Sunday, December 11, 2011

Freedom of Press

मैने कक्षा सात में एक निबन्ध लिखा था कि “साहित्य समाज का दर्पण होता है”। वह सन 1966 की बात थी। बचपन से ही हिन्दी में खासे लम्बे लम्बे निबन्ध लिखता था।
आज 2011 के भी अवसान का समय है। तकरीबन 45 साल के बाद श्री कपिल सिब्बल जी के वक्तव्य कि हमें यानि भारतीय सरकार को फेसबूक,व गूगल जैसी सोशल नेटवर्किंग वाली साइट्स पर नियन्त्रण की आवश्यकता है, सुनकर अपना वही 45 वर्ष पुराना निबन्ध याद हो आया। महामन्त्री जी कहते हैं कि इन साइट्स पर किसी समुदाय विशेष पर की गयी टिप्पणियां किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती हैं। मूलतः अल्पसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं की रक्षा व ठेस लगने की अवस्था में उपजने वाली हिंसा का विषय प्रतीत होता है। चलो यहां तक तो सरकार पर सिर्फ अल्पसंख्यकों की तुष्टीकरण का दोष ही दिया जा सकता है। और यह तो भइ कांग्रेस की नीति तकरीबन् पिछले एक सौ वर्षों से रही है। जिन्ना के मना करने के बाद भी हमारे अत्यन्त आदरणीय गान्धी जी तक ने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिया किया था।
लेकिन आज तो फौरी मीडिया का युग है। कपिल सिब्बल जी के संवाद की स्याही सूखने के पहले ही गूगल का खुलासा आ जाता है कि पिछले एक वर्ष में भारतीय सरकर ने गूगल की साइट से जिन कथनों को आपत्तिजनक कह कर साइट्स से हटाने की मांग की थी, उनमें से 60% की वजह थी कि वे सरकार की आलोचना कर रहे थे व अन्य 10% किन्ही नेताओं की तथाकथित मानहानि कर रहे थे। धार्मिक विषयों पर की गयी टिप्पणियां जो सरकार की नजरों में आपत्तिजनक रहीं हैं,उनका आंकड़ा महज 2% का है। यानि कहीं पर तीर कहीं पर निशाना। सरकारी मंशा व सरकारी वक्तव्य में बहुत फर्क है। यह सीधे सीधे प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास है। औपचारिक मीडिया को “मैनेज” करना तो आसान है। आज के उपभोक्तावादी युग में हरे नोटों की गड्डियां व कुछ विशेष सुविधायें यथा सरकारी जमीन का मुफ्त के भाव में आंवटन या सी बी आई या एन्फोर्सेमेन्ट डाइक्टरेट का खौफ आदि द्वारा किसे नहीं खरीदा जा सकता। न्यायाधीश से लेकर सामाचार पत्र समूह के मालिक सब तय कीमतों पर अपना विवेक या अपनी चेतना गिरवी रखने को तैयार है। हकीकत भी यही है कि आज भारत में पैसों द्वारा खारीदा जा सकने वाला सर्वश्रेष्ठ मीडिया है। फिर चाहे वह प्रिन्ट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया सबने बोलियां लगा रखी हैं।
इन्टरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स तो चौपाल है। यह एक मात्र वह मीडिया है जो आम आदमी की बात को बिना किसी लाग लपेट या मुलम्मे के बेलाग कहता है। चुंकि इस मीडिया की दरफ्त में करोड़ों की संख्या में लोग आते हैं, इसे खरीदा नहीं जा सकता। सिर्फ बन्द किया जा सकता है। पिछले दिनों पाकिस्तान ने भी फेसबुक पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी थी। वहां तो फिर भी धार्मिक भावनाओं का प्रश्न था ,हज़रत मोहम्मद साहब की तस्वीर बनाने का मुद्दा था। यहां तो सिर्फ आइना दिखाने का मुद्दा था अब कपिल साहब नहीं नहीं उनके आकाओं को (कपिल साहब तो महज HMV हैं)समाज की ये हिमाकत बर्दाश्त नहीं हुई और दर्पण में दिखने वाली छवि पसन्द नहीं आई तो छवि को सुधारने के प्रयास की जगह दर्पण को तोड़ना अधिक सहज लगा।
