आज की ताजा खबर
माओवादियों ने ट्रेन उड़ाई
पाँच मरे पचास घायल
कल तक यह खबर बासी हो जायेगी
पुलिस के खाते में एक आंकड़े के रुप में
दर्ज़ पायेगी ।
मैं सकुन से हूं की
मैं देश के उस हिस्से में नहीं रहता
जहां ये खबरें जन्म लेती हैं।
मेरे लिये चाय के प्याले के मानिन्द
दस मिनट में यह खबर,
ठण्डी और बेमानी हो जाती है।
राजा जानता है इस हकीकत को
पहचानता है अपनी
नपुंसक व असंवेदनशील प्रजा को।
निश्चिन्त है कि उसका महल
“ज़ेड” श्रेणी की सुरक्षा सीमा में आता है।
अदने से मुझ को कभी कभी बेवकूफी
का दौरा चढ़ता है।
और मैं जोरों से कहता हूं
हे राजन् इन बम बनाने वाले
हाथों से पूछो
कि क्यों ये कविता लिखने वाले
हाथ बम बनाते हैं।
राजा अपनी “ज़ेड” श्रेणी की
जड़ संवेदनशीलता के घेरे से
बाहर आये
इनकी पहचान से रुबरु हो
इनसे पूछे कि
क्यों इन पर इस सर्पिलि सुरंग में
बम लगा कर
रोशनी ढुंढने का उन्माद छाया है।
आसमान मोल देने को राजधानी
के हाट में मत बुलाओ
यहां ही इनके गांव में सूरज उगाओ।
राजधानी के हाट में ठगे जाकर ही
तो इन्होंने इस सर्पिलि सुरंग का रास्ता चुना है।
पहचाने उनके त्रास को
समझो कि ये महज आंकड़े नहीं
मनुष्य हैं।
Saturday, November 21, 2009
Saturday, November 07, 2009
Bande Matram and Fatwa
भारत शायद भूमण्डल का एक अकेला राष्ट्र होगा जिसके दो दो राष्ट्रीय गीत हैं। “जन गण मन” अधिकारिक या Official तौर पर एवं “बन्दे मातरम्” सम्मानित तौर पर। इस विडम्बना के पीछे एक लम्बा एवं विवादित इतिहास है।
“जन गण मन” स्व: रवीन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित है।यह गीत 1911 में सर्वप्रथम कांग्रेस के अधिवेशन में सम्राट जार्ज पंचम की उपस्थिति में गाया गया था। गुरुदेव के कथनानुसार उन्होंने इस गीत के माध्यम से दैवी शक्ति का आह्वान किया था एवं सम्राट जार्ज इस गीत के अधिनायक नहीं थे। इस समारोह के पश्चात इस गीत का कभी भी कोई राष्ट्रीय महत्व नहीं रहा।
बन्दे मातरम सन् 1870 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने ग्राम प्रवास के दौरान लिखा था।बाद में सन् 1882 में आनन्द मठ नामक उपन्यास में इसे गूंथ कर छापा गया।
सन् 1923 तक बन्दे मातरम् भारतीय आकांक्षाओं एवं अस्मिता का प्रतीक चिन्ह रहा।प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों की सभाओं में यह गीत गाया जाता था।
सन् 1905 के बंग भंग के खिलाफ छिड़ा आन्दोलन सम्भवतः ब्रिटिश भारत में पहला जन आन्दोलन था। इस आन्दोलन में हिन्दु व मुस्लिम दोनों वर्गों ने पूरे जोश के साथ हिस्सा लिया था। इस आन्दोलन का प्रेरणा गीत दोनो वर्गों के लिये “बन्दे मातरम्” ही था।
