तुम्हारी कविता
आज मैं तुम्हारी कविता पढ़ रहा था
हां वही पद
जो तुमने पेड़ों पर खिलाये
तालों में भरे
और कहीं सागर की लहरों पर थिरकते पद
फिर शायद इन्हें पढ़ते पढ़ते
मैं इन पदों में तुम्हें तलाशने लगा।
नदी पर सूर्य के प्रतिबिम्ब में पाया
तुम्हारे होने का एहसास
पक्षियों की कलरव में भी
तुम्हारी आवाज
पुष्पित पौधों की सुगन्ध में था
तुम्हारा सौरभ
लहलहाते खेतों में था तुम्हारा स्वेद
आषाढ़ के मेघों के इन्द्रधनुष में थे
तुम्हारे रंग
तुम्हारी छाया तो सर्वप्त व्याप्त थी
तुम कहीं नजर नहीं आये
तुम्हारे नहीं मिलने से उदास
जब आईने में अपना चेहरा देखा
तो,तुम नजर आये
अब तुम्हारी कविता जहन में उतरी
और पाया कि
तुम्हारे होने या न होने की वस्तविकता
तो मेरे होने या न होने
के साथ ही जुड़ी है
मैं और तुम एक दूसरे के पूरक
परस्पर एक दूसरे को धरातल प्रदान करते हैं
मैं जैसे ही अपनी ओर मुड़ता हूं
तुम्हारा अक्स मेरे अन्दर
उतर आता है
और फिर आईने में
मैं नहीं तुम नजर आते हो।
1 comment:
कुल्दीप जी,सुन्दर रचना है-
मैं जैसे ही अपनी ओर मुड़ता हूं
तुम्हारा अक्स मेरे अन्दर
उतर आता है
और फिर आईने में
मैं नहीं तुम नजर आते हो।
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