रेस के घोड़े
I wrote this (my first) poem during the emergency period (26th june 1975 to next nineteen months). I was barely twenty one and angry with the muzzling of the press and suspension of habeas corpus. The villain of course in my poem of course was the the PM. An outpouring of a young mind..
तुम हवाओं में
रंग भरने का गुमाँ लिये
आये थे
फिर लोगों के चश्मे रंगने लगे
या फिर एक दिशा मात्र में
रंग भर कर
लोगों को BLINKERS पहना दिये
और सारे वायुमंडल के रंगीन होने का
ऐलान कर दिया
हाँ रेस के घोड़े
(जो BLINKERS नहीं पहनते)
दौड़ते हैं शनिवार की शाम को
या अन्य किसी छुट्टी के दिन
काफी होउस के इर्दगिर्द
यहां भी रेसकोर्स सम
दौड़ जहां से शुरु होती है
खत्म भी वहीं होती है।
हां धूल कफी उड़ चुकी होती है
No comments:
Post a Comment