Sunday, September 29, 2013

Props in support of one’s Identity.




Today while on road I saw a BMW car with a Registration Plate showing number as 0001,ahead of me. As I was standing on a traffic signal, I could not fail to notice this car. These single digit numbers are available to “VIPs”, courtesy their string pulling capacity or to money bags against Bidding.
What’s special about it. I do see it quite often on Bhubaneswar roads.  Today it touched a particular chord and struck a note.
Why do people buy Expensive cars.  Is it to define their personality? Or to announce to the world that they have “arrived”. Come to think of “arrived” would mean arrived at a particular altitude wherein he/she can see the world and the world can see him.
My take is if one had to announce that one has achieved an altitude, it would inadvertently mean that the altitude achieved by the one is not visible to the people standing on the terra firma. If a person is standing on a summit, people would have to crane their neck to see him and there would be no necessity of shouting hoarse about it.
Even seemingly plebeians Cars are good for ferrying a person to his destination.  People need Pricey cars to augment their personality and not for mere ferrying.  This would obviously mean that their personality has become subservient to their “Automobile”.
Then again the Single Digit or the VIP number plate.  Pulling strings or Paying Big Ticket money for such  meaningless objects  like number mentioned on Number Plate shows a serious deficit of self esteem.
Besides can such “Toys” really act as Viagra for the “spinal erectile deficiency syndrome”.
How so much money one may have, yet there would be something that he would not be able to afford.
The “Viagra” effect of these Toys indeed would have a very “Small Time Span”.
Yes as per an obnoxious TV ad being aired these days the ONE may say “बन्दर क्या जाने, अदरख का स्वादMaybe what you say is true, my only query is “DO YOU” 
     
   

Wednesday, August 28, 2013

कविता का वेताल




आजकल कविता वेताल सम
अनचाहे ही कन्धे पर
सवार हो जाती है।
वेताल सम प्रश्न उठाती है
एवं उत्तर न दे पाने की अवस्था में
एक बार फिर पेड़ से उतर
मेरा कन्धा तलाश लेती है।
वो सामन्य से दिखने वाले प्रश्न भी
मुझे अक्सर निरुत्तर कर देते हैं।
अब जैसे कल ही का प्रश्न था
क्या समझौता ही जिन्दगी का पर्याय है?
मैं उत्तर नहीं जेब टटोल रहा था कि
बाबा अठन्नी लो और दूर हटो,
बोहनी हो जाये
फिर सोचुंगा कि समझौता या आस्था
जिन्दगी को जीने में
किसका वजूद भारी है।
नहीं ली अठन्नी कविता के वेताल ने
फिर आ बैठी कन्धे पर।

फिर मैं तो सांझ तक
सिर्फ बोहनी टोहता रहा
लेकिन कन्धा मेरा उसी वेताल को ढोता रहा
दिन सारा खोटा हुआ
इस वेताल को ढोने पर
और आखिर सूरज ढलने पर
कविता का वेताल तो पेड़ पर चढ गया
और मैं एक अद्धा चढा
रोज की तरह स्वय से लड़ गया॥
अब आज फिर सुबह
दुकान खोल, गल्ले को धूप दिखा
बैठा हूं
एक बार फिर बोहनी की तलाश में
कन्धा  आतंकित है
कविता रुपी वेताल की आशंका से
उसके प्रश्नों से
कहीं आज
फिर एक नया प्रश्न
ले पुनः न आ धमके॥
अब कन्धा पूछ रहा है
कि साफ बताओ क्या ढोऊं मैं
तुम्हारा ये वेताल या तुम्हारी दुकानदारी। 

