Thursday, May 31, 2007

Proletariat

बरगद का पेड़
(my poem written in 1975 when i was abt 21)
बरगद का पेड़ तो बूढा ही पैदा हुआ था
वह सदा झुका रहा है
हथेलियां जमीं पर टिकि रही
सूरज के ताप से झुलसता
ताउम्र चौपाये सा पीठ झुकाये खड़ा रहा
वह नासमझ समझता था कि
सूर्य की किरणें तो जीवनदायिनी हैं।

एक दिन हठात्
उसकी मुलाकात हुई
हकीम शफाखाना से
साथ में थी खोयी हुई जवानी
वापस दिलाने का वादा।
उसके वादे से आश्वस्त
जैसे ही हथेलियां जमीन से उठाईं
वह ह्हरहरा कर ढ़ेर हो गया।
वह भूल गया था कि
उसने तो जवानी कभी खोई ही नहीं थी
वह तो बुढ़ा ही पैदा हुआ था
वह यह भी नहीं जानता था कि
खुद हकीम भी सूरजमुखी ही था
और माँ पृथ्वी
निःस्पन्द थी
क्योंकि बेटा कमाउं नहीं था

Wednesday, May 30, 2007

मैं और वह

मैं और वह

मैं अज्ञ
वह सर्वज्ञ
फिर भी वह मेरे साथ साथ चला
ठीक रेल की पटरियों की नाईं
साथ साथ लेकिन पृथक
मैने तो जिन्दगी के तमाम रंग सेये
कभी हर्ष से हरा हुआ
कभी अवसाद से पीला
कभी जीत के उन्माद में
पेड़ों से उंचा उठा
कभी हार के उत्ताप उत्ताप से तिनके सा नीचे झुका
उसने देखा मेरी जिन्दगी को
चलचित्र की नाईं
और निर्विकल्प
अपने ज्ञान चक्षुओं से सिर्फ मुझे घूरता रहा
उसे पता था कि यह सारे रंग
ये सारे आकार तो पर्दे के नहीं Celluloid के हैं।
और पर्दे तो ये सिर्फ छायाओं का खेल है
और पर्दे पर भी इनका आस्तित्व
Hall के अन्धेरे के साथ ही जुड़ा है।
जिस दिन Hall उसकी रोशनी से जगमगाया
उसी दिन उसी क्षण
ये सारे रंग ये सारे आकार गायब हो जायेंगे
वह यह सब जानता था
और मैं इन सबसे अनभिज्ञ
कभी हँसा कभी रोया
वह तो यह भी जनता था कि
अगर मैं और वह मिल गये
तो यात्रा तुरन्त समाप्त हो जायेगी
मैं विमूढ़ बस सिर्फ साथ साथ चलता रहा

Tuesday, May 29, 2007

Desire

उत्कण्ठा
क्या तुम भी मुझे
उतना ही चाहते हो
जितना मैं तुम्हें चाहता हूँ।
क्या मुझसे मिलने कि
तुममें भी हो वो उत्कण्ठा
जो मुझ में है।
कभी सोचता हूं कि
क्यों तुम तक चलूं
क्या पाउंगा तुमसे मिलकर
शायद यह तुम्हारी उत्कण्ठा का
आकर्षण है,जो चुम्बक सम
मेरे अणुओं का ध्रुवीकरण कर रहा है
और मैं स्वचालित सा
तुम्हारे आकर्षण से बद्ध
तुम्हारी ओर खींचा जा रहा हूं।
कभी सोचता हूं
कि काश मैं कबीर बनूं
अपनी धूरी से जुड़ा
ताना बिना गिनता
निःस्पन्द अपनी जगह पर खड़ा रहूं
और तुम निर्बल हो मुझ तक खींचे चले आओ।
और मेरे करघे के ताने बाने में उतर जाओ।
हां तुम, मुझसे मिलकर
निश्चित ही जीवन्त हो जाओगे।
मुझसे मिलकर जरूर कुछ पाओगे
निर्गुण से सगुण हो
एक से अनेक हो
निराकार से हो साकार
हाँ, तुम सशक्त हो जओगे
मुझसे मिलकर
हां मुझ से मिलकर ही
तुम कर सकोगे कंस का वध
और लंकाधिपति के अहंकार का विनाश्।

