूर्य का न उदय होता है न अस्त
वो तो सिर्फ टंगा खड़ा है, एक खूंटे से ।
यह तो है पृथ्वी है का घूमना,
और मेरी पृथ्वी बद्धता ।
जिससे सूरज कभी होता है
मेरी आँखों के सामने
और कभी मेरी पीठ के पीछे।
और बस इसीलिये मुझे कभी
सूर्योदय एवं सूर्यास्त का छलावा
रास ही नहीं आया।
कभी सोचता हूं कि
अगर मैं अपनी ही धूरी पर घूम जाउं
तो सूर्योदय और सूर्यास्त की श्रृंखला
निश्चित ही गड़बड़ा जायेगी
और अगर मैं चलना शुरु कर दूं
पृथ्वी की दिशा के विपरीत
तो सूर्योदय एवं सूर्यास्त की परंपरा ही शेष हो जयेगी
फिर न आज के बाद के कल होगा
न सोम के बाद मंगल
रह जायेगी निरन्तर मध्यान्ह की धूप
और चिरन्तन आज में जीता हुआ मैं
Why can’t I accept,
That as per tradition every sunset follows a sunrise
That every Tomorrow follows a today
That every Tuesday follows a Monday
Its because I know
That the tradition of Sunset and Sunrise is a hoax
That the Sun is stuck fixed in its groove
It’s the earth’s rotation
And my bondage with the earth
That makes me face Sun at times
And put it behind my back on others
And that’s the reason that I could never enjoy this illusion
Of sunset and sunrise
Sometimes I hear a voice from my inner self
That if I turn on my axis
The tradition of sunset and sunrise shall get badly disturbed
And again if I started walking
In the direction opposite to the Earth’s spin
It would put an end to all the traditions
Viz.,a Sunset following a Sunrise
And a Tuesday following a Monday
And that of a tomorrow following a today
And we shall have a perennial mid day Sun
And a ME living perennially in TODAY
कि सूर्योदय के बाद सूर्यास्त होता है
सोम के बाद मंगल होता
और आज के बाद कल होता
क्योंकि मैं जानता हूँ कि
सूर्य का न उदय होता है न अस्त
वो तो सिर्फ टंगा खड़ा है, एक खूंटे से ।
यह तो है पृथ्वी है का घूमना,
और मेरी पृथ्वी बद्धता ।
जिससे सूरज कभी होता है
मेरी आँखों के सामने
और कभी मेरी पीठ के पीछे।
और बस इसीलिये मुझे कभी
सूर्योदय एवं सूर्यास्त का छलावा
रास ही नहीं आया।
कभी सोचता हूं कि
अगर मैं अपनी ही धूरी पर घूम जाउं
तो सूर्योदय और सूर्यास्त की श्रृंखला
निश्चित ही गड़बड़ा जायेगी
और अगर मैं चलना शुरु कर दूं
पृथ्वी की दिशा के विपरीत
तो सूर्योदय एवं सूर्यास्त की परंपरा ही शेष हो जयेगी
फिर न आज के बाद के कल होगा
न सोम के बाद मंगल
रह जायेगी निरन्तर मध्यान्ह की धूप
और चिरन्तन आज में जीता हुआ मैं
Why can’t I accept,
That as per tradition every sunset follows a sunrise
That every Tomorrow follows a today
That every Tuesday follows a Monday
Its because I know
That the tradition of Sunset and Sunrise is a hoax
That the Sun is stuck fixed in its groove
It’s the earth’s rotation
And my bondage with the earth
That makes me face Sun at times
And put it behind my back on others
And that’s the reason that I could never enjoy this illusion
Of sunset and sunrise
Sometimes I hear a voice from my inner self
That if I turn on my axis
The tradition of sunset and sunrise shall get badly disturbed
And again if I started walking
In the direction opposite to the Earth’s spin
It would put an end to all the traditions
Viz.,a Sunset following a Sunrise
And a Tuesday following a Monday
And that of a tomorrow following a today
And we shall have a perennial mid day Sun
And a ME living perennially in TODAY
Tuesday, April 10, 2007
Intellectual
बुद्धिजीवी तुम हो
