एक दिन या शायद एक रात
मैं अचानक उससे टकरा गया
पलट कर देखा
कुछ बिसरा सा पहचाना सा चेहरा दिखा
मैंने पुछा
क्या तुम वही हो
जिसकी दहलीज पर मेरी
मेरी मां ने ताउम्र दीप जलाये
या वह
जिसपर मेरे पिता ने अपने
अडिग विश्वास का लंगर डाल रखा था।
या वह
जिसका आस्तित्व एक कमजोर आदमी की बैशाखी सा।
या वह जिसका डर दिखला कर
मन्दिर का पुजारी
लोगों से पैसे ऐंठ अपनी जीविका चलाता था।
एक हल्की सी मुस्कान
एक मद्धिम सा स्वर
मेरे कानों में गुंजा
नहीं
ये सारी परिभाषायें
लोगों के अपने अपने दृष्टि भ्रम हैं।
मैं तो इन सबसे परे हूं ।
मुझे जानने के लिये पहले खुद को जानो
जिस दिन खुद को पहचान पाओगे।
उसी दिन मुझे भी जान जाओगे ।
मेरी उलझन देख
वह प्रतिभुति मुस्कराई
यह कठिन है
तो खुद को भुल जाओ
कबीर सा खुद को पहचानो
या मीरा सा खुद को भुल जाओ
इन के बीच की परिस्थिति में तो यार
मुझे जानने के तुम्हारे सारे प्रयत्न हैं बेकार।
Sunday, July 22, 2007
Sunday, July 15, 2007
The Strive
तुम्हारी खोज
मैने आरम्भ में तुम्हे ढुंढा
तमाम इबादत गाहों में।
वहाँ मिली
कुछ मुर्त्तियां
कुछ किताबें
कुछ दिशाहीन संकेत
इनमें ऐसा कुछ भी नहीं था
जो मुझे, तुम तक ले जाता।
थक हार कर
अन्त में मैने ढुंढा तुम्हें
अपने ही मानस के अन्दर
तमाम सीढ़ियां उतरीं
एक लम्बी जंग झेली
और तब आखिरी सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे
पाया तुम्हें।
तुम्हें पाने के पश्चात
सारे चित्र हठात् एक दुसरे में घुल गये
मैं समझ नहीं पा रहा था
कि, उस अन्तिम सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे जो मिले
वो तुम थे या मैं।
और फिर मैं और तुम एकाकार हो गये थे।
तुम रक्त बन कर दौड़ रहे थे
मेरी धमनियों में
तुम दृष्टि बन कर समाहित थे
मेरे चक्षुओं में
और अब सारा जग तुममय था
अब हर जगह तुम थे
वो तुम थे या मैं था
नहीं जानता
क्योंकि अब तुम और मैं तो
एकाकार हो चुके थे।
मैने आरम्भ में तुम्हे ढुंढा
तमाम इबादत गाहों में।
वहाँ मिली
कुछ मुर्त्तियां
कुछ किताबें
कुछ दिशाहीन संकेत
इनमें ऐसा कुछ भी नहीं था
जो मुझे, तुम तक ले जाता।
थक हार कर
अन्त में मैने ढुंढा तुम्हें
अपने ही मानस के अन्दर
तमाम सीढ़ियां उतरीं
एक लम्बी जंग झेली
और तब आखिरी सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे
पाया तुम्हें।
तुम्हें पाने के पश्चात
सारे चित्र हठात् एक दुसरे में घुल गये
मैं समझ नहीं पा रहा था
कि, उस अन्तिम सीढ़ी के पास
बन्द दरवाजे के पीछे जो मिले
वो तुम थे या मैं।
और फिर मैं और तुम एकाकार हो गये थे।
तुम रक्त बन कर दौड़ रहे थे
मेरी धमनियों में
तुम दृष्टि बन कर समाहित थे
मेरे चक्षुओं में
और अब सारा जग तुममय था
अब हर जगह तुम थे
वो तुम थे या मैं था
नहीं जानता
क्योंकि अब तुम और मैं तो
एकाकार हो चुके थे।
Friday, July 13, 2007
Democracy and common folk
गणतन्त्र का TRICKLE DOWN EFECT
सरकारी योजनायें
घोड़ों की नाईं खाती दाने
आम लोगों को उन योजनाओं
के लाभ के दाने
पहुंचते
उसी घोड़े की लीद की मार्फत
जनता चिड़िया सम
