सन् 1860 के दशक में भारत
में तीन महान विभुतियों ने जन्म लिया। तीनों ने भारत वर्ष के राष्ट्रीय नींव को
मजबूती प्रदान की। सन् 1861 में गुरुदेव
रवीन्द्र नाथ ठाकुर फिर सन् 1863 में स्वामी विवेकानन्द एवं सन् 1869 में महात्मा
गान्धी । स्वामी विवेकानन्द के सार्वजनिक जीवन की आयु महज लगभग 10 वर्ष की थी। इन
दस वर्षों में स्वामी विवेकानन्द ने भारत एक हारे हुये एवं हीन भावना से ग्रस्त
राष्ट्र में एक नयी आशा एवं साहस का संचार किया।
स्वामी जी भारत को एक
शक्तिशाली राष्ट्र के रुप में देखना चाहते थे। सन् 1947 में आजादी की पूर्व
सन्ध्या पर प्रसारित नेहरू जी ने अपने भाषण में जिस “TRYST
WITH DESTINY” की बात की था वह कहीं न कहीं
स्वामी जी की सोच से प्रभावित दिखती है।
स्वामी जी की राष्ट्र की
अवधारण पर चर्चा करने के लिये हमें कुछ मान बिन्दुओं पर ही अपनी चर्चा को सीमित
करना होगा।
1)
स्वामी जी के लिये
हिन्दुत्व या उपनिषद साधन थे लेकिन साध्य भारत वर्ष था। लोक्मान्य तिलक की भांति
स्वामी जी भी भारत के राष्ट्रवाद के आदि उग्घोषक थे।
2)
स्वामी जी का दृढ़
विशास था कि भारत राष्ट्र की जड़ें भारतीय सांस्कृतिक एकात्मता के साथ बद्ध हैं।
3)
स्वामी जी का राष्ट्रवाद
आध्यात्मिक साम्राज्यवाद का बिम्ब है।
1) स्वामी जी के लिये हिन्दुत्व या उपनिषद साधन
थे लेकिन साध्य भारत वर्ष था। लोक्मान्य तिलक की भांति स्वामी जी भी भारत के
राष्ट्रवाद के आदि उग्घोषक थे।
स्वामी विवेकानन्द का
प्रादुर्भाव जिस समय भारत में हुआ , उस समय भारत अत्यन्त विषम परीस्थितियों से
गुजर रहा था। तकरीबन 600 वर्षों की गुलामी ने इसे महज राजनैतिक ही नहीं बल्कि
मानसिक दासता का शिकार भी बना दिया था।
भारत ऐतिहासिक रुप से एक
राजनैतिक राष्ट्र कम व एक संस्कृति व धर्म के बन्धन से बन्धा हुआ राष्ट्र
ही अधिक रहा है। मुगलों के लम्बे शासन ने भारतीयों को भाग्यवाद से जोड़ पौरुष से
विमुख कर दिया था। धर्म पलायन का पर्याय हो चला था। ऐसे समय में स्वामी जी ने
सिंहपुत्र के नाम से भारत वासियों का आह्वान किया।
उन्निसवी सदी के उत्तरार्ध
में स्वामी विवेकानन्द का प्रादुर्भाव भारत के परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल सागर
मन्थन जैसा ही था। हिन्दु धर्म या स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रयुक्त शब्द
वेदान्तिक धर्म की श्री मद् भागवत गीता के प्रांगण से व्याख्या करते हुये धर्म को
कर्म के साथ जोड़ा। गीता के तीन योग अर्थात् राजयोग, कर्मयोग व भक्तियोग के साथ
सेवायोग को जोड़ा। एक Practical वेदान्त का विमोचन किया। जहां वेदान्तिक समाज धर्म को परलोक
के साथ जोड़ कर मीमांसा करता रहा था स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त को इहलोक में
प्रयोग के लिये आवश्यक दर्शन या जीवनोपोयोगी बताया।
स्वामी विवेकानन्द के
व्यक्तित्व में धर्म का भाव शक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। उन दिनों अंग्रेजी
साम्राज्यवाद अपने चरमोत्कर्ष पर था । इसी साम्राज्यवाद के साथ सलंग्न थी भारतीय सभ्यता एवं इतिहास के
प्रति एक घोर हेय दृष्टि। स्वामी जी ने इन
सब भर्त्सनाओं का उत्तर राष्ट्रवाद के मंच से दिया। उन्होंने सदियों से दबाये हुये
भारतियों में एक नूतन जागृति प्रदान की।
2) स्वामी जी का दृढ़ विशास था कि भारत राष्ट्र की जड़ें भारतीय सांस्कृतिक
एकात्मता के साथ बद्ध हैं।
स्वामी जी के वचनों में
राष्ट्रवाद व वेदान्तिक धर्म क एकसहज समागम मिलता है। भारत का राष्ट्रगीत
बन्देमातरम स्वामी जी के जीवन के धरातल के रुप में उभर कर आता है। बन्देमातरम गीत
की भांति स्वामी जी भारत की वर्तमान दरिद्रावस्था से द्रवित भी हैं और एक उज्ज्वल
भविष्य के लिये प्रयासरत भी। बंकिम चन्द्र के बन्देमातरम की पंक्ति कोटि कोटि
भुजाओं व कोटि कोटि कोटि कण्ट से उठने वाले निनाद पर विश्वास भी है।
स्वामी जी के विचारों में
