एक समय था
जब मेरे शब्दों में थी
ठाकुर के हाथों सी ताकत
वो उठते तो
समय के ज्वार को
किनारे पर थाम लेते
हर अभिमानी के
अभिमान को
नकेल पकड़ कर
जमींदोज कर देते
और मैं बड़े फ़ख्र से कहा करता
समय,
बहुत ताकत है इनमें
ये शब्दजाल
महज कविता नहीं
फौलाद की जंजीरें हैं।
आज परिवार के मोहपाश ने
स्वार्थ के तिमिर ने
व्यवस्था के उत्कोच ने
गब्बर सा काट दिया है
मेरे बाजुओं को
मैं बाजुरहित
अवश्य , लेकिन लाचार नहीं
फिर से ढुंढ रहां हूं
गब्बर को
गब्बर ने अब अपना ठिकाना बदल लिया है
वह आजकल रामगढ़ के बीहड़ में नहीं
राजधानी में रहता है।
मैं अपनी छोटी सी तूती ले
उतरा हूं
नगाड़ों के कोलाहल के बीच
तूती को
अपनी
आवाज को अन्जाम देने के लिये
आकार या लम्बाई नहीं
वरन
चाहिये होती है
बजाने वाले की
गज़ भर की छाती
और उसके दो गजी फेंफड़ों में
बन्द गर्म हवा।
वो तो है मेरे पास
मुझे नहीं चाहिये
इस सामाजिक व्यवस्था से
कोई भारत रत्न
मुझे अपने परिचय के
मान चिन्ह ढुंढने हैं
स्कूल जाते
एक आदिवासी बच्चे
की मुस्कान में
एक ग्रामीण अबला के
सर पर
सजे स्वाभिमान के
आंचल में
उस वीरु और जय के साहस में
जिसने अब गब्बर के कुत्तों
को रोटी देने से मना कर दिया हो।
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