गमले में उगे हुए व्यक्ति
तुम्हारा आस्तित्व
Bonsai सा निहयत बौना
तुम्हारा लेखन
महज एक intellectual diorrhea सा
ज्यों दसियों अलग अलग पार्टियों का खाया भोजन
मारे बदहजमी के कागज़ पर
कै की तरह बिखर जाये
इनमें एक भी शब्द ऐसा नहीं
जो भोगे हुए यथार्थ का परिचय पाये।
तुम बिल्कुल Bonsai के मानिन्द
खड़े हो
एक नकली ऊम्र का लबादा ओढे
एक कृत्रिम गाम्भीर्य की सलवटें लिये माथे पर
तुम्हारी जडे भी मिट्टी के अन्दर कम
मिट्टी के बाहर ही अधिक दृष्टिगोचर
तुम्हारी उम्र छ्द्म ,
जन्मपत्री से किसी की उम्र का आंकलन नहीं है सम्भव,
बिना झेले तुफानों को
बिना डालों पर झूला बधंवाए,
बिना दिये कभी पक्षियों को आसरा
इस अभिनित उम्र की नहीं होती कोई हकीकत
एक ही दिन को हर रोज जीने वाले
विगत इतने वर्षों में तुम,
ऊम्र एक ही दिन की तय कर पाये
ऊम्र को वज़ूद पाने को चहिये होता है
एक अभिनित नहीं
वरन जीया हुआ इतिहास
आज अनुभव रहित तुम्हारा ज्ञान
Bonsai पर लगे फल सा
आकर्षक लेकिन स्वाद व गुण से सर्वथा अनजान
तुम्हारे ज्ञान का परचम
बिना कार्यान्वन के मेरुदन्ड के
मेज़ पर सजे तिरंगे सा
प्रतीक लेकिन निःपन्द एवम प्रभावहीन ।
तुम जब गमले से निकल
मिट्टी से जुड पाओगे
तब जड़ें बाहर नहीं
अन्दर समायेंगी मिट्टी में दूर तक
Greenhouse के वातनूकूलित वातावरण से निकल
जब झेलोगे मार्तन्ड का पूरा ताप
तब ही पाओगे अपने पौरुष का एहसास
औ अपने आप में एक पूर्णता का आभास
तब तुम्हारे शब्दों में भी होगा जीवन दर्शन
औ तुम्हारे आस्तित्व में एक तारीख़ी सत्य का मचन
हाँ और अब वामन नहीं
पाकर अपना पूरा आकार
अपनी अस्मिता के लिये
तुम्हें नहीं रहेगा किसी कला समीक्षक
का इन्तज़ार
INTELLECTUALS
Intellectuals
You are a Flower Pot Born Person
You Have a Dwarfish Identity
Like That of A Bonsai
Your Musings Are Like Intellectual Diorrhea’
As If Food Consumed In Ten Parties
Because Of Indigestion
Gets Thrown Up Like Vomit And Spreads On Paper
Not A Word In It
That may qualify For Empirical Truth
You Exactly Like A Bonsai
Are Standing
With A Fake Aged and Experienced Look
You Have Artificial Wrinkles On Your Forehead
Your Roots Too Are Visible and More Exposed Above Ground
Then In the Soil
Your Fake Age,
Birth Certificates Can Not Give any Ones Age
Without Facing Storms
Without Swings Adorning Your Branches
Without Birds Making Nests On Your Branches
This Mimed age has No Sanctity
You Who Has Lived One Day over and Over Again
In all These Years
Has Aged By Merely ONE DAY Alone
To Give Reality To Ones Age
You Have To Live the Years
Not merely mime the living
Today Your non empirical Intelligence
Is Like Fruits on A Bonsai Plant
Beautiful But Devoid of Taste and Vitamins
Your Flag Of Intellect
Is Like Tricolour On the Table
Symbol yet Non Inspiring
When You shall Leave the pot and get Rooted in the Earth
Then Your Roots Shall Go
Inside the Ground
Very Deep
When You get Out Of The Controlled Enviornment Of The Greenhouse
And Face The Sun’s Wrath
Then Alone
You Shall have the perception of Your Manhood
And a Feeling of Completeness
Then Your Words would Have Philosophy of Life
Your Identity shall unravel Historic Facts
You After Getting Your Full Dimensions
You shall not look for
An Art Critics Review for your Self Respect
गमले में उगे हुए व्यक्ति
तुम्हारा आस्तित्व
Bonsai सा निहयत बौना
तुम्हारा लेखन
महज एक intellectual diorrhea सा
ज्यों दसियों अलग अलग पार्टियों का खाया भोजन