Nature - Gods Poetry

तुम्हारी कविता
आज मैं तुम्हारी कविता पढ़ रहा था
हां वही पद
जो तुमने पेड़ों पर खिलाये
तालों में भरे
और कहीं सागर की लहरों पर थिरकते पद
फिर शायद इन्हें पढ़ते पढ़ते
मैं इन पदों में तुम्हें तलाशने लगा।
नदी पर सूर्य के प्रतिबिम्ब में पाया
तुम्हारे होने का एहसास
पक्षियों की कलरव में भी
तुम्हारी आवाज
पुष्पित पौधों की सुगन्ध में था
तुम्हारा सौरभ
लहलहाते खेतों में था तुम्हारा स्वेद
आषाढ़ के मेघों के इन्द्रधनुष में थे
तुम्हारे रंग
तुम्हारी छाया तो सर्वप्त व्याप्त थी
तुम कहीं नजर नहीं आये
तुम्हारे नहीं मिलने से उदास
जब आईने में अपना चेहरा देखा
तो,तुम नजर आये
अब तुम्हारी कविता जहन में उतरी
और पाया कि
तुम्हारे होने या न होने की वस्तविकता
तो मेरे होने या न होने
के साथ ही जुड़ी है
मैं और तुम एक दूसरे के पूरक
परस्पर एक दूसरे को धरातल प्रदान करते हैं
मैं जैसे ही अपनी ओर मुड़ता हूं
तुम्हारा अक्स मेरे अन्दर
उतर आता है
और फिर आईने में
मैं नहीं तुम नजर आते हो।

Sunday, May 27, 2007

An Ode

श्रद्धाँजलि (व्यक्तिगत)
(An ode to my late Father)
तुमने कुछ समय पहले
देह त्याग किया था।
लोगों ने इसे मृत्यु की संज्ञा दी
मृत्यु तो शेष का पर्याय है
देह त्याग को तो मरना नहीं कहते।
तुम तो देह त्याग कर
एक से अनेक हो गये
पहले जबकि तुम्हारी भौतिक छाया
सिर्फ मुझे प्राप्त थी
अब आध्यात्मिक हो विश्वव्यापी हो गई है।
अब जीवित से ज्यादा जीवन्त हो
मेरे मानस में जिन्दा है।
मृत्यु तो तुम्हें उस दिन ग्रसेगी
जिस दिन मेरे अन्दर का आदमी मरेगा।
और मै तुम्हें विस्मृत कर दूंगा

लोग कहते हैं
मृत्यु व्यक्ति के
यश-अपयश,सुख-दुख, छोटे-बड़े के
भेद समाप्त कर देती है।
लेकिन तुमने तो इन भेदों को
कभी जिया ही नहीं
हाँ, शायद इसीलिये
भौतिक मृत्यु
तुम्हारी जिन्दगी के तारों की
स्पन्दना को कभी रोक नहीं पाई।
और इसीलिये उनकी धुन
आज भी
पहले से अधिक मुखर
मेरे कानों में
नक्कारों सी गुँजती है।

Saturday, May 26, 2007

Happiness

Happiness
( Few Years back in an international survey it was observed that Americans were the happiest persons and India came second. This poem is a cynical response to the said survey. The me is Janata, Mother is Governemnt,)

