Sunday, August 30, 2009

A Monologue by Death

मैं मृत्यु हूं। दुनिया के प्रायः या यों कहूं कि तकरीबन सारे लोग ही मेरी विभीषिका से खौफ़जदा हैं।
या तो लोग मुझे शेष का पर्याय मानते रहें हैं। या जिन्दगी में मेरी भुमिका से परीचित ही नहीं हैं।
यनि जिस तरह लोग अन्धेरे को न भेद पाने की अवस्था में अन्धेरे से डरते हैं या प्लेटो के चिर निरुत्तरित प्रश्न से उत्पन्न शून्य से भयभीत हैं ,उसी तरह मुझसे मुझसे भी खौफजदा हैं। प्लेटो का प्रश्न था मृत्यु के पश्चात क्या। यह प्लेटो के चार चिर निरुत्तरित प्रश्नों में से एक है।
मेरा पहला समुचित परिचय एवं प्लेटो के इस प्रश्न का उत्तर नचिकेता के विषम प्रश्न के उत्तर में यम ने दिया था। जिसे पूर्वी जगत ने कथोपनिषद के नाम से जाना। पश्चिमी जगत आज भी इस प्रश्न को निरुत्तरित ही मानता रहा है।
कथोपनिषद का परिचय था कि मृत्यु जीवन यात्रा का एक पड़ाव भर है। उसी सत्य को प्रतिपादित करते हुये गीता ने उदाहरण के द्वारा सरली करण करते हुये “वासंसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहोति नरो पराणि” के श्लोक का उद्घोघोष किया।
मै अपना आत्मपरिचय या आत्मविश्लेषण करते हुये कहूं, तो कहूंगा कि मनुष्य के मुझसे साक्षत्कार के काल के भाव में उसकी सारी जिन्दगी प्रतिबिम्बित हो जाती है। मैं उस क्षण उसकी सारी जिन्दगी को प्रतिबिम्बित करता हूं।
उदाहरण के तौर पर सुकरात की मृत्यु के दृश्य को देखें। सुकरात से जब उसके शिष्य पुछते हैं कि उसक अन्तिम संस्कार कैसा होने चाहिये तो वह कहता है कि “जो मर रहा है वह सुकरात है ही नहीं। न कोई उसे पकड़ सकता है और न हीं कोई उसे मार सकता है।” कितनी सत्यता है इस संवाद में। वो 476 एथेन्स वासी जिन्होंने सर्वसहमति से उसे मृत्युदण्ड दिया था,सब मर चुके हैं लेकिन कालजयी सुकरात आज भी उतने ही मुखर रुप में जिन्दा है। सुकरात के इस एक वाक्य या यों कहें कि उसकी मृत्यु की अवमानना, उसके जीवन के सारे रंगों की एक झलक तो दिखला देती है।
अरस्तु का शिष्य व सम्राट अलेक्जेन्डर अपनी मृत्यु के वक्त कहता है कि “उसके दोनों हाथ से ताबुत से निकाल कर रखे जायें। ताकि दुनिया जान सके कि आधी दुनिया जीतने वाला अलेक्जेन्डर भी खाली हाथा जा रहा है।” यह एक योद्धा के अन्तिम काल का आभास था कि वह व्यर्थ ही सारी जिन्दगी मृग की भांति मरीचिकाओं के पीछे दौड़ता रहा।
जहां सुकरात ने मुझे अच्छी तरह पहचान कर जिन्दगी समुचित रुप से जीयी, वहीं अलेक्जेन्डर जिन्दगी भर भ्रम में जीया और अपने अन्त काल में ही मुझसे परीचित हो पाया।
क्रमशः