मारे बदहजमी के कागज़ पर
कै की तरह बिखर जाये
इनमें एक भी शब्द ऐसा नहीं
जो भोगे हुए यथार्थ का परिचय पाये।
तुम बिल्कुल Bonsai के मानिन्द
खड़े हो
एक नकली ऊम्र का लबादा ओढे
एक कृत्रिम गाम्भीर्य की सलवटें लिये माथे पर
तुम्हारी जडे भी मिट्टी के अन्दर कम
मिट्टी के बाहर ही अधिक दृष्टिगोचर
तुम्हारी उम्र छ्द्म ,
जन्मपत्री से किसी की उम्र का आंकलन नहीं है सम्भव,
बिना झेले तुफानों को
बिना डालों पर झूला बधंवाए,
बिना दिये कभी पक्षियों को आसरा
इस अभिनित उम्र की नहीं होती कोई हकीकत
एक ही दिन को हर रोज जीने वाले
विगत इतने वर्षों में तुम,
ऊम्र एक ही दिन की तय कर पाये
ऊम्र को वज़ूद पाने को चहिये होता है
एक अभिनित नहीं
वरन जीया हुआ इतिहास
आज अनुभव रहित तुम्हारा ज्ञान
Bonsai पर लगे फल सा
आकर्षक लेकिन स्वाद व गुण से सर्वथा अनजान
तुम्हारे ज्ञान का परचम
बिना कार्यान्वन के मेरुदन्ड के
मेज़ पर सजे तिरंगे सा
प्रतीक लेकिन निःपन्द एवम प्रभावहीन ।
तुम जब गमले से निकल
मिट्टी से जुड पाओगे
तब जड़ें बाहर नहीं
अन्दर समायेंगी मिट्टी में दूर तक
Greenhouse के वातनूकूलित वातावरण से निकल
जब झेलोगे मार्तन्ड का पूरा ताप
तब ही पाओगे अपने पौरुष का एहसास
औ अपने आप में एक पूर्णता का आभास
तब तुम्हारे शब्दों में भी होगा जीवन दर्शन
औ तुम्हारे आस्तित्व में एक तारीख़ी सत्य का मचन
हाँ और अब वामन नहीं
पाकर अपना पूरा आकार
अपनी अस्मिता के लिये
तुम्हें नहीं रहेगा किसी कला समीक्षक
का इन्तज़ार
INTELLECTUALS
Intellectuals
You are a Flower Pot Born Person
You Have a Dwarfish Identity
Like That of A Bonsai
Your Musings Are Like Intellectual Diorrhea’
As If Food Consumed In Ten Parties
Because Of Indigestion
Gets Thrown Up Like Vomit And Spreads On Paper
Not A Word In It
That may qualify For Empirical Truth
You Exactly Like A Bonsai
Are Standing
With A Fake Aged and Experienced Look
You Have Artificial Wrinkles On Your Forehead
Your Roots Too Are Visible and More Exposed Above Ground
Then In the Soil
Your Fake Age,
Birth Certificates Can Not Give any Ones Age
Without Facing Storms
Without Swings Adorning Your Branches
Without Birds Making Nests On Your Branches
This Mimed age has No Sanctity
You Who Has Lived One Day over and Over Again
In all These Years
Has Aged By Merely ONE DAY Alone
To Give Reality To Ones Age
You Have To Live the Years
Not merely mime the living
Today Your non empirical Intelligence
Is Like Fruits on A Bonsai Plant
Beautiful But Devoid of Taste and Vitamins
Your Flag Of Intellect
Is Like Tricolour On the Table
Symbol yet Non Inspiring
When You shall Leave the pot and get Rooted in the Earth
Then Your Roots Shall Go
Inside the Ground
Very Deep
When You get Out Of The Controlled Enviornment Of The Greenhouse
And Face The Sun’s Wrath
Then Alone
You Shall have the perception of Your Manhood
And a Feeling of Completeness
Then Your Words would Have Philosophy of Life
Your Identity shall unravel Historic Facts
You After Getting Your Full Dimensions
You shall not look for
An Art Critics Review for your Self Respect
Monday, April 09, 2007
Impact of Islam on Hinduism
Impact of Islam on Hinduism
Muslims and Islam started reaching India in 7th Century alone. They first reached Malabar as traders. This was during the life time of the prophet.The local Moplas converted themselves and adopted Islam religion. It was a peaceful conversion.