आध्यात्मिकता के साथ साथ आधुनिक सोच के रंग भी मिलते हैं। सभी विभिन्न मत व धर्मों
के प्रति आदर कर एवं उन सबमें विद्यमान सार्थक बिन्दुओं को अपनी सोच में समाहित
कर, उन्होंने अपने लेखन में उन बिन्दुओं को स्थान दिया।
3)
स्वामी जी का
राष्ट्रवाद आध्यात्मिक साम्राज्यवाद का बिम्ब है।
स्वामी विबेकानन्द के राष्ट्रवाद में पश्चिमी
देशों के प्रति प्रतिस्पर्धा या वैमन्स्यता का भाव नहीं है। स्वामी जी उन देशों से भी काफी कुछ ग्रहण करने
की इच्छा रखते हुये, भारत को विश्वगुरु के रुप में देखते हुये दृढ़ विश्वास के साथ
उद्घोष करते हैं कि पश्चिम देश हो तकनीकी क्षेत्र व आर्थिक क्षेत्र में भारत से
काफी आगे है, भारत उन्हें आध्यात्म व जिन्दगी को सार्थक रुप से जीने के ज्ञान को
देने में सक्षम है। इसी ज्ञान को पश्चिमी देशों तक पंहुचाने के लिये सन् 1893 में
स्वामी जी अमेरीका के लिये प्रयाण करते हैं। वे पूर्व से पस्चिम की ओर जाने वाले
विगत 2500 वर्षों में पहले हिन्दु मिशनरी थे। जहां कार्ल मार्क्स जैसी शख्सियत ने
हिन्दु धर्म की भर्त्सना की थी, वहीं स्वामी जी ने पश्चिमी देशों में हिन्दुत्व या
वेदान्तिक दर्शन को सही रुप में प्रस्तुत कर अमेरिकी समाज को अचम्भित कर दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने एक जगह
कहते हैं कि “किसी भी वृहत् राष्ट्र का निर्माण कभी भी हीन
चरित्र वाले व्यक्तियों के हाथों नहीं हुआ है। अतएव “राष्ट्र निर्माण” के लिये पहली सीढी नागरिकों के चरित्र निर्माण से
ही शुरु होती है।“
स्वामी जी का सम्पूर्ण
दृष्टिकोण राष्ट्रवादी या यों कहें कि हिन्दु राष्ट्र वादी था तो अधिक सटीक प्रतीत
होता है। मूलतः हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद में काफी सामंजस्य परिलक्षित होता है। एवं
स्वामी जी के कथन व जीवन से इसके जीवन्त उदाहरण भी मिलते हैं।
एक घटना उन दिनों की है जब
भारत में अनेक स्थानों पर दुर्बिक्ष की परीस्थिति थी। उन्हीं दिनों एक शीर्ष संवाद
दाता व हितवादी समाचार पत्र के सम्पादक पण्डित सखाराम गणेश देउस्कर अपने दो मित्रों के साथ स्वामी जी से मिलने के
लिये पहुंचे। उनकी इच्छा स्वामी जी के मुख से किसी आध्यात्मिक विषय पर चर्चा या
संवाद की थी। लेकिन स्वामी जी सारे समय दुर्भिक्ष और उसकी विभिषीकाओं पर ही चर्चा
करते रहे। जाते जाते पण्डित देउस्कर ने अपनी निराशा जाहिर करते “स्वामी जी हमारा काफी समय व्यर्थ हो गया। हम काफी दुर से
आपसे धर्म व आध्यात्म पर चर्चा करने आये थे, लेकिन दुर्भाग्य से सम्पूर्ण चर्चा
मानवीय पीड़ा एवं प्राकृतिक आपदा पर ही होती रही।”
स्वामी जी ने उत्तर में
अत्यन्त संजीदगी के साथ कहा कि जब तक मेरे मुहल्ले का एक भी कुत्ता तक भी भूखा है,
उसे खाना खिलाना ही सच्चा धर्म है। अन्य सारे कृत्य या तो धर्म से विमुख है या
मिथ्या पूर्ण धर्म हैं।
इस वाक्य के मर्म को समझते
हुये पण्डित देउस्कर ने अपने जीवन काल में कई बार अपने भाषणों में इस वाकये को उद्धृत करते हुए कहा कि, “इस घटना के पश्चात ही मैं देश प्रेम के भाव से सम्पूर्ण भाव
से अवगत हुआ।“
स्वामी विवेकानन्द एक धूमकेतु की भांति विश्व
के व्योम मण्डल में प्रगट हुये और अति अल्प समय में धूमकेतु की भांति ही
अन्तर्ध्यान भी हो गये। महज दस वर्षों का सार्वजनिक कार्यकाल, एवं उन दस वर्षों
में उन्होंने भारत रुपी समुद्र का मन्थन करने का एक सुघढ़ प्रयास किया। उनकी
जन्मस्थली जरुर भारत की जमीन ही थी, लेकिन उनके व्यक्तित्व की व्यापकता को समग्र
विश्व में महसूस किया गया।
स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय
राष्ट्रीयता को अपनी विगत ऊंचाईयों पर आसीन कर भारतीयों के हृदय में एक नवीन
विश्वास की किरण पैदा की। उन्होंने अपना सारा जीवन राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने
लिये लगाया। इसी राष्ट्रीय चेतना कालान्तर में गान्धी व सुभाष के आन्दोलन की शक्ति
प्रदान की।