तुम्हारी खोज
मैने आरम्भ में तुम्हे ढुंढा
तमाम इबादत गाहों में।
वहाँ मिली
कुछ मुर्त्तियां
कुछ किताबें
कुछ दिशाहीन संकेत
इनमें ऐसा कुछ भी नहीं था
जो मुझे, तुम तक ले जाता।
थक हार कर
अन्त में मैने ढुंढा तुम्हें
अपने ही मानस के अन्दर
तमाम सीढ़ियां उतरीं
एक लम्बी जंग झेली
और तब आखिरी सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे
पाया तुम्हें।
तुम्हें पाने के पश्चात
सारे चित्र हठात् एक दुसरे में घुल गये
मैं समझ नहीं पा रहा था
कि, उस अन्तिम सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे जो मिले
वो तुम थे या मैं।
और फिर मैं और तुम एकाकार हो गये थे।
तुम रक्त बन कर दौड़ रहे थे
मेरी धमनियों में
तुम दृष्टि बन कर समाहित थे
मेरे चक्षुओं में
और अब सारा जग तुममय था
अब हर जगह तुम थे
वो तुम थे या मैं था
नहीं जानता
क्योंकि अब तुम और मैं तो
एकाकार हो चुके थे।
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