सन् 1923 में पहली बार काकीनाड़ा में हो रहे कांग्रेस सम्मेलन में मौलाना अहमद अली ने इस गीत का विरोध किया। मूल विरोध का विषय था कि इस्लाम खुदा के अलावा किसी की वन्दना करने की इजाजत नहीं देता और इस गीत में मातृभुमि की वन्दना की गयी थी। बाद में क्षेपक के और पर में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनन्द मठ की पृष्ठभुमि (मुस्लिम जमींदारों के खिलाफ) के कारण इस गीत को इस्लाम विरोधी करार देकर मुद्दा बनाया गया।
ये दोनों मुद्दे तथ्यों से परे सिर्फ अलगाव वादी राजनीति से प्रेरित थे।खिलाफत आन्दोलन,जो कि समग्र रूप से इस्लाम परक था, की सारी बैठकें “बन्देमातरम्” गीत से ही शुरु होती थी। तत्कालीन सारे मुस्लिम नेता यथा अली बन्धु,जिन्ना इस गीत के सम्मान में खड़े होते थे।
“बन्देमातरम्” गीत के ऐतिहासिक महत्व के सन्दर्भ में आनन्द मठ उपन्यास के पृष्ठभुमि की भुमिका अर्थहीन थी। इबादत या वन्दना का मुद्दा हास्यास्पद था। इस विषय में मौलाना अहमद रजा का 1944 में प्रकाशित लेख उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा था “”“हमारे कुछ मुस्लिम भाई जिन्दगी के कुछ साधारण तथ्य(जन्मभूमि का मातृभूमि रुप) को इबादत या बुत परस्ती का नाम देकर,नकारने का प्रयास कर रहें हैं।माता पिता के चरण स्पर्श,नेताओं के दीवार पर चित्र टांगना आदरसूचक हैं, इसे बुतपरस्ती की संज्ञा देना गलत है।मेरा निवेदन है कि इस गीत को एक पावन गीत के रुप में ग्रहण करें न कि बुतपरस्ती के रुप में।””
वाममार्गी इतिहासकार मजुमदार ने भी स्वीकार करते हुये कहा था कि “ सन् 1905 से 1947 तक बन्देमातरम् भारतीय राष्ट्रभक्तों का प्रेरणा गीत एवं हार्दिक अभिव्यक्ति थी। अंग्रेज पुलिसकर्मी की लाठी खाते हुये या फांसी के तख्ते पर यही गीत उनके होंठों पर था।”
Government of India act 1935 के तहत 1937 में जब चुनाव हुये 11 राज्यों में कांग्रेस की सरकार गथित हुयी। मुस्लिम्स लीग ने एक बार फिर बन्देमातरम् के विवाद को उठाया।इस बार कांग्रेस ने गुत्थी सुलझाने हेतु तीन व्यक्तियों,यथा नेहरू जी,सुभाष बोस एवं जिन्ना, की एक समिति गठित की। इस समिति ने तुष्टीकरण स्वरुप इस गीत को खण्डित कर प्रथम दो पदों को ग्रहण किया। अगले वर्ष पहली बार 1938 के कांग्रेसी अधिवेशन में सिर्फ पहले दो पदों को ही गाया गया।
अब मुस्लिम लीग ने और भी कड़ा रुख अपनाते हुये मांग की कि “V बन्देमातरम् गीत को सम्पूर्ण रुप से कांग्रेस पार्टी त्यागे,आनन्दमठ से इस गीत का निष्कासन करे एवं उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा आदि।” अब यह मुद्दा अलगाव वादी राजनीति का अंग बन चुका था। फिर भी जमीनी हकीकत यह थी कि बन्देमातरम् ही सभी स्वतन्त्रता सेनानियों का प्रेरणा गीत था।
स्वाधीनता के पश्चात भारत के सभी शीर्षस्थ नेता बन्देमातरम् को ही राष्ट्रीय गीत के रुप में देखना चाहते थे।
गांधी जी ने नेता 28अगस्त 1947 को कहा था कि बन्देमातरम् को लयबद्ध कर राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाये।
गान्धी जी ने “जन गण मन” के सन्दर्भ में कहा था कि यह एक धार्मिक गीत है।