हाँ मैं खुश हूँ
कबीर के शब्दों के प्रतिकुल
(कबीर कहता है: सुखिया सब संसार , खाये और सोये
दुखिया दास कबीर जागे और रोये)
बिन खाये सोया हूँ
फिर भी खुश हूँ।
मुझे मेरी माँ ने अफीम चटा दी है।
( In rural India it was a general practice of mothers to give a lick of opium to their young infants,to enable them to complete their domestic chores peacefully)
मां की व्यस्त दिनचर्या में एक व्यधान था।
इसीलिये मेरी मां ने मुझे
अशिक्षा की, भाग्यशीलता की
धर्मान्धता की और जांत- पांत की
अफीम चटा दी है
अब मैं बड़ी खुशी के साथ
बिन खाये भी सो पाता हूं।
मां भी क्या करती
वह तो व्यस्त थी
गाय दूहने में
फसल काटने में
पूजा घर में
और पड़ोसी मुल्कों के साथ उच्चस्तरीय वार्तालाप में
मैं और मेरी भूख जो
इन सबके बीच एक व्यधान थी
को अफीम चटा दी है।
और अब मैं कबीर के इतर
बिन खाये भी खुश खुश सो पाता हूं।
हं इसी बीच सर्वेक्षण वाले आये थे।
जो मेरी खुशी को एक कीर्तिमान दे गये।

Sunday, May 20, 2007

Gujarat

गुजरात
कुछ खास लोगों के लिये पता नहीं क्यों गुजरात एक हौवा बन गया है । अंग्रेजी संचार माध्यम तमाम अंग्रेजी पत्र पत्रिकायें, अंग्रेजी टीवी चैनेल ऐसा प्रतीत होता है कि किसी गहरे दुराग्रह से ग्रस्त हैं । गुजरात की हर घटना को खुर्दबीन से जांचने की प्रक्रिया । कुछ सच्चे कुछ झूठे आरोपों को सनसनीखेज बनाना । sms से तथाकथित जनमत संग्रह द्वारा एक विचित्र सा खाका खींचना मानो साप्ताहिक स्थायी स्तम्भ हो गये हों। जनमत संग्रह कभी कभी बड़े विचित्र उत्तर प्रस्तुत करता है। उदाहरण के तौर पर सन् 2001 में एक सर्वेक्षण किया गया था कि “ आपके अनुसार बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना का नाम बताईये”। जिस घटना को बीसवीं सदी का सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटना के लिये सबसे अधिक मत प्राप्त हुए वह थी “डायना की मौत”। द्वितीय विश्वयुद्ध को दूसरे पायदान पर रखा गया। इससे जनसमूह के सामुहिक मानसिक दीवालियेपन के साफ संकेत मिलते हैं। सुनियोजित जनमत से मन चाहे परिणाम भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
गुजरात इन दिनों दो कारणों से समचार में है।
1) Fake Counter case
2) महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शित चित्र
1) Fake Encounters सरकार के पास एक अनुचित लेकिन आवश्यक हथियार विगत कई दशकों से रहा है। परीस्थितियां जैसे जैसे खराब होती रहीं हैं वैसे वैसे इस हथियार का प्रयोग बढा है। सबसे पहले व्यापक रुप से बंगाल में सन् 1972 से 77 के दौरान कौंग्रेस के राज्यकाल में इस हथियार का प्रयोग हुआ था। नक्सलवाद से निबटने के लिये श्री सिद्धार्थ शंकर राय ने इसका उपयोग किया। कालान्तर में अपराधियों से निबटने के लिये यह एक कारगर समाधान के रुप में उभरा। उदाहरण स्वरुप भागलपुर आंख फोड़वा कांड आदि।
छिटपुट state sponsored हत्याएं Fake Counters समाज में स्वीकृति पा चुके हैं। इन विषयों को फिल्म व टेली सीरीयलों में उचित व आवश्यक ठहराया गया है। आज हिन्दुस्तान जिस लचर कानूनी व्यवस्था का शिकार है उसके अन्तर्गत एक थोड़े से भी प्रभावशाली अपराधी को सजा दिलाना अत्यन्त दुरूह कार्य हो गया है। आज पकड़े जाते हैं और कल छूट जाते हैं।
इजराईल की नाईं ZERO TOLERANCE ही इस स्थिति से निबटने के लिये एक कारगर उपाय है। वर्ना कंधार और उसके पश्चात का अज़हर मंसूर का काश्मीर में फैलाया हुआ आतकंवाद हमेशा एक पीड़ा दायक नासूर की भांति हमारी नपुंसकता का द्योतक रहेंगा।
वंजारा ने क्या किया या क्या नहीं यह investigation का विषय है। किन्तु महज Fake Encounters को ले इतना बवाल मचाना कहीं न कहीं किसी खास मंशा को दर्शाता है।
भारत में हर वर्ष सैंकड़ों की संख्या में FAKE ENCOUNTERS होते हैं। ग़ुजरात में इनकी संख्या नगण्य है। उत्तर प्रदेश,बिहार जैसे राज्यों मे आये दिन ऐसी घटनायें घटती रहती हैं। किसी समाचार पत्र वालों की नींद नहीं हराम नहीं होती।

3) महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रदर्शित चित्र : इस प्रदर्शिनी में परीक्षार्थ हिन्दु व क्रिश्चियनिटि की संवेदनाओं के खिलाफ कूछ चित्र प्रदर्शित किये गये।
ईनमें देवी दुर्गा नग्न रुप से को एक पुर्ण विकसित मानव को प्रसव करते हुए दर्शाया गया है। कुछ ऐसी ही आपत्तिजनक तस्वीर यीशु की भी थी। हमारे संविधान में इन विषयों पर बिल्कुल साफ प्रावधान है। धार्मिक भावनओं को ठेस पहुंचाती हुई कृतियां प्रतिबन्धित हैं व प्रशासन उन के खिलाफ कारवाई करने के लिये बाद्ध है।
जब डेनिश कार्टूनों के खिलाफ भारत वर्ष में रैलियां निकाली जा रहीं थीं तब यहां के बुद्धिजीवी उन कार्टुनों के खिलाफ उंचे सूर में आवाज उठा रहे थे,एवं भावनाओं के स्तर पर चोट पहुंचाने के बहाने से डेनिश प्रधान मन्त्री कि आधिकारिक यात्रा रद्द करवा दी।
बंगाल में तस्लीमा नसरीन की पुस्तक को प्रतिबंधित किया जाता है। satanic verses को बिना पढ़े प्रतिबंधित किया जाना एक विचित्र मानसिकता को दर्शाता है।तब कलात्मक स्वतंत्रता की दुहाई नहीं दी जाती।
मेरा यह भी मानना है कि BJP के नेता जैन महोदय ने भी बिला वजह एक अदनी सी पेंटिग को महत्वपूर्ण बना दिया। लेकिन जब प्रशासन सूर्य नमश्कार को स्वास्थ्य से ना जोड़ धर्म के साथ जोड़ कर देखता है, जब वन्देमातरम गाने के लिये सर्वजनिक रुप से फतवे दिये जाते हैं, जब 15 अगस्त को हिन्दुस्तान की सरजमीं पर तिरंगा झण्डा फरहाने के अपराध में नेताओं की गिरफ्तारी की जाती है,
तब अनायास ही majority समुदाय भी एक घायल मनःस्थिति का शिकार हो जाता है।
हुसेन साहब सिर्फ हजरत मोहम्मद की एक तस्वीर बना कर दिखा दें। उनकी जान सांसत में आ जायेगी। हांलाकि इस मानसिकता को उद्धृत करना कहीं से भी औचित्य के दायरे मे नहीं आता है। किन्तु सरकारी दोहरेपन से भी परीस्थितियां विषम हो जाती हैं।
अगर यही चित्र प्रदर्शिनी की घटना भी देश के अन्य किसी राज्य में घटी होती तो शायद इतना बड़ा समाचार नहीं बनती।


इन लोगों को गुजरात की औद्यौगिक क्रान्ति नजर नहीं आती। आर्थिक प्रगति नहीं दिखती। दिखती हैं सिर्फ कुछ fringe घटनायें।

Sunday, May 13, 2007

Race Horses

रेस के घोड़े

I wrote this (my first) poem during the emergency period (26th june 1975 to next nineteen months). I was barely twenty one and angry with the muzzling of the press and suspension of habeas corpus. The villain of course in my poem of course was the the PM. An outpouring of a young mind..

