Saturday, November 21, 2009
MAOISTS
माओवादियों ने ट्रेन उड़ाई
पाँच मरे पचास घायल
कल तक यह खबर बासी हो जायेगी
पुलिस के खाते में एक आंकड़े के रुप में
दर्ज़ पायेगी ।
मैं सकुन से हूं की
मैं देश के उस हिस्से में नहीं रहता
जहां ये खबरें जन्म लेती हैं।
मेरे लिये चाय के प्याले के मानिन्द
दस मिनट में यह खबर,
ठण्डी और बेमानी हो जाती है।
राजा जानता है इस हकीकत को
पहचानता है अपनी
नपुंसक व असंवेदनशील प्रजा को।
निश्चिन्त है कि उसका महल
“ज़ेड” श्रेणी की सुरक्षा सीमा में आता है।
अदने से मुझ को कभी कभी बेवकूफी
का दौरा चढ़ता है।
और मैं जोरों से कहता हूं
हे राजन् इन बम बनाने वाले
हाथों से पूछो
कि क्यों ये कविता लिखने वाले
हाथ बम बनाते हैं।
राजा अपनी “ज़ेड” श्रेणी की
जड़ संवेदनशीलता के घेरे से
बाहर आये
इनकी पहचान से रुबरु हो
इनसे पूछे कि
क्यों इन पर इस सर्पिलि सुरंग में
बम लगा कर
रोशनी ढुंढने का उन्माद छाया है।
आसमान मोल देने को राजधानी
के हाट में मत बुलाओ
यहां ही इनके गांव में सूरज उगाओ।
राजधानी के हाट में ठगे जाकर ही
तो इन्होंने इस सर्पिलि सुरंग का रास्ता चुना है।
पहचाने उनके त्रास को
समझो कि ये महज आंकड़े नहीं
मनुष्य हैं।
Saturday, November 07, 2009
Bande Matram and Fatwa
“जन गण मन” स्व: रवीन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित है।यह गीत 1911 में सर्वप्रथम कांग्रेस के अधिवेशन में सम्राट जार्ज पंचम की उपस्थिति में गाया गया था। गुरुदेव के कथनानुसार उन्होंने इस गीत के माध्यम से दैवी शक्ति का आह्वान किया था एवं सम्राट जार्ज इस गीत के अधिनायक नहीं थे। इस समारोह के पश्चात इस गीत का कभी भी कोई राष्ट्रीय महत्व नहीं रहा।
बन्दे मातरम सन् 1870 में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने ग्राम प्रवास के दौरान लिखा था।बाद में सन् 1882 में आनन्द मठ नामक उपन्यास में इसे गूंथ कर छापा गया।
सन् 1923 तक बन्दे मातरम् भारतीय आकांक्षाओं एवं अस्मिता का प्रतीक चिन्ह रहा।प्रायः सभी राजनैतिक पार्टियों की सभाओं में यह गीत गाया जाता था।
सन् 1905 के बंग भंग के खिलाफ छिड़ा आन्दोलन सम्भवतः ब्रिटिश भारत में पहला जन आन्दोलन था। इस आन्दोलन में हिन्दु व मुस्लिम दोनों वर्गों ने पूरे जोश के साथ हिस्सा लिया था। इस आन्दोलन का प्रेरणा गीत दोनो वर्गों के लिये “बन्दे मातरम्” ही था।
सन् 1923 में पहली बार काकीनाड़ा में हो रहे कांग्रेस सम्मेलन में मौलाना अहमद अली ने इस गीत का विरोध किया। मूल विरोध का विषय था कि इस्लाम खुदा के अलावा किसी की वन्दना करने की इजाजत नहीं देता और इस गीत में मातृभुमि की वन्दना की गयी थी। बाद में क्षेपक के और पर में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनन्द मठ की पृष्ठभुमि (मुस्लिम जमींदारों के खिलाफ) के कारण इस गीत को इस्लाम विरोधी करार देकर मुद्दा बनाया गया।
ये दोनों मुद्दे तथ्यों से परे सिर्फ अलगाव वादी राजनीति से प्रेरित थे।खिलाफत आन्दोलन,जो कि समग्र रूप से इस्लाम परक था, की सारी बैठकें “बन्देमातरम्” गीत से ही शुरु होती थी। तत्कालीन सारे मुस्लिम नेता यथा अली बन्धु,जिन्ना इस गीत के सम्मान में खड़े होते थे।
“बन्देमातरम्” गीत के ऐतिहासिक महत्व के सन्दर्भ में आनन्द मठ उपन्यास के पृष्ठभुमि की भुमिका अर्थहीन थी। इबादत या वन्दना का मुद्दा हास्यास्पद था। इस विषय में मौलाना अहमद रजा का 1944 में प्रकाशित लेख उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा था “”“हमारे कुछ मुस्लिम भाई जिन्दगी के कुछ साधारण तथ्य(जन्मभूमि का मातृभूमि रुप) को इबादत या बुत परस्ती का नाम देकर,नकारने का प्रयास कर रहें हैं।माता पिता के चरण स्पर्श,नेताओं के दीवार पर चित्र टांगना आदरसूचक हैं, इसे बुतपरस्ती की संज्ञा देना गलत है।मेरा निवेदन है कि इस गीत को एक पावन गीत के रुप में ग्रहण करें न कि बुतपरस्ती के रुप में।””