महर्षि अरविन्द: बन्देमातरम् राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है अतएव इसे स्वतः ही राष्ट्रगीत की संज्ञा प्राप्त होती है।
नेहरू जी की अकेले की मुस्लिम तुष्टी करण की भावना ने बन्देमातरम् को दोयम स्थान दिला ““जन गण मन”” को राष्ट्रीय गीत का स्थान दिलवाया
बन्देमातरम् को मात्र एक गीत कह नकारना भारत के इतिहास को अनदेखा करना है।यह गीत हमारी भारत वर्ष की राष्ट्रीय धरोहर है। इसके खिलाफ फतवा जारी करना एक भीषण अलगाव वादी प्रक्रिया की परिचायक है।
पुनश्च् : बंग्लाभाषा की लिपि में “व” अक्षर की अनुपस्थिति इस गीत को आधिकारिक तौर पर बन्देमातरम् (बंकिम बाबु ने इसे बंग्लाभाषा में ही लिपिबद्ध किया था)ही सही है,वन्दे मातरम् नहीं।
“जन गण मन” स्व: रवीन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित है।यह गीत 1911 में सर्वप्रथम कांग्रेस के अधिवेशन में सम्राट जार्ज पंचम की उपस्थिति में गाया गया था। गुरुदेव के कथनानुसार उन्होंने इस गीत के माध्यम से दैवी शक्ति का आह्वान किया था एवं सम्राट जार्ज इस गीत के अधिनायक नहीं थे। इस समारोह के पश्चात इस गीत का कभी भी कोई राष्ट्रीय महत्व नहीं रहा।
बन्दे मातरम सन् 1870 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने ग्राम प्रवास के दौरान लिखा था।बाद में सन् 1882 में आनन्द मठ नामक उपन्यास में इसे गूंथ कर छापा गया।
सन् 1923 तक बन्दे मातरम् भारतीय आकांक्षाओं एवं अस्मिता का प्रतीक चिन्ह रहा।प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों की सभाओं में यह गीत गाया जाता था।
सन् 1905 के बंग भंग के खिलाफ छिड़ा आन्दोलन सम्भवतः ब्रिटिश भारत में पहला जन आन्दोलन था। इस आन्दोलन में हिन्दु व मुस्लिम दोनों वर्गों ने पूरे जोश के साथ हिस्सा लिया था। इस आन्दोलन का प्रेरणा गीत दोनो वर्गों के लिये “बन्दे मातरम्” ही था।
सन् 1923 में पहली बार काकीनाड़ा में हो रहे कांग्रेस सम्मेलन में मौलाना अहमद अली ने इस गीत का विरोध किया। मूल विरोध का विषय था कि इस्लाम खुदा के अलावा किसी की वन्दना करने की इजाजत नहीं देता और इस गीत में मातृभुमि की वन्दना की गयी थी। बाद में क्षेपक के और पर में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनन्द मठ की पृष्ठभुमि (मुस्लिम जमींदारों के खिलाफ) के कारण इस गीत को इस्लाम विरोधी करार देकर मुद्दा बनाया गया।
ये दोनों मुद्दे तथ्यों से परे सिर्फ अलगाव वादी राजनीति से प्रेरित थे।खिलाफत आन्दोलन,जो कि समग्र रूप से इस्लाम परक था, की सारी बैठकें “बन्देमातरम्” गीत से ही शुरु होती थी। तत्कालीन सारे मुस्लिम नेता यथा अली बन्धु,जिन्ना इस गीत के सम्मान में खड़े होते थे।
