Tuesday, September 30, 2008

The First family goes to see a Movie (A Satire)

Mom ,mom lets go for a Movie. It was a leisurely Sunday afternoon. Children had been nagging, to take them to a movie.

Thence the Madam yielded and took them to a movie in one of the several multiplexes doting in and around Delhi. As she was already late she bought the tickets and entered the hall without much enquiry. The children started howling as soon as the movie began. Lo and behold, it was a foreign movie with subtitles. They could not understand the foreign movie and started shouting "what’s this mom. We can’t understand a word of it. Lets have popcorn and leave". Madam feeling exasperated got ready to leave and approached the manager asking for a refund of the ticket money i.e,100x3=300/-.

She asked the Manager "why it was not mentioned on the ticket counter that it was a foreign movie?" Manager "it is understood that people knew about the movie when they bought the tickets. Besides there were subtitles in English and hence she and her kids should not have any difficulty in understanding". Madam said “what humiliation. Don’t you know who I am? Even the country’s top Model Mr AB endorsed that we were the Rajas. He endorses Cadbury and you accept it to be a great chocolate. When he endorsed that we are the RAJA’s why don’t you accept that too. My children did not and need not go to school. They do not know how to read and write. They are born for just one task, that’s to do RAJ over India. Have you forgotten merely a few days back my Son had clarified that 1992 Babari Fiasco would not had taken place if He or Me or My Daughter were the Prime Minister in 1992. Yet you do fail to understand that this nation has no foot to stand on, if someone from our family is not in the CEO’s seat.”

If there was no need to prepare a CV ever or appear for a job interview, what was the necessity for them to attend a SCHOOL? Anyone from our family then “सिर्फ नाम ही काफी है।” So obviously they can’t read the subtitles. And it’s not my fault alone. It’s in the family tradition. None in the previous two generation did ever graduate too. So she and her children were merely keeping up the family tradition.

Hence as the Multiplex people had not mentioned on the counter that it was a foreign movie, she was entitled to get the refund. If she and her family were not going to comprehend the movie it was imperative that she got back her Rs.300/- that she had paid for the tickets. Now a days there was no Quattrochi around to help. And you are trying to act smart with me, as I could not occupy the CEO’s seat owing to my foreign origin. My children are still rulers in the making. Once my Son gets coroneted I would ensure that the Multiplex manager and owner both meet a fate worse then Ansals.

She thundered “You are humiliating the would be CEO of the India and the could had been the CEO of M/s India, jointly. Though currently I am not the chairperson of the M/s India, yet I do possess the remote control. If you do not refund the fare it would be extremely hazardous. I would ask the Home Minister what’s his name unnnh , whatever it is, to initiate a CBI enquiry on your misappropriation of my Rs.300/-.”

The mention of Ansal’s name was enough to cook the goose of the manager. He said madam even if it’s against the management rules I would refund the Rs.300/- from my own pocket and debit it to MY EDUCATION.



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Sunday, September 07, 2008

Swami Laxamananand Saraswati and Press


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मार्क ट्वेन ने एक जगह लिखा है “If you do not read Newspapers you are UNINFORMED and if you do you are MISINFORMED”. मैं, पिछले दिनों स्वामी लक्षमणानन्दजी जी की हत्या और उसके फलस्वरूप उपजी हिंसा सम्बन्धी खबरों को कुछ नजदीक से ही पढ़ रहा था। नजदीक से पढ़ने का कारण कुछ तो स्वभाव गत सहज जिज्ञासा और कुछ इस कारण से कि, कुछ वर्ष पहले मुझे स्वामी लक्ष्मणानन्दजी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था।
मैं आदतन अंग्रेजी के समाचार पत्र अधिक पढ़ता हूं। स्वामी जी कि हत्या और तत्पश्चात उपजी हिंसा सम्बन्धी समाचारों को अंग्रेजी समाचार पत्रों ने जिस तरह छापा है कि मुझे अनायास ही मार्क ट्वेन की उपरोक्त उक्ति याद हो आयी। हिंसा सर्वथा निन्दनीय है । हिन्दू धर्म में मनुष्य ही नहीं किसी भी जीवन्त वस्तु के खिलाफ तीनों आयाम यथा मनसा,वाचा, कर्मणा में से कोई भी आयाम की हिंसा वर्जित है। गांधी जी का भी एक बहुत ही प्रसिद्ध कथन है कि “An Eye for an Eye would leave the Whole World Blind”.