वाममार्गी इतिहासकार मजुमदार ने भी स्वीकार करते हुये कहा था कि “ सन् 1905 से 1947 तक बन्देमातरम् भारतीय राष्ट्रभक्तों का प्रेरणा गीत एवं हार्दिक अभिव्यक्ति थी। अंग्रेज पुलिसकर्मी की लाठी खाते हुये या फांसी के तख्ते पर यही गीत उनके होंठों पर था।”
Government of India act 1935 के तहत 1937 में जब चुनाव हुये 11 राज्यों में कांग्रेस की सरकार गथित हुयी। मुस्लिम्स लीग ने एक बार फिर बन्देमातरम् के विवाद को उठाया।इस बार कांग्रेस ने गुत्थी सुलझाने हेतु तीन व्यक्तियों,यथा नेहरू जी,सुभाष बोस एवं जिन्ना, की एक समिति गठित की। इस समिति ने तुष्टीकरण स्वरुप इस गीत को खण्डित कर प्रथम दो पदों को ग्रहण किया। अगले वर्ष पहली बार 1938 के कांग्रेसी अधिवेशन में सिर्फ पहले दो पदों को ही गाया गया।
अब मुस्लिम लीग ने और भी कड़ा रुख अपनाते हुये मांग की कि “V बन्देमातरम् गीत को सम्पूर्ण रुप से कांग्रेस पार्टी त्यागे,आनन्दमठ से इस गीत का निष्कासन करे एवं उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा आदि।” अब यह मुद्दा अलगाव वादी राजनीति का अंग बन चुका था। फिर भी जमीनी हकीकत यह थी कि बन्देमातरम् ही सभी स्वतन्त्रता सेनानियों का प्रेरणा गीत था।
स्वाधीनता के पश्चात भारत के सभी शीर्षस्थ नेता बन्देमातरम् को ही राष्ट्रीय गीत के रुप में देखना चाहते थे।
गांधी जी ने नेता 28अगस्त 1947 को कहा था कि बन्देमातरम् को लयबद्ध कर राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाये।
गान्धी जी ने “जन गण मन” के सन्दर्भ में कहा था कि यह एक धार्मिक गीत है।
महर्षि अरविन्द: बन्देमातरम् राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है अतएव इसे स्वतः ही राष्ट्रगीत की संज्ञा प्राप्त होती है।
नेहरू जी की अकेले की मुस्लिम तुष्टी करण की भावना ने बन्देमातरम् को दोयम स्थान दिला ““जन गण मन”” को राष्ट्रीय गीत का स्थान दिलवाया
बन्देमातरम् को मात्र एक गीत कह नकारना भारत के इतिहास को अनदेखा करना है।यह गीत हमारी भारत वर्ष की राष्ट्रीय धरोहर है। इसके खिलाफ फतवा जारी करना एक भीषण अलगाव वादी प्रक्रिया की परिचायक है।
पुनश्च् : बंग्लाभाषा की लिपि में “व” अक्षर की अनुपस्थिति इस गीत को आधिकारिक तौर पर बन्देमातरम् (बंकिम बाबु ने इसे बंग्लाभाषा में ही लिपिबद्ध किया था)ही सही है,वन्दे मातरम् नहीं।
Sunday, October 25, 2009
Diwali
Sunday, September 27, 2009
Monologue by Death II
जल में कुम्भ,कुम्भ में जल है।
बाहर भीतर पानी॥
फुटा कुम्भ, जल जल ही समाना।
यह तत कथौ ज्ञानी।
यानि आत्मा का परमात्मा में विलय का ही नाम मृत्यु है। लघु का विशाल में समन्वय ही मृत्यु है। लहर का समुद्र में समाहित हो जाना मेरा परिचय है। तत्काल उसके पश्चात उसी लहर में निहित जल से एक नयी लहर का पैदा होना भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जब लहर का परिचय समुद्र के अंश के रुप में होता है तो मृत्यु या लहर की समाप्ति अपना स्वरुप खो एक स्वाभाविक महत्वहीन क्रिया हो जाती है।
मृत्यु या जिन्दगी में मृत्यु अधिक महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि बेंजामिन फ्रैकलिन के शब्दों में मृत्यु और Taxes ही जिन्दगी में अवश्यम्भावी हैं। यानि मरना तो सबके लिये जरूरी है।जिन्दगी तो बस कुछ थोड़े से लोगों के हिस्से में आती है।