“बन्देमातरम्” गीत के ऐतिहासिक महत्व के सन्दर्भ में आनन्द मठ उपन्यास के पृष्ठभुमि की भुमिका अर्थहीन थी। इबादत या वन्दना का मुद्दा हास्यास्पद था। इस विषय में मौलाना अहमद रजा का 1944 में प्रकाशित लेख उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा था “”“हमारे कुछ मुस्लिम भाई जिन्दगी के कुछ साधारण तथ्य(जन्मभूमि का मातृभूमि रुप) को इबादत या बुत परस्ती का नाम देकर,नकारने का प्रयास कर रहें हैं।माता पिता के चरण स्पर्श,नेताओं के दीवार पर चित्र टांगना आदरसूचक हैं, इसे बुतपरस्ती की संज्ञा देना गलत है।मेरा निवेदन है कि इस गीत को एक पावन गीत के रुप में ग्रहण करें न कि बुतपरस्ती के रुप में।””
वाममार्गी इतिहासकार मजुमदार ने भी स्वीकार करते हुये कहा था कि “ सन् 1905 से 1947 तक बन्देमातरम् भारतीय राष्ट्रभक्तों का प्रेरणा गीत एवं हार्दिक अभिव्यक्ति थी। अंग्रेज पुलिसकर्मी की लाठी खाते हुये या फांसी के तख्ते पर यही गीत उनके होंठों पर था।”
Government of India act 1935 के तहत 1937 में जब चुनाव हुये 11 राज्यों में कांग्रेस की सरकार गथित हुयी। मुस्लिम्स लीग ने एक बार फिर बन्देमातरम् के विवाद को उठाया।इस बार कांग्रेस ने गुत्थी सुलझाने हेतु तीन व्यक्तियों,यथा नेहरू जी,सुभाष बोस एवं जिन्ना, की एक समिति गठित की। इस समिति ने तुष्टीकरण स्वरुप इस गीत को खण्डित कर प्रथम दो पदों को ग्रहण किया। अगले वर्ष पहली बार 1938 के कांग्रेसी अधिवेशन में सिर्फ पहले दो पदों को ही गाया गया।
अब मुस्लिम लीग ने और भी कड़ा रुख अपनाते हुये मांग की कि “V बन्देमातरम् गीत को सम्पूर्ण रुप से कांग्रेस पार्टी त्यागे,आनन्दमठ से इस गीत का निष्कासन करे एवं उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा आदि।” अब यह मुद्दा अलगाव वादी राजनीति का अंग बन चुका था। फिर भी जमीनी हकीकत यह थी कि बन्देमातरम् ही सभी स्वतन्त्रता सेनानियों का प्रेरणा गीत था।
स्वाधीनता के पश्चात भारत के सभी शीर्षस्थ नेता बन्देमातरम् को ही राष्ट्रीय गीत के रुप में देखना चाहते थे।
गांधी जी ने नेता 28अगस्त 1947 को कहा था कि बन्देमातरम् को लयबद्ध कर राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाये।
गान्धी जी ने “जन गण मन” के सन्दर्भ में कहा था कि यह एक धार्मिक गीत है।
महर्षि अरविन्द: बन्देमातरम् राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है अतएव इसे स्वतः ही राष्ट्रगीत की संज्ञा प्राप्त होती है।
नेहरू जी की अकेले की मुस्लिम तुष्टी करण की भावना ने बन्देमातरम् को दोयम स्थान दिला ““जन गण मन”” को राष्ट्रीय गीत का स्थान दिलवाया
बन्देमातरम् को मात्र एक गीत कह नकारना भारत के इतिहास को अनदेखा करना है।यह गीत हमारी भारत वर्ष की राष्ट्रीय धरोहर है। इसके खिलाफ फतवा जारी करना एक भीषण अलगाव वादी प्रक्रिया की परिचायक है।
पुनश्च् : बंग्लाभाषा की लिपि में “व” अक्षर की अनुपस्थिति इस गीत को आधिकारिक तौर पर बन्देमातरम् (बंकिम बाबु ने इसे बंग्लाभाषा में ही लिपिबद्ध किया था)ही सही है,वन्दे मातरम् नहीं।
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