तुम हवाओं में
रंग भरने का गुमाँ लिये
आये थे
फिर लोगों के चश्मे रंगने लगे
या फिर एक दिशा मात्र में
रंग भर कर
लोगों को BLINKERS पहना दिये
और सारे वायुमंडल के रंगीन होने का
ऐलान कर दिया

हाँ रेस के घोड़े
(जो BLINKERS नहीं पहनते)
दौड़ते हैं शनिवार की शाम को
या अन्य किसी छुट्टी के दिन
काफी होउस के इर्दगिर्द
यहां भी रेसकोर्स सम
दौड़ जहां से शुरु होती है
खत्म भी वहीं होती है।
हां धूल कफी उड़ चुकी होती है

Gandi and Bhishma Pitamah

गाँधीजी एवम् भीष्म पितामह

गाँधीजी भारतीय राजनीति के पितामह स्वरुप या राष्ट्रवादी राजनीतिक किले के बिम्ब थे। गाँधी जी सभी वर्गों के लिये ठीक उसी तरह आदर्श थे, जिस तरह भीष्म पितामह पाण्ड़वों एवं कौरवों दोनों के आराध्य थे। इक्कीस वर्ष दक्षिण अफ़्रीका में रहने के बाद, गाँधीजी की भारत की राजनीतिक यात्रा का आरम्भ काग्रेंस पार्टी के झण्ड़े तले जरुर हुआ था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने अपने आप को औपचारिक रुप से congress party से अलग कर लिया था एवं पूरे देश के नेता बन गये थे।
गाँधीजी काग्रेंस पार्टी में रहते हुए भी काग्रेंसी नेताओं की सत्ता लोलुपता से उतने ही दु:खी थे, जितने भीष्म पितामह कौरव दल में रहते हुए भी दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं से दु:खी थे। इसके बावजूद दोनों ने सत्ता लोलुपों का साथ दिया। जिस तरह भीष्म पितामह नें राष्ट्र विभाजन को स्वीकृति दे दुर्योधन की महत्वाकांक्षा के सामने घुटने टेके ,उसी तरह जब भारत के विभाजन के सन्दर्भ में कांगेस की बैठक हो रही थी, गाँधीजी उस सभा में मौन धारण किये हुए थे। दोनो अपनी इच्छाओं के विरुद्ध देश के विभाजन के मूक दर्शक बन कर रह गये। दोनो ही क्रमश: नेहरू व जिन्ना की महत्वाकांक्षाओं से हारे। “वीर भोग्ये वसुंधरा” या पौरुष के विचार से अर्जुन या कर्ण को ही सत्ता मिलनी चाहिये थी। गांधीजी ने भी अगर जाहिर तौर पर नेहरू के बजाय सरदार पटेल को देश के नेतृत्व के लिये चुना होता तो निःस्सन्देह देश का इतिहास काफ़ी भिन्न होता।
गांधी जी का विवादित ब्रह्मचर्य और भीष्म की ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा दोनो ही निरर्थक थे। गांधी जी के पिता के देहान्त के समय का अवसाद उनके पूरे जीवन पर भारी था,और एक दिन इसी अवसाद ने उन्हें ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिये मजबूर कर दिया। ब्रह्मचर्य को इतना महत्व देना दोनो के लिये एक कमजोरी क प्रतीक था न कि पौरुष क।
भीष्म पितामह ने जहां भूलस्वरुप युधिष्ठिर की द्यूतक्रीड़ा ,शकुनि का कपट, लाक्षागृह के षडयंत्र को नजरन्दाज किया वहीं गांधी जी का पाकिस्तान के तमाम नापाक कारनामों यथा काश्मीर में युद्ध के बावजूद पाकिस्तान को 56 करोड़ दिलवाने हेतू अनशन पर बैठ जाना उससे भी बड़ी भूल थी।
दोनों की हत्याओं के पीछे दो मुखौटों का हाथ था। जहां भीष्म को स्वेच्छा मृत्यु का वरदान था,मृत्यु उनके पाँव के पास उनकी आज्ञा की प्रतीक्षारत खड़ी रही। वहीं गांधी का व्यक्तित्व इतना वृहत् था कि किसी भी बन्दूक की गोली से उनकी हत्या असम्भव थी।
भीष्म पितामह की मृत्यु शरशैया पर होती है। ये वाण कितने भी नुकीले रहें हों वे उनके उपर आराम से लेटे हुए थे। मृत्यु उनके पाँव के पास उनकी आज्ञा की प्रतिक्षा में खड़ी थी। विभाजन के स्वभाविक चरोमोत्कर्ष महाभारत की समाप्ति पर ही मृत्यु को आज्ञा मिलती है। उनके शरीर को लहुलुहान करने वाले वाण अर्जुन के नहीं वरन् उनकी अपनी नपुंसकता के थे। धृतराष्ट्र के पुत्र मोह का विरोध नहीं करना,अपने वृद्ध पिता की व्याभिचारिता के लिये पौरुष का त्याग कर, अपनी चेतना का परित्याग, एक व्यक्ति की गलत इच्छाओं के सम्मान हेतू अपना एवं अपने राज्य के भविष्य को गलत दिशा देना,अम्बा का अपहरण एवं परित्याग, द्रौपदी के चीर हरण का प्रतिरोध नहीं करना आदि चिन्ह पौरुष के नहीं कहे जा सकते थे।
