Friday, May 11, 2007

Kavita

एक दिन मेरे मैं ने
झुंझला कर पुछा,
आखिर तुम क्यों लिखते हो कविता
आज जब पेट भरना ही एक विराट प्रश्न है,
तब जठरानल के सन्मुख निर्रर्थक है तुम्हारी कविता
बताओ क्या किसी का पेट भर पाई है तुम्हारी कविता।
और तो और महज कल और आज में क्या,
कुछ भी परिवर्तन ला पायी है तुम्हारी कविता।
क्या बन्दुक या परचम बन,
सरहद पर दुश्मनों से जुझ पायी है तुम्हारी कविता।
जब और्केष्ट्रा के सामने ही कभी
नहीं टिक पाई तुमहारी कविता।
तब आज रीमिक्स की चकाचौंध में
बिल्कुल बेमानी हो चुकी है, तुम्हारी कविता।
जब इन सबसे हो वाकिफ़,
तो फ़िर आखिरकार क्यों लिखते हो कविता।
तभी मानस पर मेरे कौंध गई कुरुक्षेत्र की कविता
जिसने परचम बन अर्जुन को क्षात्र धर्म का ज्ञान दिलाया,
और महाभारत को भी स्तुत्य बना गई थी वही कविता।
सिर्फ़ आज और कल का परिर्वत्तन ही नहीं
आज के गणतन्त्र की आधारशिला में भी थी
रुसो और वाल्टेयर की कविता।
भारत में आजादी की अनहद गूंज मे भी,
प्रतिध्वनित थी बकिंम चन्द्र की ही एक कविता।
शब्दों में अगर सत्य हो तो
सिर्फ़ एक इकाई ही नहीं
पूरे मानव जगत का पेट भर सकती है एक कविता।
जिस तिमिर के प्रथम प्रहर हैं Orchestra व Remix,
उस तिमिर को भेदने वाली
उषा की प्रथम किरण है कविता।
जब कवि और काव्य पात्र एकात्म होते हैं,
तब शब्दों में चित्र, भाव एवं संगीत की त्रिवेणी बहती है
यह त्रिवेणी जब कागज पर उतरती है,
तब वह होती है कविता।
आदि में था शब्द, और शब्द में था ईश्वर ।
इसीलिये ईश्वर सी सर्वशक्तिमान है कविता।
मैंने, मेरे वेताल रुपी मैं को समझाया
हां इसी महाशक्ति को साधने हेतू
निरन्तर मैं लिखता हूं कविता।

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