Muslim reached Sindh as invaders in early eighth century. They established their reign in Sindh and could not proceed beyond that for next four hundred years.
There has been certain perception that Adi Shankaracharya started preaching “Advaitwad” and “Ekeshwarwad” under the influence of Islam. This perception has been created by authors viz., Humayun Kabir, Dr Abid Hussain and certain others of their ilk. This is as naïve or misleading as it could be.It takes birth in a premise that “Advaitwad” and “Ekeshwarwad” were unknown to Hinduism before Shankar. Whereas the tradition of “Adwaitwad” is as old as Rig Veda. It is found in the Nasadiya treaty in Rigveda.
This is true that Adi Shankaracharya was born in 8th Century and at that time Hinduism was being practiced as a polytheist religion.Alongwith this is also a fact that Shankars immediate Gurus and neighbourhood were Buddhist. If anything than it was the Buddhist Voidism or Shunyavad the guiding or influencing factor in the concept of Shankarachary’s propounding the theory of “Advaitwad”.
It is an absolutely misconceived perception that Islam had anything to do with the “Advaitwad” of Shankar. The “Advaitwad” of Shankar and the monism of Islam are very different. The “Advaitwad” says there is absence of a SECOND where as Islam believes in Monism.
Yes the Varna Bhed in India did get diluted because of Islamic influence. All our preachers viz.,Tulasi Das had accepted the “ Cast distinction”. The Buddhist and Jain influence had certainly caused dilution in the Varna bhed. Islam also added its own weight behind it. First time Preachers viz., Saint Ramanujam took low cast Hindus and Muslims in their fold and accepted them as their desciples.
There is another aspect to the deliberation. Islam unlike other religions does not have any philosophy behind it. It is a religion of simple do's and donts. It is a religion for ordinary ribal folks and not thinkers or philosophers. It does not allow any research or analytical study. Certainly it is very difficult for a religion without philosophy to influence others.
Yes the Muslim sufi sect could had been influenced by Hinduism. The slogan “Anal Haq”is very similar to “Aham Brhmashmi”.But then it may be an incorrect analysis.. Mysticism is always a part of all religious movements. Maybe it surfaced amongst Sufis naturally.
The continued interaction of Sufis and Hindus did bring a fresh approach in Hinduism. The casteism received a big blow. Idol worship became less important.
Yes Islam did effect Hindus in a big way though not Hinduism (in a big way).
Widespread conversions, rise of Sikhism, accepting subjugation to violence were the perceptible and exceedingly visible impact of Muslims on Hindus. As common amongst all defeated nationals Hindus started miming their rulers behavior.Muslims are comfortable in their behaviour but extremely fundamentalists in thier percept.They would never accept that any other religion can even come close to Islam,.Hindus are opposite. They are very open and amenable at their thought level.A Muslim would not have any qualms in breaking bread with a Hindu, whereas HIndus are extremelu liberal at thought level. They are eager to accept Sarva Dharma Sambhav. Yet would be extremely hesistant to break bread with a non hindu.
Aur fir kabhi.
Muslims and Islam started reaching India in 7th Century alone. They first reached Malabar as traders. This was during the life time of the prophet.The local Moplas converted themselves and adopted Islam religion. It was a peaceful conversion.
Muslim reached Sindh as invaders in early eighth century. They established their reign in Sindh and could not proceed beyond that for next four hundred years.
There has been certain perception that Adi Shankaracharya started preaching “Advaitwad” and “Ekeshwarwad” under the influence of Islam. This perception has been created by authors viz., Humayun Kabir, Dr Abid Hussain and certain others of their ilk. This is as naïve or misleading as it could be.It takes birth in a premise that “Advaitwad” and “Ekeshwarwad” were unknown to Hinduism before Shankar. Whereas the tradition of “Adwaitwad” is as old as Rig Veda. It is found in the Nasadiya treaty in Rigveda.