विभाजन के फलस्वरुप हुए दंगों में पश्चिमी भारत में नर संहार पुर्वी भारत की तुलना में कम से कम दस गुना हुआ। नोआखली में महज एक पखवाड़े में शान्ति बहाल हो चुकी थी। इस समय गांधी जी का दीर्घकालीन कलकत्ता प्रवास कुछ वैसा ही था जैसा भीष्म पितामह का द्रौपदी का चीरहरण के समय सभा में मूक उपस्थित रहना। यहां एक द्रौपदी का चीर हरण हुआ था वहां पश्चिमी भारत में लाखों द्रौपदीयों का चीर हरण हो रहा था। लेकिन गांधी जी उनकी तरफ पीठ कर नोआखली में बैठे रहे।
नाथुराम गोडसे या कोई भी अन्य व्यक्ति पिस्तौल से गांधी जी हत्या नहीं कर सकता था।
गांधी जी कि हत्या भले ही गोडसे ने 1948 में की हो,गांधीवाद की हत्या की प्रक्रिया विभाजन की स्वीकृति के साथ ही हो गई थी। जिस तरह तुलसी दास कहते हैं कि “राम का नाम,राम से कहीं बड़ा था” उसी तरह गांधी एक व्यक्ति से उपर एक विचारधारा का नाम था। उनकी हत्या उनके अपने नामधारीयों ने की। जिस तरह भीष्म पितामह की हत्या उनके अपने पोते अर्जुन के हाथों हुई, उसी तरह गांधी जी की हत्या भी उनके ही राजनीतिज्ञ वंशजों ने ही की है। राजघाट पर बनी हुई समाधि तो सिर्फ एक प्रतीक मत्र है। उनकी हत्या भारत के हर गांव हर शहर में हुई है।
जहां गांधीजी की समुचित विचारधारा का केन्द्र भारतीय ग्रमीण समाज था वहीं उनके राजनीतिक पुत्र नेहरुजी पक्के देशप्रेमी होते हुए भी एक अभिजात्य (elitist) सोच से ग्रसित थे। जहां गांधी जी की प्राथमिकता गांव के शौचालयों की थी वहीं नेहरु जी की प्रधान मन्त्री के रुप में पहली मानसिक संरचना विदेशी मेहमानों हेतू अशोक होटल की थी। अशोक होटल का निर्माण भारत के drawing room के स्वरुप किया गया। ये अर्जुन के तरकश का पहला तीर था, जिसने भीष्म स्वरुप गांधी को बिंधा। हाल में दिये गये एक भाषण में यह कहा गया है कि, “नेहरु जी भारत पर राज्य करने वाले अंतिम अंग्रेज थे।“ यह संवाद अपनी पूरी भंगिमाओं के साथ अग्राह्य होते हुए भी कई अर्थों में एक ऐतिहासिक सत्य है।
भारत के विभाजन के लिये अगर जिन्ना मुख्य दोषी है तो नेहरु जी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के वजूद को नकारा नहीं जा सकता । पराकाष्ठा स्वरुप आज तो परिस्थिति यह है कि
बापु तेरे चरखे पर , खद्दरधारी आज कात रहें हैं
सोने के धागे
सन् 1937 के चुनाव के पश्चात महात्मा गांधी ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि , “आज सत्ता में बैठे हुए लोगों के भ्रष्ट आचरण को देख कर मैं भारत के भविष्य के प्रति सशंकित हूँ।” उसी समय आवश्यकता थी एक समानान्तर भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आन्दोलन की। गलत महत्वाकांक्षाओं की हत्या ही समुचित समाधान है।
भीष्म पितामह भी महाभारत के प्रारम्भ में अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहते हैं कि “ मुझे विभाजन स्वीकार नहीं करना चाहिये था। यह युद्ध उसी समय छेड़ देना चाहिये था।
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का समाधान विभाजन नहीं युद्ध है। अगर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं जीवित रहीं तो विभाजन के पश्चात भी महाभारत ही होगा।”
भातर पाक के चार युद्ध पांच हजार वर्ष के पश्चात भी उस कथन को प्रमाणित ही करते हैं।
फिर भी निःशंक दोनो ही महापुरुष, युगावतार थे। (My musings here are inspired by Shashi’s The Great Indian Novel”