Thursday, August 20, 2009

Islam and Democracy

आज विश्व में 57 राष्ट्र में बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है। इनमें से एक में भी आधिकारिक तौर पर सेक्युलर या गणतान्त्रिक सरकार नहीं है।क्या इस्लाम गणतन्त्र के विरुद्ध है ? इस विषय पर एक उच्चस्तरीय संवाद की गहन आवश्यकता है।
तकरीबन अस्सी वर्ष पहले कमाल अतातुर्क ने पहली बार किसी इस्लामिक राष्ट्र में गणतन्त्र की स्थापना का प्रयास किया था। आज वहां भी धार्मिक संगठन सरकार के उपर अपनी प्रभुता काबिज कर पा रहें हैं। मेरे मानस पटल पर फिल्म निर्माता हिचकाक की एक घटना अनायास ही कौंध जाती है। हिचकाक अपनी गाड़ी चलाते हुये कहीं जा रहे थे। वे हठात बोल पड़े के “मैने इससे भयावह कोई दृश्य जिन्दगी में नही देखा है”। दृश्य था ‘सड़क के किनारे एक पादरी एक बालक के सर पर हाथ रख कर उससे बातें कर रहा था।‘ हिचकाक ने खिड़की से सर निकाला और जोर से कहा, “बच्चे भागो। तुरन्त इससे दूर भागो”। संगठानात्मक धर्म और संगठानात्मक अपराध दोनो में काफी सामंजस्यता है। दोनो को पूर्णरुपेण मिटाना असम्भव है। दोनो ही अपने अपने आकाओं के लिये विशाल धन का श्रोत सिद्ध होते रहें हैं।
धार्मिक या यों कहूं कि Religious संगठनों की प्रभुता, समाज में सोच खत्म करने की प्रक्रिया है। इस्लाम सिर्फ मजहब से परे एक सविधान देने पर आमदा है। कोई भी पुस्तक,धर्मग्रन्थ जहां जिज्ञासा या अन्वेषण पर प्रतिबन्ध लगायें वे आततायी हो जाते हैं।
जिस जमीन पर भी धर्मगुरु शासन पर हावी हो जायें वहां गणतन्त्र नहीं पनप सकता। कुरान या शरीयत में आम चुनाव को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। आज इरान में धर्मगुरुओं ने अपने आपको खुदाई या दैवी हवाले से आवाम के प्रतिनिधियों से वरिष्ठ घोषित कर रखा है। पाकिस्तान और भारत तो एक ही मां से जन्मे दो राष्ट्र हैं। भारत में चुंकि हिन्दुओं का बहुमत था, सेक्युलर विचार धारा बिना किसी आन्दोलन के स्वीकृत हो गयी है। गणतन्त्र भी इसी सिक्के का दूसरा पहलु है। शायद भारत विश्व में एक मात्र राष्ट्र है जहां गणतन्त्र एवं ADULT FRANCHISE को बिना किसी आन्दोलन या प्रसव पीड़ा के, पहले दिन से ही लागु कर पाया गया । वहीं पाकिस्तान जिसका जन्म जुड़वे भाई कि मानिन्द एक साथ ही हुआ , आज 62 वर्ष पश्चात भी कार्यकारी गणतन्त्र से कोसों दूर है।
अगर कोई धर्म अपने ग्रन्थों को सर्वोपरि मनने के लिये मजबूर करता है,वहां गणतन्त्र कभी पनप नहीं सकता। गणतन्त्र में आवाम सर्वोपरि होता है अन्य कोई भी मृत संस्था नहीं। सारे ग्रन्थ एवं तीर्थ स्थल मनुष्य की सोच के आगे बौने हैं।गणतन्त्र का अर्थ है कि हर एक व्यक्ति का महत्व या वजन बराबर रहेगा। हर इकाई को अपने मत का महत्व दिया जाना। किसी खलिफा या मुफ़्ती का वजन अन्य किसी भी नागरिक से अधिक नहीं होगा। गणतन्त्र के लिये नागरिकों को अपनी पारम्परिक पहचान में विशेष परिवर्तन की कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी।
इस्लाम का अर्थ है समर्पण। धर्म के प्रति पूर्ण समर्पण । यहीं से गणतन्त्र की परम्परा को आघात पहुंचता है। गणतन्त्र में महत्व शासन का है, तन्त्र का है। अन्य सभी मानक यथा कुरान या मौलवी की सत्ता इनके सामने गौण हो जाती है।
अपनी अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता,तर्क को किसी भी नियम से उपर की सत्ता,सत्य की कसौटी को सर्वोच्च पायदान आदि गणतन्त्र के मूलभुत नींव के पत्थर हैं। किसी भी DOGMA की कोई अड़चन गणतन्त्र की हत्या कर देगी।
अगर इस्लाम अपने प्रारुप में थोड़ा परिवर्तन स्वीकार कर ले,थोड़ा लचीलापन ले आये तो गणतन्त्र की स्थापना जरुर सम्भव है। अन्यथा नहीं।