Monday, April 07, 2014

Democracy and Elections

आजकल चुनाव का मौसम है, गालियों का बाजार गर्म है। लगता है दोनो प्रमुख पक्षों ने खास चुनिन्दा लोगों को  गालियां ढुंढने का व शब्दजाल में विशेष जगह दे भाषण लिखने का निर्देश दिया है। पहले जहां चुटकियां हुआ करती थीं , वहां चोटें हो रहीं हैं। खैर भाषा व व्याकरण समय समय पर हमेशा ही बदलते रहें हैं। चुनाव जैसे विशेष पर्वों का इस परिवर्तन में खासा योगदान रहता है। 
भारत विश्व का सबसे बड़ा गणतन्त्र है। सबसे बड़ा होने के अलावा एक विशिष्ट गणतन्त्र भी है। विश्वे में कुल 36 राष्ट्रों मे तकरीबन सही गणतन्त्र है। भारत के अलावा अन्य सभी 35 राष्ट्र आर्थिक रुप से समृद्ध हैं। भारत एक अकेला गणतन्त्र है, जो विकासशील देशों की श्रेणी में आता है।
भारतीय गणतन्त्र संवैधानिक रुप से अधिकांश मानकों पर पूरा उतरते हुए भी, भैतिक धरातल पर काफी अधूरा है।
हमारा गणतन्त्र महज पांच वर्षीय चुनावी प्रक्रिया तक ही सीमित रह गया है। महज चुनाव की पीठ पर गणतन्त्र को ढोना , भारी भरकम गणेश को चुहे पर ढोने के समकक्ष ही है। चुनाव कहने भर को ही गण का तन्त्र स्थापित करने में सक्षम हो पाता है। मतदान बूथ पर गण की उंगली पर काली स्याही का टीका लगा नहीं कि उसे तुरन्त पुनर मुषिको भवः में तदबील कर अगले पांच वर्षों के लिये एक कम्बख्त की जिन्दगी जीने के लिये धकेल दिया जाता है। फिर वही ढपली कि तुम सौरे कौन हो, हम तो वी आई पी हैं, खड़े रहो दरवाजे पर फरियादी बन कर । जिस गण की भुमिका मालिकाना होनी चाहिये थी, वह तन्त्र के बोझ तले महज सुबक ही सकता है। तन्त्र की भुमिका जबरा मारे और रोने भी न दे की हो जाती है।
इस सोलहवीं लोकसभा का चुनाव सतही तौर पर मुख्यतः द्विकेन्द्रित प्रतीत होता है। एक केन्द्र बिन्दु पर कांग्रेस के गांधी वंश के उत्तराधिकारी शहज़ादे राहुल गांधी हैं एव दूसरा केन्द्र बिन्दु पर 56 के सीने वाले नरेन्द्र मोदी जी हैं। लेकिन जैसे ही हम सतह को खुरच कर epidermis  के नीचे पहुंचते हैं, चित्र के क्लेडिस्कोप सम सारे रंग व आकार गडमड हो जाते हैं और एक बिल्कुल नया चित्र उभर कर आता है। इस चित्र को उकेरने में सूत्रधार या ताश के जोकर की भुमिका में श्री अरविन्द केजरीवाल है।
तफसील से अगर बात की जाये, तो कहानी श्री चिदाम्बरम के हालया बयान से उजागर होती है।  श्रीमत् चिदाम्बरम उवाच: Modi is being supported by a big Industrialist and a Crony capitalist, by big I mean one with Capital B , Capita I and capital G. इशारा साफ साफ मुकेश अम्बानी की ओर जाता है। यानि अम्बानी जो कि नीरा राडिया को फोन पर कांग्रेस को अपनी दुकान बताते हैं, के  खिलाफ कांग्रेस के ही शीर्ष नेता श्री चिदाम्बरम बयान देते हैं कि आज वो मोदी के कर्णधार हैं।
सूत्रधार जो कि नाटक के विभिन्न अंकों को एक सूत्र में जोड़ता है, कहता है कि सरकार न कांग्रेस की बनने वाली है न मोदी कि, कुर्सी पर तो अम्बानी ब अडानी ही काबिज रहेंगे। बाकी मुखौटे के स्वरुप , राहुल गांधी का चिकना चेहरा रहे या मोदी का दाढी वाला चेहरा, सत्ता का सिरा तो ये CRONY Capitalist ही थामे रहेंगे। चुनाव में पैसे की भुमिका को देखते हुये सूत्रधार की बात शत प्रतिशत सही प्रतीत होती है।    
भारतीय गणतन्त्र के चुनाव रुपी सागर मन्थन में सुमेर पर्वत की भुमिका में पैसा है व रज्जु की भुमिका बाहुबल की है। बाहुबल संग्रह करने के लिये जात पांत, धर्म या अपराधिक मानस वृत्ति के गण अलग अलग स्तर पर अपना योगदान करते हैं। पैसे की भुमिका सर्वोपरि है। बाहुबल इससे खरीदा भी जा सकता है।
पैसे का सुमेरु हो एवं बाहुबल की रज्जु तो इस सागर मन्थन में से विकास के अमृत के घड़े के बाहर आने की सम्भावना नगण्य हो जाती है। इसमें से सिर्फ अम्बानी, अडानी व सुब्रत राय जैसे विश कलश ही प्रगट हो सकते हैं।
फिर सोनिया जी के शब्दों में सत्ता पर बैठना इस विष को गले में धारण करने जैसा ही है।
तन्त्र के सारे कल पुर्जे दोनों हाथ अर्थ संग्रह करते हैं, गण को गरियाते हैं, कानून की धज्जियां उड़ाते हैं। रक्षक की तक्षक बनने की इस से अधिक विडम्बना विश्व में कहीं भी नहीं दिखती।
गणतन्त्र मे चुनाव गन्तव्य न हो, महज एक जरिया होता है। चुनाव के तहत्, लोगों का विश्वास हासिल कर उस विश्वास की गरिमा के अनुसार गण के विकास हेतु प्रयास शील रहने में ही गणतन्त्र की अहं भुमिका है। गणतन्त्र की समुची प्रक्रिया इसी विश्वास पर टिकी है। हम , हमारे चुने गये प्रतिनिधि को हम अपनी Power of Attorney दे कर हमारी जिन्दगी के तमाम अहम मुद्दों पर फैसले करने का हक दे देते हैं।

