Sunday, June 10, 2007

One and Zero

इकाई
हां मैं ढ़ुंढ़ रहा था एक इकाई
वही इकाई जिसके पीछे शून्य भी खड़े हों
तो भी संख्या दहाई, सैंकड़ा, लाख कुछ भी हो सकती है।
हां,शुन्यों के ढ़ेर में
बहुत ढ़ुंढ़ने के बाद मिली मुझे एक इकाई,
लेकिन खड़ी इकाई के खाने में।
मैंने विष्मय से पुछा।
क्यों भई इकाई, इस अन्तिम पंक्ति में क्यों हो
अग्रिम पंक्ति में आओ
और नजदीक खड़े शून्यों को भी सार्थक बनाओ।
इकाई ठिठकी , सुबकी, सहमी बोली
नहीं
मै यहीं ठीक हूँ।
क्यों?
क्योंकि शून्यों ने अब बांध ली है जमात
और मुझे धकेल कर खड़ा कर दिया है इकाई के खाने में।
क्यों? ऐसा क्यों,क्या वे सार्थक नहीं होन चाहते।
नहीं
सार्थक जिन्दगी उन्हें बोझिल लगने लगी है
और उन्होंने निरर्थक जिन्दगी को ही जीना मान लिया है।

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