सड़क पर बैठ
उसी घोड़े की लीद से चुगती
अपने हिस्से के दाने
यही है गणतान्त्रिक प्रणाली
का “trickle down effect”
आज के गणतन्त्र का परिचय
गण यानि एक बेचारा
एक घुसपैठिया
एक ख्वाम्ख्वाह
एक परेशानी
एक बेवजह की अड़चन
एक आंकड़ा
और तन्त्र
एक स्वयंजीवी संस्था
स्वयं से, स्वयं के लिये, स्वयं के द्वारा
एक हथियार
सारे initiatives की हत्या के लिये
एक संस्था अधिकारों के निजीकरण के लिये
Government Plans( Like Horses)
Consume lot of Funds ( consume grains)
Supposed to generate benefit to common masses as a trickle down effect
But the common peoples benefit is equivalent to the
The undigested grains that pass thru the eusaphagus of horse
And exit along with his shit
Common people hv to remain satisfied with their share
By picking it out of the proverbial horse shit
In Indian Democracy
The all powerful individual is treated as DIRT by the govt.
And Govt is for the government , by the government and of the Government
It kills all the initiative
And usurps all powers from common folk.
सरकारी योजनायें
घोड़ों की नाईं खाती दाने
आम लोगों को उन योजनाओं
के लाभ के दाने
पहुंचते
उसी घोड़े की लीद की मार्फत
जनता चिड़िया सम
सड़क पर बैठ
उसी घोड़े की लीद से चुगती
अपने हिस्से के दाने
यही है गणतान्त्रिक प्रणाली
का “trickle down effect”
आज के गणतन्त्र का परिचय
गण यानि एक बेचारा
एक घुसपैठिया
एक ख्वाम्ख्वाह
एक परेशानी
एक बेवजह की अड़चन
एक आंकड़ा
और तन्त्र
एक स्वयंजीवी संस्था
स्वयं से, स्वयं के लिये, स्वयं के द्वारा
एक हथियार
सारे initiatives की हत्या के लिये
एक संस्था अधिकारों के निजीकरण के लिये
Government Plans( Like Horses)
Consume lot of Funds ( consume grains)
Supposed to generate benefit to common masses as a trickle down effect
But the common peoples benefit is equivalent to the
The undigested grains that pass thru the eusaphagus of horse
And exit along with his shit
Common people hv to remain satisfied with their share
By picking it out of the proverbial horse shit
In Indian Democracy
The all powerful individual is treated as DIRT by the govt.
And Govt is for the government , by the government and of the Government
It kills all the initiative
And usurps all powers from common folk.
Sunday, July 08, 2007
A Metropolis city
मैं कई सालों से
गुमशुदा लोगों के शहर
में रह रहा हूँ ।
यह उन लोगों का शहर है
जो अपने परिवार से
समाज से
सारे अपनों से गुमशुदा
विक्षिप्त इस शहर में रहने आ गये हैं।
इनके लापता विज्ञापनों के चित्र तो
छपे थे
लेकिन उन अधूरे, धुंधले चित्रों के
चेहरे नहीं होते
उनसे
उन्हें ढुंढ पाना तो कतई है असम्भव
ये अपने परिचय के सारे मानक
यथा नाम, जाति,धर्म, साकिन
अतीत के गर्भ में
कब का खो चुके हैं
न इनका कोइ भूत है
न भविष्य
इनकी मृत्यु !
