मैं और वह
मैं अज्ञ
वह सर्वज्ञ
फिर भी वह मेरे साथ साथ चला
ठीक रेल की पटरियों की नाईं
साथ साथ लेकिन पृथक
मैने तो जिन्दगी के तमाम रंग सेये
कभी हर्ष से हरा हुआ
कभी अवसाद से पीला
कभी जीत के उन्माद में
पेड़ों से उंचा उठा
कभी हार के उत्ताप उत्ताप से तिनके सा नीचे झुका
उसने देखा मेरी जिन्दगी को
चलचित्र की नाईं
और निर्विकल्प
अपने ज्ञान चक्षुओं से सिर्फ मुझे घूरता रहा
उसे पता था कि यह सारे रंग
ये सारे आकार तो पर्दे के नहीं Celluloid के हैं।
और पर्दे तो ये सिर्फ छायाओं का खेल है
और पर्दे पर भी इनका आस्तित्व
Hall के अन्धेरे के साथ ही जुड़ा है।
जिस दिन Hall उसकी रोशनी से जगमगाया
उसी दिन उसी क्षण
ये सारे रंग ये सारे आकार गायब हो जायेंगे
वह यह सब जानता था
और मैं इन सबसे अनभिज्ञ
कभी हँसा कभी रोया
वह तो यह भी जनता था कि
अगर मैं और वह मिल गये
तो यात्रा तुरन्त समाप्त हो जायेगी
मैं विमूढ़ बस सिर्फ साथ साथ चलता रहा
1 comment:
कुलदीप जी,अच्छी रचना है।बधाई।
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