Saturday, May 12, 2007

WAR

युद्ध
हाँ मैं कभी हारा नहीं
मेरे हर अन्त में थी एक अनन्त की प्रतिध्वनि
और मेरे हर मरुस्थल में तुम
चौमासे की तरह आये
कभी सोचता हूँ की
सत्य तो यह है कि
कबीर* सम जब तलक तुम नहीं हारो
तो मैं कैसे हारुं
हाँ तुम हारो, तो मैं हारुं
हर सुबह जिन्दगीं का सुरज उगा
और शाम
हर,शाम ने जब जैसे
सुरज की तमाम किरणें समेटी
तुम भी बस उसी तरह
मेरे मानस में सिमट आए
जिन्दगीं के हर क्षण में
तुम्हारी पद्चाप सुनी मैंने
हालांकि कभी ढुंढा नहीं तुम्हें
फिर भी तुम्हारी उपस्थिति का आभाष
हमेशा रहा आस पास मुझे
जब कभी मेरे कक्ष में
किसी अंधेरे ने किया प्रवेश
तुम्हारी किरणों नें बिजली सा कौंध
किया उस अंधेरे का अपहरण
जब कभी अशक्त हो लड़खड़ाया
तब सहारे स्वरूप तुम्हारा ही कन्धा पाया
हाँ लड़ाईयाँ कभी जीती कभी हारी
लेकिन युद्ध कभी कोई हारा नहीं मैंने
Yes I never lost
You came as infinite in all my ends
And you came as monsoon in
All my deserts
Sometimes I think that unless you lose
How can I lose
Yes I would lose only if you’d lose
Every morning the sun of life arose
And evenings
Yes , In the evenings as the Sun gathered
All its rays
You also got assimilated in myself
In every moment of my life
I heard your footsteps
Though never looked for you
Yet I could feel your presence always
Whenever any darkness entered my room
Your rays whisked it away
In all my weak moments
It was your shoulder alone I could locate
Yes I did lose several battles but never lost a war

~ Kuldip Gupta ~
*(Kabir has said at a place that I would die if and only if you i.e, god dies)