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Sunday, July 14, 2013

Hinduism and Nationalism

भारत में धर्म की प्रधानता पर बल देते हुये श्री अरविन्द घोष ने 1909 में अपने उत्तरपाड़ा के भाषण में कहा था जब यह कहा जाता है कि भारत महान बनेगा तब इसका अर्थ होता है कि सनातन धर्म (हिन्दुत्व) महान बनेगा।जब भारत अपना विस्तार करेगा तब इंगित होता है कि सनातन धर्म अपना विस्तार कर सारे विश्व में फैलेगा। भारत धर्म के लिये एवं धर्म से ही जीवन्त है। धर्म की व्याख्या में ही राष्ट्र की व्याख्या भी है।
अरविन्द ने कहा था कि उनके जेल प्रवास के दौरान उन्हें ईश सन्देश प्राप्त हुआ था। वह ईश सन्देश श्री अरविन्द ने अपने शब्दों में बताते हुये कहा था मैं एक लम्बे अरसे से इस आन्दोलन की परिकल्पन कर रहा था अब समय आगया है कि मैं इसका बीड़ा उठाउंगा और इसे सफल बनाउंगा। अपने भाषण की समाप्ति पर उन्होंने अपने मुख्य कथ्य को दोहराते हुये कहा अब और मैं नहीं मानता कि राष्ट्रवाद एक सोच है और धर्म एक आस्था। अब मैं मानता हूं कि सनातन धर्म ही राष्ट्रवाद है। इस हिन्दु राष्ट्र का प्रादुर्भाव सनातन धर्म के साथ ही हुआ था,सनातन धर्म  ही इसे गति देता है एवं इसका उत्थान भी इसी के उपादान से ही होगा। अगर सनातन धर्म का पतन होता है तो राष्ट्र का पतन भी निश्चित है।
हां यह भी सही है कि महर्षि अरविन्द घोष का सनातन धर्म से आशय एक सार्वभौमिक एवं शाश्वत धर्म था कोई संकीर्ण सम्प्रदाय या पन्थ नहीं। उनका कहना था कि जो धर्म सार्वभौमिक नहीं वह कभी भी शाश्वत हो ही नही सकता। उनका कहना था कि एक संकीर्ण धर्म अल्पायु वाला होता है एवं इसका ध्येय भी अति संकुचित ही होता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि  अच्छाईयों एवं बुराईयों से परे हमारी शक्ति हमारे धर्म से ही जन्म लेती है। आप इसे बदल नहीं सकते,न ही इसका विनाश कर सकते हैं।
भारत के इतिहास में धर्म की विशेष भुमिका रही है।सनातन धर्म या जिसे आम तौर पर हिन्दु शब्द से पहचाना जाता के तहत् जितना साहित्य रचा गया है, यह विश्व के अन्य सब धर्मों की सामुहिक सम्पदा से भी अधिक है।
यहां धर्म ने समाज के सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। भारत के सामाजिक या राजनैतिक नेता गणों का उल्लेख होने से जो नाम तुरन्त जबान पर आते हैं,वो हैं गोखले,तिलक,राणाडे आदि। हांलाकि इनका कार्य क्षेत्र मुख्य रुप से  समाज सेवा रहा था तथापि ये गहन् तौर पर धार्मिक व्यक्ति थे। इन्हीं की श्रेणी में सन्त ज्योतिबा फुले या दक्षिण में नारायण गुरु ने समाज से धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों के खिलाफ आन्दोलन किया।
आनन्द मठ में बंकिम चन्द्र ने राष्ट्र को ईश रुप दे भारत माता मन्दिर की स्थापना की परिकल्पना की थी। राष्ट्र को आराध्य बनाना सनातन धर्म की पुरानी परिपाटी रही है। पांच हजार साल पहले वाल्मीकि ने रामायण में लिखा था “जननी जन्मभुमिश्च,स्वर्गादपि गरीयसि यहीं से जन्मभुमि आराध्य बन जाति है एवं राष्ट्रवाद का धार्मिक रुप आकार लेता है। बंकिम बाबु ने इन्ही उद्गारों को जन समुदाय तक पंहुचाने का काम किया। अपने चिर परीचित गीत बन्देमातरम् में भारत माता के वर्तमान रुप को कालि के रुप में दिखाते हुये कहा कि देखो इस के पास वस्त्र नहीं है एवं इसने अपने आप को मुण्डमाल से सज्जित किया है। भावी रुप को दिखाने के लिये वैभव एवं सुन्दर रुपवान लक्ष्मी को दिखाया और कहा हमें ऐसा भारत निर्माण करना है। इन सारे कथनों से राष्ट्रवाद व हिन्दुत्व के सामंजस्य के प्रारुप की छवि उभर कर आती है।
यह सारा कथ्य गांधी के उद्धरण के अभाव में अधूरा रहेगा।गांधी जी ने कहा था कि स्वाधीनता संग्राम उनके लिये मोक्ष प्राप्ति के मार्ग का एक पड़ाव मात्र है। राजनीति उनके लिये उनकी धार्मिक जीवन का महज् एक अंग मात्र है। उनके लिये धर्म के बिना राजनीति सम्भव ही नहीं है। धर्मविहीन राजनीति तो मृत्युद्वार है। बिना धर्म के की गयी राजनीति मनुष्य की आत्मा की हत्या कर देती है।