मैं मुद्दे से भटक रहा हूं। मुद्दा अंग्रेजी समाचार पत्रों एवं उनमें छपे समाचारों का है। समाचार पत्रों को समाज का चौथा स्तम्भ माना गया है। लेकिन प्रतीत ऐसा हो रहा है कि इस समूह ने सामाजिक गैरजिम्मेदारी के सारे कीर्तिमान तोड़ने की ठान ली है। सारे समाचार पत्र 98% कालम सेन्टीमीटर की स्पेस इस दृष्टिकोण को प्रतिपादित करने में लगे हैं कि स्वामी जी एक हिन्दू नेता थे,विश्व हिन्दू परिषद के नेता थे और उनकी हत्या माओवादियों ने की । विश्व हिन्दू परिषद मिथ्या प्रचार कर इसाईयों को निशाना बना रहा है। बेचारे इसाई बलि के बकरे सम हिंसा का शिकार हो रहें हैं। बड़े बड़े समाचार पत्रों के बड़े बड़े कालमिस्ट एवं संवाददाता मोटे हर्फों में छप रहें हैं। अधिकांश ने बगैर अपनी आर्म चेयर से उठे ये लेख लिख डाले। यह स्टालिनिस्ट मानसिकता का द्योतक है। मैं जो सोचता हूं वह ही सही है। भले ही Majority संख्या विपरीत सोचने वालों की हो। भले ही सापेक्ष प्रमाण खिलाफ हों ‘लेकिन सही तो मैं ही हूं’। यह ही तो स्टालिनवाद है।
किसी एक समाचार पत्र ने भी स्वामी जी की हत्या के सम्बन्ध में संजीदगी से 10 कालम सेन्टीमीटर भी खर्च नहीं किये। दो आदिवासी जातियों (पाण और अन्य) के बीच चली आ रही दशकों की वैमनश्यता को नकारते हुये सिर्फ RSS और विश्व हिन्दू परिषद को गाली देने की भूमिका निभा रहें हैं। पाण जाति के अनूसुचित जनजाति घोषित होने और उससे उपजी विषमता को कहीं भी समुचित रुप से उद्बोधित नहीं किया गया है। खैर ये तो बारीक तथ्य हैं इनके विषय में प्रेस क्लब के बार में बैठ कर जानना मुश्किल ही नही “डान के शब्दों” में असम्भव है।
लेकिन मोटे तथ्यों को नकारना उनकी नीयत को ही संदेह के घेरे में ला खड़ा कर देता है। आज की हिंसा को रोकने के लिये उसके पार्श्व की वजह समझनी आवश्यक है। George Santayana ने तकरीबन एक सौ वर्ष पहले कहा था कि “People who do not learn from their past are doomed to repeat it” अतएव हिंसा पर काबू तभी पाया जा सकेगा जब हम इसकी Genesis तक पहुंच पायें। सरकार अपने बाहुबल द्वारा टहनियों पर दवा छिड़क रही है जब कि बीमारी तने और जड़ में है। इस दवा से सम्भव है कि एक बार फिर पेड़ हरा भरा दिखने लगे लेकिन बीमारी यथास्थिति बनी रहेगी। Pain killers से Symptoms तो ठीक हो ही जाते हैं लेकिन कुछ समय बाद pain killers का effect कम होते ही बीमारी फिर सर उठा लेती है। जो चिकित्सक pain killers के द्वारा इलाज करते हों या तो उन्हें चिकित्सा पद्धति का ज्ञान नही है,या उनकी नीयत मरीज को ठीक करने की है ही नहीं।
आइये इन पत्रकार एवं सरकारी महानुभावों को तथ्यों से अवगत कराने का प्रयत्न किया जाये। स्वामी जी हत्या होने के आधे घन्टे के भीतर ही बिना किसी जांच पड़ताल के सरकारी हलकों द्वारा यह हत्या माओवादियों के मत्थे मढ़ दी जाती है। आइये इस आरोप को परखा जाये।
1) माओवादियों का इस आश्रम के आस पास के इलाके में कभी कोई आतंक नहीं रहा है।
2) अमूमन माओवादियों का पहला निशाना पुलिस होती है।
3) आश्रम में उपस्थित चारों पुलिस कर्मियों को माओवादी हाथ तक नहीं लगाते।
4) ओड़ीशा में माओवादियों में अधिकांश संख्या आदिवासियों की है।
5) स्वामीजी विगत चालीस वर्षों से वहां आदिवासी बच्चों को शिक्षा प्रदान कर रहे थे।
6) अतएव आदिवासियों की स्वामी के साथ किसी भी प्रकार की दुश्मनी होने की सम्भावना सहज गले के नीचे नहीं उतरती।
7) कथित माओवादियों की तरफ से एक पत्र आता है जिसमें Secularism के नाम पर हत्या की बात कही जाती है। इसके पहले भारत में कभी भी कहीं भी माओवादियों ने Secularism को लेकर किसी घटना को अंजाम दिया हो इसकी कोई मिसाल नहीं है।