आजादी की बेला यानि 15 अगस्त को गान्धी जी ने स्वाधीनता की परिभाषित करते हुये कहा था कि “स्वाधीन होने का अर्थ यह नहीं है कि सत्ता गोरों के अपेक्षा कालों के हाथ आजाये। वरन किसी भी गलत के विरोध करने की एक इकाई की क्षमता ही उसकी स्वाधीनता है।“
महाथीर मोहम्मद (इन्डोनेशिया के राष्ट्रपति) का वक्तव्य की भारत में गणतन्त्र की मात्रा चीन से अधिक होने के कारण भारत की प्रगति चीन की तुलना में कम हो रही है को एक साथ पढ़ने से एक द्वन्द सा मन में उठता है कि, क्या यह गणतन्त्र की व्यवस्था ही गलत है।
इसके उत्तर में मुझे द्वितीय विश्व युद्ध के सक्षम नेता श्री विन्सटन चर्चिल की उक्ति सहज ही उभर आती है कि “गणतन्त्र एक निहायत ही बेकार व बेहुदा किस्म का सरकारी ढांचा है लेकिन इसके बावजूद यह आज तक के अन्य सारे आजमाये हुये प्रशासनीय ढांचों से फिर भी कही बेहतर है”।
कुल निष्कर्ष यह है बहुदलीय गणतन्त्र की कुछ कीमते हैं। यहां हर इकाई को अलग अलग कर गिनना या उसकी सहमति का महत्व है। हमारे संविधान में इस स्वतन्त्रता की समुचित व्यवस्था है,व इसके साथ साथ स्वतन्त्रता के नाम पर उच्छृंखलता करने वालों के लिये दण्ड का भी सहज प्रावधान है। महाथीर जी के वक्तव्य की सच्चाई को आंकने के लिये कुछ गहराई में उतरना पड़ेगा। हां भारत में प्रगति की दर में गणतन्त्र कहीं कहीं बाधक होता रहता है। गणतन्त्र का अर्थ ही हर एक इकाई को अपनी बात कहने का अधिकार है और प्रशासन को उसकी बात सुनने की जिम्मेदारी। मेधा पाटकर अगर किसी प्रोजेक्ट के विषय में कुछ कहती है तो प्रशासन उसकी बात सुनने को बाध्य है।सिर्फ बहुमत द्वारा शासन गणतन्त्र नहीं होता।
मीडिया अगर सरकार की आलोचना कर रहा तो सरकार के लिये प्रसन्नता का विषय है कि मीडिया आजाद है। स्वतन्त्र मीडिया अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है,लेकिन जो मीडिया स्वतन्त्र नहीं है,वह महज् बुरा ही होता है।
अभी टीवी पर अकबर जोधा आ रही थी,व कीबोर्ड पर यह ब्लोग चल रहा था॥दोनो के संयोग से एक बात जो उभर कर आयी वह यह है कि संविधान गणतन्त्र को जन्म जरुर देता है लेकिन प्रेस की स्वतन्त्रता ही गणतन्त्र की दाई मां (फिल्म जोधा अकबर का एक मुख्य किरदार) होती है। गणतन्त्र को जिन्दा रखने का सारा दारोमदार इसी प्रेस की स्वतन्त्रता नामक दाई मां पर ही होता है। सिब्बल साहब दर्पण को तोड़ देने से महज “FAIREST OF THE ALL” का भ्रम पाला जा सकता चेहरे पर लगी स्याही नहीं मिटती। सन् 75 के आपातकाल को दोहराने का प्रयास न करें।इसका परिणाम सन् 77 में ही भुगतना पड़ गया था।
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