विदेह*
हाँ
अब मैं विदेह हो गया हूं
आज के पहले
देह में आत्मा का होना
एक पीड़ा दायक स्थिति थी
हर उचित व अनुचित कृत्य
आत्मा के रास्ते से होते हुये
देह पर कुछ न कुछ
पदचिन्ह छोड़ जाते थे।
इनका बिम्ब मेरे व्यक्तित्व
पर निरन्तर हावी रहता
कभी कदम डगमगाते
कभी अपराध बोध से
मन सिहर जाता
अब आत्मा का देह से विच्छेद
काफी सकून मय है
यावम जीवेत
सूखम जीवेत
को पाथेय मान
अपनी आत्मा को लौकर में बन्द कर
अब मैं बहूत खुश हूं
अपने अधोपतन से निःस्पृह
आत्मा नहीं, मेरी देह
अब चिरयुवा
एवं नैनं दहति पावकः हो गयी है।
सारी यातनायें भोगती
लौकर में बन्द आत्मा
छिन्दन्ति शस्त्राणि हो
नित्य ही लहू लुहान हो रही है।
मेरे जीवन के वृत्त की धूरी
अब सिर्फ मैं ही हूं
अब मेरे किसी कृत्य की छाया
मेरे शरीर या व्यक्तित्व
को छू नहीं पाती।
क्योंकि उसको मुझतक पहुंचाने का सेतु
मेरी आत्मा
तो अब लौकर मे बन्द है।
सारे क्लेश आत्मा तक पहुंच
वहीं रह जाते हैं।
और चिरयुवा मैं,
सुख की नींद सो पाता हूं
क्योकिं मेरा और मेरी आत्मा का
अब सन्धि विच्छेद हो चुका है
और मुझ विदेह को ।
दुनिया, सफल व्यक्ति मान
राम रत्न से भी उच्च
भारत रत्न से सम्मनित करने को इच्छुक है।
विदेह= जनक का एक और नाम
2 comments:
कुलदीप जी, नमस्कार
आपके द्वारा भेजी पुस्तक 'श्री राम चेतना' आज मुझे मिली। आपका संपादकिय तो बहुत ही अच्छा लगा। आप 'समाज विकास' के लिये कुछ सामाजिक लेख भी लिखा करें। इसकी पिचले तीन माह की प्रति आपको कल डाक द्वारा भेज दूंगा। कृपाभाव बनाये रखेगें। आपका ही - शम्भु चौधरी
नोट: श्री भगतराम जी गुप्ता, यदि 'गुप्ता केबल' वाले ही हैं तो वे हमारे 'शाहजी" भी लगेगें।
kavita bahut achhi hai
ravindra torne mumbai
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