Tuesday, May 29, 2007

Desire

उत्कण्ठा
क्या तुम भी मुझे
उतना ही चाहते हो
जितना मैं तुम्हें चाहता हूँ।
क्या मुझसे मिलने कि
तुममें भी हो वो उत्कण्ठा
जो मुझ में है।
कभी सोचता हूं कि
क्यों तुम तक चलूं
क्या पाउंगा तुमसे मिलकर
शायद यह तुम्हारी उत्कण्ठा का
आकर्षण है,जो चुम्बक सम
मेरे अणुओं का ध्रुवीकरण कर रहा है
और मैं स्वचालित सा
तुम्हारे आकर्षण से बद्ध
तुम्हारी ओर खींचा जा रहा हूं।
कभी सोचता हूं
कि काश मैं कबीर बनूं
अपनी धूरी से जुड़ा
ताना बिना गिनता
निःस्पन्द अपनी जगह पर खड़ा रहूं
और तुम निर्बल हो मुझ तक खींचे चले आओ।
और मेरे करघे के ताने बाने में उतर जाओ।
हां तुम, मुझसे मिलकर
निश्चित ही जीवन्त हो जाओगे।
मुझसे मिलकर जरूर कुछ पाओगे
निर्गुण से सगुण हो
एक से अनेक हो
निराकार से हो साकार
हाँ, तुम सशक्त हो जओगे
मुझसे मिलकर
हां मुझ से मिलकर ही
तुम कर सकोगे कंस का वध
और लंकाधिपति के अहंकार का विनाश्।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

यह रचना भी अच्छी है।बधाई।