ये चलते चलते गिर जाते हैं
और मर जाते हैं
मरणोपरान्त बिना किसी संस्कार के
तुरन्त ही शव गायब भी हो जाते हैं
इधर गिरे उधर लाश धुंआ हुई
बिना किसी परिचय के
इनका शोक समारोह भी नहीं सम्भव
मैं जब पुछता हूं कि
कौन मरा था
लोग विष्मय से मुझे देखते हैं।
जैसे कोई मरा ही न हो।
हां इन गुमशुदा अपरि्चित लोगों के शहर में
मुझे परिचय का मानक जरुर मिल गया है।
लोग मुझे पागल समझ्ते हैं।
गुमशुदा लोगों के शहर
में रह रहा हूँ ।
यह उन लोगों का शहर है
जो अपने परिवार से
समाज से
सारे अपनों से गुमशुदा
विक्षिप्त इस शहर में रहने आ गये हैं।
इनके लापता विज्ञापनों के चित्र तो
छपे थे
लेकिन उन अधूरे, धुंधले चित्रों के
चेहरे नहीं होते
उनसे
उन्हें ढुंढ पाना तो कतई है असम्भव
ये अपने परिचय के सारे मानक
यथा नाम, जाति,धर्म, साकिन
अतीत के गर्भ में
कब का खो चुके हैं
न इनका कोइ भूत है
न भविष्य
इनकी मृत्यु !
ये चलते चलते गिर जाते हैं
और मर जाते हैं
मरणोपरान्त बिना किसी संस्कार के
तुरन्त ही शव गायब भी हो जाते हैं
इधर गिरे उधर लाश धुंआ हुई
बिना किसी परिचय के
इनका शोक समारोह भी नहीं सम्भव
मैं जब पुछता हूं कि
कौन मरा था
लोग विष्मय से मुझे देखते हैं।
जैसे कोई मरा ही न हो।
हां इन गुमशुदा अपरि्चित लोगों के शहर में
मुझे परिचय का मानक जरुर मिल गया है।
लोग मुझे पागल समझ्ते हैं।
Wednesday, July 04, 2007
Satya
सत्य क्या है
सत्य एक सफर है।
इस सफर के सारे मील के पत्थर
सारे सत्य है।
लेकिन सारे अधूरे सत्य ।
सफर के
हर पड़ाव से शुरु होती है
एक नये सत्य की खोज
सनद रहे
सत्य कोई
स्कूली पाठ नहीं
कि अध्यापक ने पढ़ाया
और तुम ने याद कर लिया
हर सत्य की कोख से
प्रतिपादित होता है
एक नूतन व पृथक सत्य के लिये दिशा संकेत
फिर उस नयी दिशा में प्रवास
और एक और अनथक प्रयास
हर सत्य के साक्षात्कार से
उर्जा ग्रहण कर
निरन्तर यात्रा
नित्य एक नयी यात्रा
एक ग्रहणशील यात्रा
नित्य नये सूर्य के आह्वान के मानिन्द
यह यात्रा ही है एकमात्र सम्पूर्ण सत्य।
सत्य एक सफर है।
इस सफर के सारे मील के पत्थर
सारे सत्य है।
लेकिन सारे अधूरे सत्य ।
सफर के
हर पड़ाव से शुरु होती है
एक नये सत्य की खोज
सनद रहे
सत्य कोई
स्कूली पाठ नहीं
कि अध्यापक ने पढ़ाया
और तुम ने याद कर लिया
हर सत्य की कोख से
प्रतिपादित होता है
एक नूतन व पृथक सत्य के लिये दिशा संकेत
फिर उस नयी दिशा में प्रवास
और एक और अनथक प्रयास
हर सत्य के साक्षात्कार से
उर्जा ग्रहण कर
निरन्तर यात्रा
नित्य एक नयी यात्रा
एक ग्रहणशील यात्रा
नित्य नये सूर्य के आह्वान के मानिन्द
यह यात्रा ही है एकमात्र सम्पूर्ण सत्य।
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