8) आक्रमणकारियों ने चेहरे ढक रखे थे। माओवादी तो खुलेआम अपने आपको क्रान्तिकारी कह कर आक्रमण करते हैं। इनके नकाबपोश हो आक्रमण करने का भी इसके पहले का कोई उदाहरण नहीं है।
दूसरा पहलू है हत्या से प्रतिकार में उपजी हिंसा का। सारे समाचार पत्र का मजमून यों लगता है कि एक ही लेखक लिख रहा हो। सारे अन्य सभी मुद्दों को नकार कर सिर्फ विश्व हिन्दू परिषद और RSS को दोषी ठहराने में लगे हैं। मानो उस आदिवासी क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद के हजारों की संख्या में कार्यकर्ता इसाईयों का कत्लेआम कर रहें हों।
स्वामीजी की शव यात्रा में तकरीबन पांच लाख लोग थे। क्या वे सभी विश्व हिन्दू परिषद के लोग थे? स्वामीजी जब उस क्षेत्र में समाज सेवा में चालीस वर्षों से कार्यरत थे ,क्या उनका एक प्रभाव क्षेत्र नहीं होगा? क्या जिन लोगों के जीवन को स्वामीजी ने विगत चालिस वर्षों में कभी न कभी छुआ होगा उनकी निर्मम हत्या(उन्हें सिर्फ गोली ही नहीं मारी गयी है , हत्या के पश्चात उनके पांवों को भी तीन टुकड़ों में काटा गया है) से उनका भड़कना अस्वाभाविक है?
भारत में सिर्फ अंग्रेजी में ही लिखने वाले secular हैं। इसीलिये हिन्दी में लिख कर मैं तुरन्त ही संदेह के घेरे में पहुंच जाता हूं। विश्व हिन्दू परिषद,हिन्दू संस्थायें और RSS Soft Target हैं उन्हें बिना किसी संकोच के कट्टर कहा जाता रहा है। Minorities के खिलाफ लिखने से कहीं न कहीं पूरातन पन्थी,हिन्दू कट्टरवादी व संघीय के लेबल लग जाने का भय घिर आता है। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण सरकारी नीतियों से उपर उठ तथाकथित बौद्धिक समाज की सोच का बिम्ब हो गया है।
ये अपने आपको बुद्धिजीवी कहने वाले अग्रिम पंक्ति पर अधिकार जमा कर अपने आपको देश व समाज का कर्णधार समझने लगे हैं। मुश्किल यह है कि इनमें से अधिकांश या तो किसी व्यक्तिगत AGENDA के तहत् या बौध्दिक आलस्य के मारे सच्चाइयों से परे बुद्धिजीवी कहलाते हुये सिर्फ कलम जीवी हो कर रह गये हैं। कलम का बुद्धि से कोई सीधा रिश्ता नहीं है। कई Columnist हैं जो हर रविवार एवं अन्य दिन भी सिर्फ लफ्फाजी करते हैं और स्थायी स्तम्भ के रुप में छपते हैं। ये Page 3 संवाददाता सिर्फ भाषाई जमा खर्च या लफ्फाजी कर सत्ता के नजदीक पंहुंच सरकार व जनता दोनों के बीच रसूख बनाने में सफल हो पा रहें हैं। Lord Macculay की भाषा नीति ने जहां रूसो और वोल्टेयर की बयार बहाई वहीं बौद्धिक गुलामी की जंजीरें भी इस देश की किस्मत में लिख दी।
इस मोड़ पर आकर पहला प्रश्न जो उठता है कि क्या वजह है कि सब लोग इकट्ठे हो झुठ बोल रहें हैं।
1) सम्भवतः हत्या इसाई मिशनरियों के द्वारा करवाई गयी है और अल्पसंख्यकों के नाम पर ये इसाई मिशिनरी Aggressor और Victim दोनो का रोल निभा रहें हैं।
2) सरकार एवं प्रेस अपने चिर परीचित स्वभाव वश हिन्दू संगठनों को Soft Target पा झूठ बोल रही है।
3) एक और संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता की कहीं आर्थिक लेन देन भी समाचार पत्रों की इस संदेहास्पद भूमिका में एक कारण नहीं है।
4) कुछ दिन पहले एक रशियन एजेंट के खुलासे में यह बात कही गयी थी कि इन्दिरा गांधी के कार्यकाल में उन्होंने (रशिया ने) सैंकड़ों की संख्या में भारतीय समाचार पत्रों में मनचाहे लेख छपवाये थे।
यह गन्दी एवं ओछी राजनीति मुझ जैसे आम Secular व्यक्ति को भी अब अपनी मान्यतओं पर एक प्रश्न चिन्ह लगाने पर मजबूर कर देती है।

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