गणतन्त्र की धुरी टिकी है, जागरुक समाज पर । समाज जो कि जानता है कि उसके लिये सर्वोत्तम क्या है, और वह उसे पाने के योग्य भी है। एक जागरुक व शिक्षित मतदाता से ही इस की अपेक्षा की जा सकती है।  भारत में जहां शायद 80% जनसंख्या गरीबी की सीमा रेखा के नीचे आती हो, जहां महज अपना नाम भर लिखने की काबिलियत से लोग साक्षर हो जाते हैं, से ऐसे समाज  की अपेक्षा करना निरर्थक है। यनि गण के तन्त्र को हृष्ट पुष्ट बनाने के लिये जिस उर्वर जमीन की आवश्यकता होती है, वह हमारे पास नहीं है। विश्व के अन्य 35 राष्ट्रों में गणतन्त्र के आगाज से अन्जाम होने के बीच एक लम्बी गर्भावस्था रही है। भारत विश्व का अकेला राष्ट्र है जहां स्वाधीनता के पश्चात, गणतन्त्र seamlessly स्थापित हो गया था ।  लेकिन बिना gestation के जिस stillborn गणतन्त्र ने भारत में जन्म लिया है, आज उसका स्वरुप अत्यधिक विकृत हो चुका है। आज तन्त्र पूर्णतयाः  स्वयंजीवी हो गया है और उस ने  आम आदमी के मालिकाना हक को छीन कर उसे बेचारा बना दिया है।