Tuesday, July 09, 2013

चिंगारी और कविता




सायरन बजता है
सुरज ढलता है
और Boiler बुझा
दिहाड़ी मजदूर
चल पड़ता हैं
निश्चिन्त
कि आग तो बुझ गयी है
हां भट्टी में बस थोड़ी आंच है
जो थोड़े समय में
स्वतः ठण्डी हो ही जायेगी।

लेकिन तब भी Boiler की भट्टी में
बुझी राख के नीचे
अधजले कोयलों के बीच बची रहती है आग।
किसी हवा के झोंके की इन्तजार में

हां सुरज ढलने के बाद
कभी कभी
निःश्ब्द रातों में
अचानक बहती है हवा
उड़ती है राख
और धधक उठते हैं
सुलगते कोयले फिर से

बहना तो हवा की नियति है
लेकिन कब राख पर काबिज हो
और उड़ा दे राख को
इसमें उन कोयलों का
कोई नहीं है श्रेय

उन धधकते कोयलों से
निकलती हूंई चिंगारियां
स्फुलिंग की उर्जा लिये
मेरे जेब में रखे सफेद कागज को
अक्सर राख कर जाती हैं
मैं उस राख को समेट
मन्च से बिखेरता हूं
और तालियां बटोरता हूं।
सोचता हुं कि इस राख में मेरा क्या है
ये तो हवायें जो कभी बहती हैं
उत्तराखण्ड से, कभी बस्तर के जंगल से
और कभी गोधरा से
कागज तो ये जलाती हैं, राख बनाती हैं
हां अगर कुछ श्रेय या देय है
तो  है Boiler में दबी आग का
लेकिन वे ही चिंगारियां
मेरे मित्र की जेब में
बैंकों से मिले हरे कागजों को
जला नहीं पाती
 शायद उनपर रिजर्व बैंक के promissory note
के साथ
नैन दहति पावकः
का उद् घोष भी छपा है। 
  

2 comments:

रविकर said...

बढ़िया है भाई कुलदीप |
शुभकामनायें-

Rahul said...

Nice one...