कबीर ने मुझे परिभाषित करते हुये कहा था:
जल में कुम्भ,कुम्भ में जल है।
बाहर भीतर पानी॥
फुटा कुम्भ, जल जल ही समाना।
यह तत कथौ ज्ञानी।
यानि आत्मा का परमात्मा में विलय का ही नाम मृत्यु है। लघु का विशाल में समन्वय ही मृत्यु है। लहर का समुद्र में समाहित हो जाना मेरा परिचय है। तत्काल उसके पश्चात उसी लहर में निहित जल से एक नयी लहर का पैदा होना भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब लहर का परिचय समुद्र के अंश के रुप में होता है तो मृत्यु या लहर की समाप्ति अपना स्वरुप खो एक स्वाभाविक महत्वहीन क्रिया हो जाती है।
मृत्यु या जिन्दगी में मृत्यु अधिक महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि बेंजामिन फ्रैकलिन के शब्दों में मृत्यु और Taxes ही जिन्दगी में अवश्यम्भावी हैं। यानि मरना तो सबके लिये जरूरी है।जिन्दगी तो बस कुछ थोड़े से लोगों के हिस्से में आती है।
लोग अन्यथा ही मृत्यु से भय पाते हैं। मरने वाला तो सब विषयों से मुक्त हो चिर शान्ति पा जाता है। शारीरिक या मानसिक कष्ट तो सिर्फ उनके हिस्से में आते हैं जो जीवित हैं। श्री अरविन्द ने तो मृत्यु को, हिन्दू धर्म के हवाले से evolution या विकास का उपादान बताया है। उनके विचार से मनुष्य भौतिक मृत्यु के पश्चात ही अपने उत्थान व जागरण के अगले सोपान की ओर कदम उठा पाता है। मानव के अतिमानव के राह में मृत्यु एक आवश्यक पड़ाव है। अन्यथा मनुष्य चिरन्तन अपनी स्थिति से सन्तुष्ट अगले सोपान के प्रति अनजान व विकास या evolution से वंचित रह जायेगा।
जैसा मैने अपने पिछले आलेख में कहा था मृत्यु या मेरे साक्षात्कार के समय जो लोग सर उठा कर जी पाते हैं , सिर्फ उन्हीं लोगों ने जिन्दगी जीयी है। नेपोलियन जिसने सम्पूर्ण योरोप पर शासन करने के प्रयास का दुःस्साहस किया था अपने अन्तिम क्षणों में कायरों की मौत मरा। उसके अन्तिम दिनों में वह पूरी तरह टूट चुका था।वह जब जेल गया तो उसके साथ उसके तकरीबन 35/40 मित्र स्वेच्छा से उसके साथ के हेतु जेल गये थे। उसके सारे साथी अल्प समय में ही अपने टूटे हुये नेपोलियन को बर्दाश्त करने में अक्षम पा ,एक एक कर उसे छोड़ कर चले गये। मैंने या मेरी विभीषिका ने नेपोलियन का सारा स्वरुप बदल दिया।
वहीं रामकृष्ण परमहंस कैन्सर से युद्ध रत एवं मृत्यु के सम्मुख भी शान्त रहते हैं। जब उनके शिष्य उनकी पीड़ा से आहत हो कर सहानुभुति में उनसे कहते हैं कि,”उनकी पीड़ा से उन्हें भी दर्द है,वे कहते हैं कि “दर्द तो जिन्दगी के आवश्यक अंग है। महत्व शान्ति का है और उनका चित सम्पूर्ण रुप से शान्त है।” उस अनपढ कालि के साधक ने मुझ पर पर सुकरात सम विजय पा ली थी और पारस सम जीया। नरेन्द्र नाथ दत्त को विवेकानन्द बना कर अपने पारस होने को सार्थक किया।
व्यक्ति के विस्मरित हो जाने में ही मृत्यु है। जब तक वह लोगों के मानस पटल है जीवित है,तब तक वह अवश्य ही जीवित है।यथा गान्धी की मृत्यु का कारण गोडसे की गोली नहीं,भारत वासियों का उन्हें irrelevant कर देना है। नेहरू जी ने दिल्ली के अशोका होटल को ग्रामीण शौचालाय से अधिक प्राथमिकता प्रदान कर गान्धी की हत्या की। गान्धी जितनी बड़ी शख्सियत की हत्या का सबब कभी भी अकेले अदने आम आदमी के बूते के बाहर का कार्य था।
मुझ पर विजय पा, जीने के लिये मुझसे मित्रता आवश्यक है। मुझे स्वीकार कर जीने में ही जीवन समुचित रुप से जीया जाता है। इसाई मतावलम्बियों में मृत्यु के पश्चात मृतक के चार परीचित, चर्च के प्रांगण में उसके विषय में अपनी अपनी राय प्रदान करते हुये अपना अपना संवाद प्रस्तुत करते हैं। इन में से पहला वक्ता अक्सर नजदीकि रिश्तेदार यथा पत्नी,पुत्र,भाई दूसरा वक्ता उसका पड़ोसी, तीसरा उसका सहकर्मी एवं चौथा उसके चर्च का पादरी होता है। मान लीजिये आप अपनी मृत्यु के समय के वक्तओं के इच्छित संवादों को लक्ष्य मान जीना आरम्भ कर पाते हैं तो वहीं से आपकी मित्रता मृत्यु से हो गयी है और आप अपनी जिन्दगी समुचित तौर पर जी पायेंगे। यथा आपके इच्छित संवाद अपने रिश्तेदार से होंगे कि आपने उसे बहुत प्यार किया एवं अपनी सारी जिम्मेदारियां बखुबी निभाई। यानि इच्छित संवाद को आंक कर आप अपने जिन्दगी के लक्ष्य को अंकित कर रहें हैं। और मृत्यु को स्वीकार व अंगीकार कर एक सार्थक जिन्दगी जी पायेंगे।
मृत्यु को जीते बगैर कोई भी व्यक्ति न तो जी सकता है और न मर ही सकता है। क्योंकि जो कभी जिया ही नहीं वह मर कैसा सकता है। इस सत्य के प्रतिपादन हेतु मार्टिन लुथर किंग ने कहा था कि “A person who does not have a cause worth dying, his life is not worth living”
चरम लक्ष्य है सुकरात या रामकृष्ण सम मृत्यु पर विजय पाने की।.
3 comments:
Ah, amazing one again. Is it really that Marna sab ke lie jaruri hai? Christians believe that Mother Mary went to the Paradise without dying, but in her whole body! Anyways. Very touching episode about Nepolean. So true about Ramakrishna, atma ko touch kiya apne jo likha. So true about Gandhi ji too. When Ya asked Yudhisthir, "Kim Purusham?" Yudhisthir had answered: Until someone''s good work and purushartha is being remembered in this world, until then he is a purush. So true about living life with intent to live life instead of managing death and conclusion. If we were to give Nobel Prize for a blog post, I would give it to you for this series... Thanks a lot from heart.. Regards..
बेहतर कहा है।
Achchha likha h. Sri Ramakrishna Dev rupi khseer sagar ki leheron ke kuchh chhinte mere blog Jigyasa-jpr par bhi h.
Post a Comment