This is true that Adi Shankaracharya was born in 8th Century and at that time Hinduism was being practiced as a polytheist religion.Alongwith this is also a fact that Shankars immediate Gurus and neighbourhood were Buddhist. If anything than it was the Buddhist Voidism or Shunyavad the guiding or influencing factor in the concept of Shankarachary’s propounding the theory of “Advaitwad”.
It is an absolutely misconceived perception that Islam had anything to do with the “Advaitwad” of Shankar. The “Advaitwad” of Shankar and the monism of Islam are very different. The “Advaitwad” says there is absence of a SECOND where as Islam believes in Monism.
Yes the Varna Bhed in India did get diluted because of Islamic influence. All our preachers viz.,Tulasi Das had accepted the “ Cast distinction”. The Buddhist and Jain influence had certainly caused dilution in the Varna bhed. Islam also added its own weight behind it. First time Preachers viz., Saint Ramanujam took low cast Hindus and Muslims in their fold and accepted them as their desciples.
There is another aspect to the deliberation. Islam unlike other religions does not have any philosophy behind it. It is a religion of simple do's and donts. It is a religion for ordinary ribal folks and not thinkers or philosophers. It does not allow any research or analytical study. Certainly it is very difficult for a religion without philosophy to influence others.
Yes the Muslim sufi sect could had been influenced by Hinduism. The slogan “Anal Haq”is very similar to “Aham Brhmashmi”.But then it may be an incorrect analysis.. Mysticism is always a part of all religious movements. Maybe it surfaced amongst Sufis naturally.
The continued interaction of Sufis and Hindus did bring a fresh approach in Hinduism. The casteism received a big blow. Idol worship became less important.
Yes Islam did effect Hindus in a big way though not Hinduism (in a big way).
Widespread conversions, rise of Sikhism, accepting subjugation to violence were the perceptible and exceedingly visible impact of Muslims on Hindus. As common amongst all defeated nationals Hindus started miming their rulers behavior.Muslims are comfortable in their behaviour but extremely fundamentalists in thier percept.They would never accept that any other religion can even come close to Islam,.Hindus are opposite. They are very open and amenable at their thought level.A Muslim would not have any qualms in breaking bread with a Hindu, whereas HIndus are extremelu liberal at thought level. They are eager to accept Sarva Dharma Sambhav. Yet would be extremely hesistant to break bread with a non hindu.
Aur fir kabhi.
Sunday, April 01, 2007
Corporate Social Responsiblity
Recently I had attended the AGM of CII Orissa in Bhubaneswar. A prominent speaker a senior level office bearer of CII spoke eloquently about Corporate Social Responsibility with obvious references to Nandigram and Singur.
Even in the previous year another senior level office bearer spoke in similar vein.
A well intended subject has become a politically correct cliché. Every year or even otherwise in all such august gatherings very pleasing statements are made. Sadly most of the CSR efforts of the Corporate sector in India have become reduced to photo-ops with TV crew milling around. They lack sincerity and commitment.
The general perception about CSR amongst the Indian Corporate sector is that of Charity,doling out crumbs. CSR is not about charity. It is about improving your relationship, having a better neighbourhood, working with the society and that of sustained development. A good starting point would be “OM SAHANVAVATU…..SAHANAU BHUNAKTU…………..”.
Inspite of all the CSR efforts in Nandigram the image that lingers is of Industry vs Farmers. Such perceptions cause large scale damage.
I suggested to the august gathering that it is high time there was a wedding of well intended low cost NGO’s and the Corporate sector. Though the CSR should mean an ethical and responsible behavior towards one’s employees, customers , peripherals and society in general. In the current aspect I am talking about one’s neighbourhood and society. These are the days of specialisation and outsourcing. These (low cost) NGO employees dress and speak the language of the target group. The suave and citybred executives would never be able to inspire confidence amongst the villagers. The villagers by and large perceive all these well groomed, well dressed persons as insincere and out for a photop-op. They believe and very often rightly that these people collect funds in the names of these villagers, do a high profile camera shoot and disappear.
Corporate sector with their management expertise can effectively participate in the top level management of these NGO’s yet leave the ground work to the executives of the NGO’s. The Big NGO’s are top heavy and the overhead cost is more than what goes in the fields.
Today when the Corporate sector has become as big as the state they should be a bit more responsive towards the society.