आखिर में स्वामी विवेकानन्द से अपने कथन को समाप्त करते हुये कहना चाहुंगा कि धर्मनिरपेक्षता एवं धर्मविहीनता मे अन्तर होता है।स्वामी जी ने कहा था धर्म और सिर्फ धर्म ही भारत का जीवन रहा है।बिना धर्म के भारत की मृत्यु निश्चित है।    

The Pink Daily Journalists of India.



There is no dearth of diatribe in both the formal news media (specially in Pink Dailies) and the social media about the Corporate sector exploiting and or maltreating the proletariat or the workmen. The “Jholachap” intellectuals nonchalantly continue this barrage.
One thing about this group is almost certain, that their perceptions about the ground realities is as limited as that of PAPPU.
There are about 400 million people in India who can be broadly classified as workmen. Of these about 7%  are in the organized sector i.e. drawing Provident Fund. By and large this segment is largely unionized too. The rest 93% belong to the unorganized segment who can be classified as Children of Lesser God.
It is nearly impossible to exploit these workmen that form this 7% organized workmen slice. Rather  I would like to quote Choudhary Charan Singh on the subject. He said “Trade Unions in this country are holding the nation to ransom.”
The sort of job security that is available to the organized Industrial Workmen through the Industrial Disputes act and its implementation, it becomes nearly impossible to discipline these workmen. As a result Trade Unionism has devolved into hooliganism in this country.  The labour policy is certainly Employee friendly but not “Employment friendly”.
This has resulted in stagnation in absolute employment numbers in manufacturing sector. Whatever miniscule growth that India has been crying hoarse about is in service sector courtesy Lord Maculay and his education policy.
But a poor country needs a major growth of manufacturing sector to render employment to millions being added to population every year. All the brouhaha about having a large Young population in Indian demography is meaningless, when we have lakhs of qualified Engineers as unemployed. There were about 100 MBA graduates applying for post of Grade 4 workmen in Indian Railways recently. Post graduates queue up to join as temporary ‘Safai Karmachari’ grade workmen in a municipality in Kerala.
India needs a Major Labour market reform to boost up its Manufacturing sector. It has to make the policy “employment friendly” shift from the current  “Employee Friendly”. Today in the “Employee Friendly” environment, Corporates are wary of employing Workmen. They are motivated to do mechanization, automation and all other trappings just to curtail the number of workmen. A mechanization or automation in the  Industry would make it more capital intensive industry. Yet everyone is wary of employing extra hands.
I have personally interacted with several large PSU senior executives. Nearly all have admitted that entire running of the plant has been outsourced to the contract workers. One example NALCO a Maha Ratna corporate has about 4000 permanent workmen in one of its unit. This is the actual requirement of workmen to run the plant. Each workman’s cost to company is about Rs.1.25 lakhs/month. They draw this BLOATED  salary and DO NOT WORK. The entire running of the plant has been outsourced  to labour contractors who employ another 4000 contract workmen. Strictly as per law it is illegal to engage contractual workmen for perennial nature of workmen. These contractual workmen time and again agitate demanding regularization of their employment. It is a Catch 22 situation. The day their jobs get regularized, they will stop working.  Management will have to hire another 4000 contract workmen to run the plant.
More or less this is the situation in all the large PSU’s. One look at the pay scale of the Industrial workmen  of any such Large Scale  Units would reveal that tales  of exploitation are  absolute naïve in nature.
Violence has become a tool for collective bargaining. Recently  a senior HRD executive was burnt alive by the workers in a trade union and management meeting at Maruti Plant at Manesar. Certain Pink Daily journalists spin a theory that this violence was orchestrated by Management. They themselves killed their HRD executive to discredit the Trade Union.
It reminds me of certain elements in Pakistan who have been suggesting that entire episode of Malala has been orchestrated by the RAW or Mossad or  CIA with an active connivance of the victim.
Talking about labour laws, there is a particular chapter VB in ID Act, which envisages that an Industry employing more than 100 workmen (that includes supervisors too) needs to obtain permission from Government to close down or  retrench it’s workmen. Governments in India never give this permission. If management of a unit finds its unit financially unviable and would like to downsize its employment to make it viable or close down the unit, they are prohibited from doing so.  It beats all common sense. If article 19 permits me to start a business, conversely I must have the right to quit it also. Government in its populist stand does not think so. This encourages Corporates to keep their strength below 100 by any covert mean or automation.
The way to make the policies employment friendly and to boost the manufacturing sector, certain bitter route corrections are needed.
1)      Scrap Chapter VB. Closing a unit must be an independent decision of the management of all colour and hue without any number ceilings.
2)      Permit contract employment in perennial nature of work. This involves making the de facto into de jure and little else.
3)      Allow to replace five percent workmen without any cumbersome disciplinary  proceedings.
4)      Jack up the minimum wages substantially, to render succor to the workmen.
Caveat: An Industrial Relations Bill was drafted about Two Decades back. No Government irrespective of Political affiliation has had the courage to table it in Parliament for debate.
The English speaking Chatterati aka Leftist brigade in India would always oppose any move that can India get rid of its poverty. It would reduce their grazing ground. 

