Saturday, June 23, 2007

उसकी आवाज

उसकी आवाज
वह मेरी प्रेयसी की आवाज थी
उस आवाज में थे
जीवन एवं जीवनेतर
तमाम खुशियों के वादे
उस आवाज ने मेरी जिन्दगी में
Kaleidoscope के तमाम रंग भर दिये
जिन्दगी वही
लेकिन अब हठात्
जिन्दगी कि कठिनाईयां तमाम
शेष हो गयी थी
क्यों,
क्योंकि
अब हांलाकि राह वही
राहदारी (toll tax) वही
लेकिन मंजिल बदल गयी थी
अब मुझे जाना था क्षितिज के पार
अपनी प्रेयसी के घर
और,अपना घर,
अपना घर तो अब मैंने फूंक दिया था
पहले धूप मे ,बारिश मे ,आंधी मे ,तूफान मे
घर की छांह काम आती थी
अब तो धूप है न बारिश
अब तो है सिर्फ एक शीतल बयार
इस बयार में है मेरी प्रेयसी के आवाज की प्रतिध्वनि
हां अब मूझे जाना है
अपने प्रिय के घर
और इस हेतू
गोस्वामी की नाईं
अब अर्थी नाव बन गई थी
और सांप भी रस्सी
अब कहीं कोई दुर्गमता
या अलभ्यता नहीं रही थी बाकी।

Thursday, June 21, 2007

Yakhsa

यक्ष

मुझे नित्य ही मृत्यु की सजा मिलती है।
नित्य ही मेरा यक्ष से होता है सामना
मैं कोई युद्धिष्ठिर तो हुं नहीं
कि उत्तीर्ण हो पाउं
अतएव हर रोज मुझे मृत्यु की सजा ही मिलती है।
नित्य ही मेरा कुछ न कुछ मर जाता है।
अब कल ही यक्ष ने मुझसे पूछा
सत्य क्या है।
मैने टालने हेतु
शंकराचार्य के हवाले से कहा
इस मिथ्या जगत में भला
सत्य की क्या हस्ती।
कि बताउं
सत्य क्या है।
तब यक्ष गुर्राया
तुम भारी नाम के पार्श्व से
खेल रहे हो आखेट
सामने आओ या
मृत्यु का करो वरण।
मैं हिम्मत बांध बाहर आया
मन्द मन्द मुस्कुराया
बोला
इस प्रश्न का उत्तर काफी सघन है।
सुन पाओगे, झेल पाओगे इसकी विभीषिका
तो सुनो
यह द्वापर नहीं कलियुग है।
इस प्रश्न के उत्तर के लिये
पहले भिन्न भिन्न सत्य को पहचानो
पहला सत्य वह है
जो अदालत में शपथ लेकर बतलाया जाता है।
दूसरा सत्य जो थाने की डायरी में दर्ज़ पाता है।
तीसरा वह जो मन्त्री मुख से
जनता को परोसा जाता है।

फिर मृत्यु के भय से मैंने
समुचित उत्तर ग़ोएब्बेल्स की धुरी से दिया
“कि आज हर वह संवाद जो
निरन्तर और शक्ति के साथ दोहराया जाये
सत्य है”
इसीलिये सिर्फ अशक्त लोगों के हिस्से ही
आती है मिथ्या
कौन भला कौन सुनता है
उनके हिस्से के शब्द
आज यहां निरुत्तर जिन्दगी ही सत्य है।
उत्तर तलाशने की प्रक्रिया में
मृत्यु के वरण की सम्भावनाएं हैं
निश्चित।
इसलिये
जिन्दगी को जीने के लिये
इस कलियुग में पहन लिये हैं, मैने
कर्ण सम संवेदनहीनता के कवच कुन्डल
और इसी तहर
अब हर रोज मैं तुम्हें भी झेल पाता हूं।
और अब नित्य कुछ कुछ मर कर भी
आंशिक ही सही लेकिन जिन्दा हूं

