Wednesday, August 28, 2013

कविता का वेताल




आजकल कविता वेताल सम
अनचाहे ही कन्धे पर
सवार हो जाती है।
वेताल सम प्रश्न उठाती है
एवं उत्तर न दे पाने की अवस्था में
एक बार फिर पेड़ से उतर
मेरा कन्धा तलाश लेती है।
वो सामन्य से दिखने वाले प्रश्न भी
मुझे अक्सर निरुत्तर कर देते हैं।
अब जैसे कल ही का प्रश्न था
क्या समझौता ही जिन्दगी का पर्याय है?
मैं उत्तर नहीं जेब टटोल रहा था कि
बाबा अठन्नी लो और दूर हटो,
बोहनी हो जाये
फिर सोचुंगा कि समझौता या आस्था
जिन्दगी को जीने में
किसका वजूद भारी है।
नहीं ली अठन्नी कविता के वेताल ने
फिर आ बैठी कन्धे पर।

फिर मैं तो सांझ तक
सिर्फ बोहनी टोहता रहा
लेकिन कन्धा मेरा उसी वेताल को ढोता रहा
दिन सारा खोटा हुआ
इस वेताल को ढोने पर
और आखिर सूरज ढलने पर
कविता का वेताल तो पेड़ पर चढ गया
और मैं एक अद्धा चढा
रोज की तरह स्वय से लड़ गया॥
अब आज फिर सुबह
दुकान खोल, गल्ले को धूप दिखा
बैठा हूं
एक बार फिर बोहनी की तलाश में
कन्धा  आतंकित है
कविता रुपी वेताल की आशंका से
उसके प्रश्नों से
कहीं आज
फिर एक नया प्रश्न
ले पुनः न आ धमके॥
अब कन्धा पूछ रहा है
कि साफ बताओ क्या ढोऊं मैं
तुम्हारा ये वेताल या तुम्हारी दुकानदारी। 

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