Tuesday, July 09, 2013

चिंगारी और कविता




सायरन बजता है
सुरज ढलता है
और Boiler बुझा
दिहाड़ी मजदूर
चल पड़ता हैं
निश्चिन्त
कि आग तो बुझ गयी है
हां भट्टी में बस थोड़ी आंच है
जो थोड़े समय में
स्वतः ठण्डी हो ही जायेगी।

लेकिन तब भी Boiler की भट्टी में
बुझी राख के नीचे
अधजले कोयलों के बीच बची रहती है आग।
किसी हवा के झोंके की इन्तजार में

हां सुरज ढलने के बाद
कभी कभी
निःश्ब्द रातों में
अचानक बहती है हवा
उड़ती है राख
और धधक उठते हैं
सुलगते कोयले फिर से

बहना तो हवा की नियति है
लेकिन कब राख पर काबिज हो
और उड़ा दे राख को
इसमें उन कोयलों का
कोई नहीं है श्रेय

उन धधकते कोयलों से
निकलती हूंई चिंगारियां
स्फुलिंग की उर्जा लिये
मेरे जेब में रखे सफेद कागज को
अक्सर राख कर जाती हैं
मैं उस राख को समेट
मन्च से बिखेरता हूं
और तालियां बटोरता हूं।
सोचता हुं कि इस राख में मेरा क्या है
ये तो हवायें जो कभी बहती हैं
उत्तराखण्ड से, कभी बस्तर के जंगल से
और कभी गोधरा से
कागज तो ये जलाती हैं, राख बनाती हैं
हां अगर कुछ श्रेय या देय है
तो  है Boiler में दबी आग का
लेकिन वे ही चिंगारियां
मेरे मित्र की जेब में
बैंकों से मिले हरे कागजों को
जला नहीं पाती
 शायद उनपर रिजर्व बैंक के promissory note
के साथ
नैन दहति पावकः
का उद् घोष भी छपा है।