Wednesday, June 20, 2007

Me

मैं और मैं

मैं जानता हूं कि
मैं, मैं नहीं।
मैं वह हूं
फिर भी
मैं अपने
अहम् के दरवाजे के इस तरफ खड़ा
अपने स्थूल मैं, में
स्थिर हो, रह गया हूं ।
मेरी इस स्थूल से सूक्ष्म
की यात्रा में
मुख्य अड़चन मेरे सुशुप्त पन की है
मैं आजतक
तमाम दिशा संकेतों से अनभिज्ञ
खुद अपने ही अहम् की उंगली थामे
एक वृत्ताकार दिशा में
निरन्तर चल रहा हूं
यह वृत्ताकार यात्रा तो
कालातित, अनादि और अनन्त है
और इस वृत्ताकार यात्रा में
दिन ढ़ले तक की तय दूरी
सदा शून्य ही होती है
अब शून्य displacement के अन्तर्गत
ढेर सारी उर्जा के क्षय पश्चात भी
Work done की मात्रा
तो शून्य ही रहेगी।
हां इन्तज़ार है उस क्षण का
जब मेरी अहम् की खुमारी टूटेगी
और मैं अपने उस रुप से रुबरु हो
Displacement का पहला कदम
बढ़ा पाउंगा
हां खुली आंखों को ही
गन्तव्य भी होगा परिलक्षित
और तब अनावृत्त दिशा संकेत
मार्ग दर्शक बन
Energy conservation के नियमों की परीधि में
भक्ति और ज्ञान को शक्ति में बदल देंगे
मेरी यात्रा
मेरी यात्रा का अन्तिम पड़ाव
तो तत् त्वम असि है
जहां परमाणुवीय E = MC² सिद्धान्तानुसार
मेरा पुरा का पुरा मैं, ही
शुद्ध उर्जा में रुपान्तरित में हो जायेगा।

Monday, June 18, 2007

मेरा राम

पहले मेरे गांव तक
सिर्फ एक पगडंडी आती थी
इस पगडंडी पर से लोग पैदल ही आते जाते थे।
लोगों के कंधों पर होते थे
छोटे छोटे थैले
जिनमें होती थी छोटी छोटी इच्छाएं
कुछ बहुत ही छोटे छोटे इरादे।
तब हमारा सूरज भी
जापान से नहीं
पिछवाड़े की पोखर से ही उगा करता था ।

लेकिन अब
हां, अब तो मेरे गांव तक पक्की सड़क आ गयी है।
इस सड़क के रास्ते
वाहनों में भर भर कर
आधुनिकता की
एक नयी फिज़ा भी आ रही है।
अचानक एक दिन मेरे गांव
एक ट्रक भी आया था इसी सड़क से
मेरे गांव में ट्रक का आना
चौधरी के दरवाजे कुछ पेटियां उतारना
और चले जाना
मेरे गांव के लिये एक अभूतपूर्व घटना थी।
कौतुहूलतावश जब चाचा चौधरी से पुछा
तो पता चला
कि आधी पेटियों पर पाने वाले के खाने में
मेरे गांव के पुजारी का नाम था
और बाकी आधी पेटियों पर
मेरे गांव की मस्जिद के मौलवी का नाम था
किन्तु गौर तलब बात यह थी कि
सारी पेटियों पर प्रेषक के खाने में
एक ही नाम था।
किसी एक ने एक ही मन्तव्य से
अलग अलग गन्तव्यों पर
भेजी थी बराबर बराबर एक सी ही पेटियां।

कुछ ही दिनों में
मेरे गांव की फिज़ा में एक बिल्कुल नयी मह्क थी।
मेरे गांव की मस्जिद का मौलवी
मेरे बचपन का साथी
जो विगत कई वर्षों से
हर सुबह मुझसे मिलता
अपने कुरान वाले हाथों को ऊपर उठा कर
मुझसे राम राम करता
और मस्जिद की ओर चल देता ।
तब उसके हाथों में कुरान
मुंह में राम
और चेहरे पर एक नूर हुआ करता था।

हां आजकल भी हर सुबह वह दिखता है।
लेकिन अब उसके चेहरे पर
दोस्ती का नूर नहीं
एक अजनबी पन का एहसास रह्ता है।
अब हाथों में कुरान नही
अविश्वास की बैशाखी है
मुंह में राम नहीं
एक चुप्पी है।
हां मेरे बचपन का साथी अब गुंगा हो गया है।
और अब इस सड़क के रास्ते आयी
आधुनिकता के धुंधलके में
मेरी हर सुबह का राम मुझसे खो गया है।