Yes there are a few sound CSR efforts by the corporate sector in India. Its still a long way when the acronym would become a common phrase in the society.
Even in the previous year another senior level office bearer spoke in similar vein.
A well intended subject has become a politically correct cliché. Every year or even otherwise in all such august gatherings very pleasing statements are made. Sadly most of the CSR efforts of the Corporate sector in India have become reduced to photo-ops with TV crew milling around. They lack sincerity and commitment.
The general perception about CSR amongst the Indian Corporate sector is that of Charity,doling out crumbs. CSR is not about charity. It is about improving your relationship, having a better neighbourhood, working with the society and that of sustained development. A good starting point would be “OM SAHANVAVATU…..SAHANAU BHUNAKTU…………..”.
Inspite of all the CSR efforts in Nandigram the image that lingers is of Industry vs Farmers. Such perceptions cause large scale damage.
I suggested to the august gathering that it is high time there was a wedding of well intended low cost NGO’s and the Corporate sector. Though the CSR should mean an ethical and responsible behavior towards one’s employees, customers , peripherals and society in general. In the current aspect I am talking about one’s neighbourhood and society. These are the days of specialisation and outsourcing. These (low cost) NGO employees dress and speak the language of the target group. The suave and citybred executives would never be able to inspire confidence amongst the villagers. The villagers by and large perceive all these well groomed, well dressed persons as insincere and out for a photop-op. They believe and very often rightly that these people collect funds in the names of these villagers, do a high profile camera shoot and disappear.
Corporate sector with their management expertise can effectively participate in the top level management of these NGO’s yet leave the ground work to the executives of the NGO’s. The Big NGO’s are top heavy and the overhead cost is more than what goes in the fields.
Today when the Corporate sector has become as big as the state they should be a bit more responsive towards the society.
Yes there are a few sound CSR efforts by the corporate sector in India. Its still a long way when the acronym would become a common phrase in the society.
HINDUISM
Hinduism
Guess I have been reading a lot of stuff on Islam and Hiduism. Both in terms of history and philosophy. In India we who call ourselves Hindus must understand the term Hindu. Its become a misnomer for a ritualistic, paganish, religion. First and foremost Hindus must understand Hinduism is not a religion as defined by Cicero.The word religion : re =again and legre = lecture It would mean to go through again.Even the common usage of the word religiously means, to do some thing again and again as a matter of routine.The word Dharma does not have an equivalent english word. It comes close to words like "Nature", "conduct" etc.,.Hinduism is the Dharma of people who lived in the cradle of Indus valley. It was their way of living life consciously.The icon they worshipped were irrelevant. It got converted into a ritualistic polytheist paganish religion, after the invasion of Arabs and turks.People to shroud their cowardice starting looking for Gods. What was achievable only through courage and conviction they tried to achieve through Gods mercy or miracle.That started the long series of ritualistic worshipping. Worshipping and temples have been there since vedic period.That time it was in different percept. It was an altar to defuse all negativity and draw strength.It became a common refuge and escapist after the invasion and abject surrender by the weak hindu rulers during and post 12th century. Hinduism word is not to be found in any of the scriptures. But if we go beyond the word, this Dharma as defined in the Upanishads (the most relevant scriptures) is all inclusive.It is for all living being.Unlike Islam or Christianity it does not lay a pre condition that unless you convert and start worshipping a particular God or obey any particular book you can not achieve salvation.It repeatedly insists on spiritualism alone.Spiritualism is beyond any common percept of God.The Four Mahaakyas do give a glimpse of the Dharma (commonly known as hinduism). Let us pick up the most common one i.e., TAT TWAM ASI. In this statement there is no God. It only says Thou art that. That would mean we must shed our EGO alone to and understand that we are a subset of Him.This would hold true for all concerned, irtrespective of the Icons he or she is anchored to.A simple word like "Namashkar" used by all of us millions of times by all of us. How many have understood the message behind it. It is as follows : Namashkar= Namah+Akar. That is I bow (namah) to the God in your shape and physic(Akar).Such beautiful sublime eruditeness in everyday salutation. It woud be difficult to find a parallel in any other religion.Yet Hinduism today has become a symbol of derision. It has become a synonym for all that is fundamentalist,obscurantist,conservative and ancient.The so called English speaking chatterati masquerading as media has done immense harm to the percept of Hinduism. No doubt the Brahmins of India too have caused major damage over the centuries to a wonderful Dharma.These days largely the Brahmins have become irrelevant though. What is visible is lot more perceptible then what is written in the Books. The rituals have become the face of Hinduism. A whole Yuppy class has grown up in this country. The so called tomorrows leaders, passing out of the Business Management and such other colleges lately have become the visible face of India.I have interacted with a quite a lot of them. They are ashamed of being branded as Hindus.To them Hinduism is all about worshipping cows,celebrating strange festivals,being out of sync with the modern world's dog eats dog concept.Materialism and consumerism is the modern DIVA.The system is so corrupt that it also supports these percepts.A Manu Sharma or Vikas Yadav are not isolated examples. Power is all that matters.In such a world ofcourse Hinduism is orthodox, philistine and obscurantist.Regarding Islam and its effect on Hinduism in next post.
