Thursday, June 21, 2007

Yakhsa

यक्ष

मुझे नित्य ही मृत्यु की सजा मिलती है।
नित्य ही मेरा यक्ष से होता है सामना
मैं कोई युद्धिष्ठिर तो हुं नहीं
कि उत्तीर्ण हो पाउं
अतएव हर रोज मुझे मृत्यु की सजा ही मिलती है।
नित्य ही मेरा कुछ न कुछ मर जाता है।
अब कल ही यक्ष ने मुझसे पूछा
सत्य क्या है।
मैने टालने हेतु
शंकराचार्य के हवाले से कहा
इस मिथ्या जगत में भला
सत्य की क्या हस्ती।
कि बताउं
सत्य क्या है।
तब यक्ष गुर्राया
तुम भारी नाम के पार्श्व से
खेल रहे हो आखेट
सामने आओ या
मृत्यु का करो वरण।
मैं हिम्मत बांध बाहर आया
मन्द मन्द मुस्कुराया
बोला
इस प्रश्न का उत्तर काफी सघन है।
सुन पाओगे, झेल पाओगे इसकी विभीषिका
तो सुनो
यह द्वापर नहीं कलियुग है।
इस प्रश्न के उत्तर के लिये
पहले भिन्न भिन्न सत्य को पहचानो
पहला सत्य वह है
जो अदालत में शपथ लेकर बतलाया जाता है।
दूसरा सत्य जो थाने की डायरी में दर्ज़ पाता है।
तीसरा वह जो मन्त्री मुख से
जनता को परोसा जाता है।

फिर मृत्यु के भय से मैंने
समुचित उत्तर ग़ोएब्बेल्स की धुरी से दिया
“कि आज हर वह संवाद जो
निरन्तर और शक्ति के साथ दोहराया जाये
सत्य है”
इसीलिये सिर्फ अशक्त लोगों के हिस्से ही
आती है मिथ्या
कौन भला कौन सुनता है
उनके हिस्से के शब्द
आज यहां निरुत्तर जिन्दगी ही सत्य है।
उत्तर तलाशने की प्रक्रिया में
मृत्यु के वरण की सम्भावनाएं हैं
निश्चित।
इसलिये
जिन्दगी को जीने के लिये
इस कलियुग में पहन लिये हैं, मैने
कर्ण सम संवेदनहीनता के कवच कुन्डल
और इसी तहर
अब हर रोज मैं तुम्हें भी झेल पाता हूं।
और अब नित्य कुछ कुछ मर कर भी
आंशिक ही सही लेकिन जिन्दा हूं

2 comments:

Unknown said...

आग्रह

इक बार फिर से मुझे
मेरी तस्वीर दिखला दो...
बदल कर पहनते पहनते...
कई चेहरे....
भूली कैसी दिखती थी कभी...

अब भी उठती है आवाज़..
पहचानी सी...
जाने किस शोर में ...
गुम यह जाती है....

भुलाना चाहती हूँ
हर सीख ज़माने की...
...बस...
...मेरा निष्कलंक रूप मुझे
लौटा दो....

...मेरी मासूमियत….
मेरा विश्वास...
....आस...
मेरी प्यास..
...खो गये हैं कहीं....

..मेरी राह...
...उत्साह....
...मेरे ख्वाब...
...मेरे पँख....
...मुझे लौटा दो...


इससे पहले कि
भूल जाऊँ खुद को मैं....
मुझे...मुझसे इक बार फिर...
मिल लेने दो...

इक बार फिर से मुझे...
मेरी तस्वीर दिखला दो...

………………….
तबाही के सही आँकड़े...
दर्ज करवा दूँ....
..............
अपनी तस्वीर...
फ्रेम करवा लूँ....

kuldip said...

बेजी
बहुत खुबसूरत पंक्तियां हैं।समय के थपेडे और जमाने के कृत्य बहुत कुछ बदल देते हैं।