Sunday, June 10, 2007

One and Zero

इकाई
हां मैं ढ़ुंढ़ रहा था एक इकाई
वही इकाई जिसके पीछे शून्य भी खड़े हों
तो भी संख्या दहाई, सैंकड़ा, लाख कुछ भी हो सकती है।
हां,शुन्यों के ढ़ेर में
बहुत ढ़ुंढ़ने के बाद मिली मुझे एक इकाई,
लेकिन खड़ी इकाई के खाने में।
मैंने विष्मय से पुछा।
क्यों भई इकाई, इस अन्तिम पंक्ति में क्यों हो
अग्रिम पंक्ति में आओ
और नजदीक खड़े शून्यों को भी सार्थक बनाओ।
इकाई ठिठकी , सुबकी, सहमी बोली
नहीं
मै यहीं ठीक हूँ।
क्यों?
क्योंकि शून्यों ने अब बांध ली है जमात
और मुझे धकेल कर खड़ा कर दिया है इकाई के खाने में।
क्यों? ऐसा क्यों,क्या वे सार्थक नहीं होन चाहते।
नहीं
सार्थक जिन्दगी उन्हें बोझिल लगने लगी है
और उन्होंने निरर्थक जिन्दगी को ही जीना मान लिया है।

Thursday, June 07, 2007

मुर्दों का शहर

यहां तुम किसे आवाज दे रहे हो
यह तो मुर्दों का शहर है।
जबकि बढ़ना ही जिन्दगी का
एक मात्र प्रतीक चिन्ह है।
इस शहर के लोगों ने
एक अरसे से बढ़ना छोड़ दिया है
क्यों, क्योंकि वे कब के मर चुके हैं।
और निरन्तर मुर्दे की नांई घट रहे हैं।
मुर्दे की पहले चमड़ी जाती है
फिर मांस और फिर हाड़
इसी तरह इन लोगों ने पहले
तहज़ीब खोयी , फिर तमीज़
और आखिर में अपनी पहचान भी खोयेंगे
लेकिन ये मरे कब और कैसे
एक दिन हठात्
भौतिकवाद के वियोग चिन्ह ने
इनकी जिन्दगी के समीकरण के
तमाम चिन्ह बदल दिये
अब योग वियोग हो गया
और वियोग, योग
और अब इन लोगों ने
निरन्तर घटने को ही बढ़ना मान लिया है।

Friday, June 01, 2007

अनुभव

अनुभव अधिकतर दुःस्वप्न से
कड़वे
कसैले
मातें
घातें और
अन्धेरी रातें
फिर भी इन सबको हर्ष से स्वीकारा मैने
क्योंकि इन सबमें से बीना मैंने
साहस का ताना
आत्मविश्वास का बाना
और बुन ली एक पुरे आस्तित्व की चादर
गोकि तुम्हारे साथ थी
सजीली रातें
मीठी बातें
अनगिनत सौगातें
क्या बिन पाये तुम इनमें से
कमजोर इरादे
अनहद मुरादें
और VIAGRA ढुंढता
एक जाली सा बेवजूद व्यक्तित्व
मनुष्य की जिन्दगी युं नहीं जीयी जाती बन्धु
काश तुमने मनुष्यता के प्रमुख के अवलम्ब
बुद्धि को अपना सारथी बनाया होता।
यह तो एक पाशविक विलाशिता थी
जब बुद्धि पर तुम्हारा मस्तिष्क हावी था।
और तुम सफल हो कर भी
कभी खुश नहीं हो सके
तमाम
साजो सामान
वृहद अरमान
उंचे सम्मान
फिर भी कुछ ऐसा था
जो तुम्हें मिला ही नहीं
और तुमने निर्धनों की मौत ही पाई।
और अब जो बाकी है तुममें
वह मनुष्य नहीं
सिर्फ एक, एक आयामी समीकरण है
और एक आयामी समीकरण में तो
चौड़ाई और गहराई से नावाकिफ
सिर्फ लम्बाई ही होती है।