Guess I have been reading a lot of stuff on Islam and Hiduism. Both in terms of history and philosophy. In India we who call ourselves Hindus must understand the term Hindu. Its become a misnomer for a ritualistic, paganish, religion. First and foremost Hindus must understand Hinduism is not a religion as defined by Cicero.The word religion : re =again and legre = lecture It would mean to go through again.Even the common usage of the word religiously means, to do some thing again and again as a matter of routine.The word Dharma does not have an equivalent english word. It comes close to words like "Nature", "conduct" etc.,.Hinduism is the Dharma of people who lived in the cradle of Indus valley. It was their way of living life consciously.The icon they worshipped were irrelevant. It got converted into a ritualistic polytheist paganish religion, after the invasion of Arabs and turks.People to shroud their cowardice starting looking for Gods. What was achievable only through courage and conviction they tried to achieve through Gods mercy or miracle.That started the long series of ritualistic worshipping. Worshipping and temples have been there since vedic period.That time it was in different percept. It was an altar to defuse all negativity and draw strength.It became a common refuge and escapist after the invasion and abject surrender by the weak hindu rulers during and post 12th century. Hinduism word is not to be found in any of the scriptures. But if we go beyond the word, this Dharma as defined in the Upanishads (the most relevant scriptures) is all inclusive.It is for all living being.Unlike Islam or Christianity it does not lay a pre condition that unless you convert and start worshipping a particular God or obey any particular book you can not achieve salvation.It repeatedly insists on spiritualism alone.Spiritualism is beyond any common percept of God.The Four Mahaakyas do give a glimpse of the Dharma (commonly known as hinduism). Let us pick up the most common one i.e., TAT TWAM ASI. In this statement there is no God. It only says Thou art that. That would mean we must shed our EGO alone to and understand that we are a subset of Him.This would hold true for all concerned, irtrespective of the Icons he or she is anchored to.A simple word like "Namashkar" used by all of us millions of times by all of us. How many have understood the message behind it. It is as follows : Namashkar= Namah+Akar. That is I bow (namah) to the God in your shape and physic(Akar).Such beautiful sublime eruditeness in everyday salutation. It woud be difficult to find a parallel in any other religion.Yet Hinduism today has become a symbol of derision. It has become a synonym for all that is fundamentalist,obscurantist,conservative and ancient.The so called English speaking chatterati masquerading as media has done immense harm to the percept of Hinduism. No doubt the Brahmins of India too have caused major damage over the centuries to a wonderful Dharma.These days largely the Brahmins have become irrelevant though. What is visible is lot more perceptible then what is written in the Books. The rituals have become the face of Hinduism. A whole Yuppy class has grown up in this country. The so called tomorrows leaders, passing out of the Business Management and such other colleges lately have become the visible face of India.I have interacted with a quite a lot of them. They are ashamed of being branded as Hindus.To them Hinduism is all about worshipping cows,celebrating strange festivals,being out of sync with the modern world's dog eats dog concept.Materialism and consumerism is the modern DIVA.The system is so corrupt that it also supports these percepts.A Manu Sharma or Vikas Yadav are not isolated examples. Power is all that matters.In such a world ofcourse Hinduism is orthodox, philistine and obscurantist.Regarding Islam and its effect on Hinduism in next post.
Subscribe to:
Posts (Atom)