युद्ध
हाँ मैं कभी हारा नहीं
मेरे हर अन्त में थी एक अनन्त की प्रतिध्वनि
और मेरे हर मरुस्थल में तुम
चौमासे की तरह आये
कभी सोचता हूँ की
सत्य तो यह है कि
कबीर* सम जब तलक तुम नहीं हारो
तो मैं कैसे हारुं
हाँ तुम हारो, तो मैं हारुं
हर सुबह जिन्दगीं का सुरज उगा
और शाम
हर,शाम ने जब जैसे
सुरज की तमाम किरणें समेटी
तुम भी बस उसी तरह
मेरे मानस में सिमट आए
जिन्दगीं के हर क्षण में
तुम्हारी पद्चाप सुनी मैंने
हालांकि कभी ढुंढा नहीं तुम्हें
फिर भी तुम्हारी उपस्थिति का आभाष
हमेशा रहा आस पास मुझे
जब कभी मेरे कक्ष में
किसी अंधेरे ने किया प्रवेश
तुम्हारी किरणों नें बिजली सा कौंध
किया उस अंधेरे का अपहरण
जब कभी अशक्त हो लड़खड़ाया
तब सहारे स्वरूप तुम्हारा ही कन्धा पाया
हाँ लड़ाईयाँ कभी जीती कभी हारी
लेकिन युद्ध कभी कोई हारा नहीं मैंने
Yes I never lost
You came as infinite in all my ends
And you came as monsoon in
All my deserts
Sometimes I think that unless you lose
How can I lose
Yes I would lose only if you’d lose
Every morning the sun of life arose
And evenings
Yes , In the evenings as the Sun gathered
All its rays
You also got assimilated in myself
In every moment of my life
I heard your footsteps
Though never looked for you
Yet I could feel your presence always
Whenever any darkness entered my room
Your rays whisked it away
In all my weak moments
It was your shoulder alone I could locate
Yes I did lose several battles but never lost a war
~ Kuldip Gupta ~
*(Kabir has said at a place that I would die if and only if you i.e, god dies)
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