Friday, May 11, 2007

Kavita

एक दिन मेरे मैं ने
झुंझला कर पुछा,
आखिर तुम क्यों लिखते हो कविता
आज जब पेट भरना ही एक विराट प्रश्न है,
तब जठरानल के सन्मुख निर्रर्थक है तुम्हारी कविता
बताओ क्या किसी का पेट भर पाई है तुम्हारी कविता।
और तो और महज कल और आज में क्या,
कुछ भी परिवर्तन ला पायी है तुम्हारी कविता।
क्या बन्दुक या परचम बन,
सरहद पर दुश्मनों से जुझ पायी है तुम्हारी कविता।
जब और्केष्ट्रा के सामने ही कभी
नहीं टिक पाई तुमहारी कविता।
तब आज रीमिक्स की चकाचौंध में
बिल्कुल बेमानी हो चुकी है, तुम्हारी कविता।
जब इन सबसे हो वाकिफ़,
तो फ़िर आखिरकार क्यों लिखते हो कविता।
तभी मानस पर मेरे कौंध गई कुरुक्षेत्र की कविता
जिसने परचम बन अर्जुन को क्षात्र धर्म का ज्ञान दिलाया,
और महाभारत को भी स्तुत्य बना गई थी वही कविता।
सिर्फ़ आज और कल का परिर्वत्तन ही नहीं
आज के गणतन्त्र की आधारशिला में भी थी
रुसो और वाल्टेयर की कविता।
भारत में आजादी की अनहद गूंज मे भी,
प्रतिध्वनित थी बकिंम चन्द्र की ही एक कविता।
शब्दों में अगर सत्य हो तो
सिर्फ़ एक इकाई ही नहीं
पूरे मानव जगत का पेट भर सकती है एक कविता।
जिस तिमिर के प्रथम प्रहर हैं Orchestra व Remix,
उस तिमिर को भेदने वाली
उषा की प्रथम किरण है कविता।
जब कवि और काव्य पात्र एकात्म होते हैं,
तब शब्दों में चित्र, भाव एवं संगीत की त्रिवेणी बहती है
यह त्रिवेणी जब कागज पर उतरती है,
तब वह होती है कविता।
आदि में था शब्द, और शब्द में था ईश्वर ।
इसीलिये ईश्वर सी सर्वशक्तिमान है कविता।
मैंने, मेरे वेताल रुपी मैं को समझाया
हां इसी महाशक्ति को साधने हेतू
निरन्तर मैं लिखता हूं कविता।

Thursday, May 10, 2007

That Moment

वह क्षण


हां वह क्षण
एक हकीकत का अनुभव
एक प्रकाश की अनुभूति
एक स्वतंत्रता का एह्सास
हां
यह वही क्षण था
जब मैंने तुम्हें आत्मसात किया था
तुम जो कि अनिवर्चनीय हो
तुम्हारे उस क्षण को कैसे बाँधू शब्दों में
एक लचर – सा मानस
ओर एक अपरिमित संचार
मेरे शब्द या मेरा मौन
कौन अधिक मुखर होगा
उस क्षण की मार्जना में
हां मेरे शब्दों का व्यास
उस अनुभव से अलग मेरा अपना है
लेकिन मेरे क ओर ख रेखा की घुरी
शून्य से ही शुरु होती है
इसीलिये मेरे शब्दों में भी पूरा सत्य ही होगा
यह खुशी जो मेरे चेहरे पर
अक्षुण्ण व्याप्त है

उसी अनुभव की परिचायक है
उसी क्षण मैंने तुम्हें पाया
या खुद को खोया, नहीं जानता
लेकिन एक नैसर्गिक आनन्द का अनुभव
कुछ ऐसा था
उस क्षण को आराध्य बना गया

Tuesday, May 08, 2007

Journey

यात्रा

मैं आखिरकार घर से निकल ही पड़ा
मेरा यह सफ़र मुझको
मुझको मुझ तक ले जाने को था
ड्गर अनजानी
मंजिल अनदेखी,
सिर्फ़ एक किरण का दिशा संकेत
ओर मैं पुर्णता की आदिम इच्छा का कम्पास ले
आखिरकार घर से निकल ही पड़ा।
इस यात्रा में किसी हमसफ़र के लिये
कहीं कोई जगह नहीं है।
मेरे साथ है
पुर्णता की प्रबलता इच्छा
एक उत्कंठा, ओर मेरा आधा मैं।
पूर्णता तो यात्रा की समाप्ति का पर्याय ही है।
इसीलिये इस रास्ते में,
वापसी का कहीं कोई पदचिन्ह नहीं है।
जो भी गया कभी लौट कर नहीं आया।