लोग अन्यथा ही मृत्यु से भय पाते हैं। मरने वाला तो सब विषयों से मुक्त हो चिर शान्ति पा जाता है। शारीरिक या मानसिक कष्ट तो सिर्फ उनके हिस्से में आते हैं जो जीवित हैं। श्री अरविन्द ने तो मृत्यु को, हिन्दू धर्म के हवाले से evolution या विकास का उपादान बताया है। उनके विचार से मनुष्य भौतिक मृत्यु के पश्चात ही अपने उत्थान व जागरण के अगले सोपान की ओर कदम उठा पाता है। मानव के अतिमानव के राह में मृत्यु एक आवश्यक पड़ाव है। अन्यथा मनुष्य चिरन्तन अपनी स्थिति से सन्तुष्ट अगले सोपान के प्रति अनजान व विकास या evolution से वंचित रह जायेगा।
जैसा मैने अपने पिछले आलेख में कहा था मृत्यु या मेरे साक्षात्कार के समय जो लोग सर उठा कर जी पाते हैं , सिर्फ उन्हीं लोगों ने जिन्दगी जीयी है। नेपोलियन जिसने सम्पूर्ण योरोप पर शासन करने के प्रयास का दुःस्साहस किया था अपने अन्तिम क्षणों में कायरों की मौत मरा। उसके अन्तिम दिनों में वह पूरी तरह टूट चुका था।वह जब जेल गया तो उसके साथ उसके तकरीबन 35/40 मित्र स्वेच्छा से उसके साथ के हेतु जेल गये थे। उसके सारे साथी अल्प समय में ही अपने टूटे हुये नेपोलियन को बर्दाश्त करने में अक्षम पा ,एक एक कर उसे छोड़ कर चले गये। मैंने या मेरी विभीषिका ने नेपोलियन का सारा स्वरुप बदल दिया।
वहीं रामकृष्ण परमहंस कैन्सर से युद्ध रत एवं मृत्यु के सम्मुख भी शान्त रहते हैं। जब उनके शिष्य उनकी पीड़ा से आहत हो कर सहानुभुति में उनसे कहते हैं कि,”उनकी पीड़ा से उन्हें भी दर्द है,वे कहते हैं कि “दर्द तो जिन्दगी के आवश्यक अंग है। महत्व शान्ति का है और उनका चित सम्पूर्ण रुप से शान्त है।” उस अनपढ कालि के साधक ने मुझ पर पर सुकरात सम विजय पा ली थी और पारस सम जीया। नरेन्द्र नाथ दत्त को विवेकानन्द बना कर अपने पारस होने को सार्थक किया।
व्यक्ति के विस्मरित हो जाने में ही मृत्यु है। जब तक वह लोगों के मानस पटल है जीवित है,तब तक वह अवश्य ही जीवित है।यथा गान्धी की मृत्यु का कारण गोडसे की गोली नहीं,भारत वासियों का उन्हें irrelevant कर देना है। नेहरू जी ने दिल्ली के अशोका होटल को ग्रामीण शौचालाय से अधिक प्राथमिकता प्रदान कर गान्धी की हत्या की। गान्धी जितनी बड़ी शख्सियत की हत्या का सबब कभी भी अकेले अदने आम आदमी के बूते के बाहर का कार्य था।
मुझ पर विजय पा, जीने के लिये मुझसे मित्रता आवश्यक है। मुझे स्वीकार कर जीने में ही जीवन समुचित रुप से जीया जाता है। इसाई मतावलम्बियों में मृत्यु के पश्चात मृतक के चार परीचित, चर्च के प्रांगण में उसके विषय में अपनी अपनी राय प्रदान करते हुये अपना अपना संवाद प्रस्तुत करते हैं। इन में से पहला वक्ता अक्सर नजदीकि रिश्तेदार यथा पत्नी,पुत्र,भाई दूसरा वक्ता उसका पड़ोसी, तीसरा उसका सहकर्मी एवं चौथा उसके चर्च का पादरी होता है। मान लीजिये आप अपनी मृत्यु के समय के वक्तओं के इच्छित संवादों को लक्ष्य मान जीना आरम्भ कर पाते हैं तो वहीं से आपकी मित्रता मृत्यु से हो गयी है और आप अपनी जिन्दगी समुचित तौर पर जी पायेंगे। यथा आपके इच्छित संवाद अपने रिश्तेदार से होंगे कि आपने उसे बहुत प्यार किया एवं अपनी सारी जिम्मेदारियां बखुबी निभाई। यानि इच्छित संवाद को आंक कर आप अपने जिन्दगी के लक्ष्य को अंकित कर रहें हैं। और मृत्यु को स्वीकार व अंगीकार कर एक सार्थक जिन्दगी जी पायेंगे।
मृत्यु को जीते बगैर कोई भी व्यक्ति न तो जी सकता है और न मर ही सकता है। क्योंकि जो कभी जिया ही नहीं वह मर कैसा सकता है। इस सत्य के प्रतिपादन हेतु मार्टिन लुथर किंग ने कहा था कि “A person who does not have a cause worth dying, his life is not worth living”
चरम लक्ष्य है सुकरात या रामकृष्ण सम मृत्यु पर विजय पाने की।.
Sunday, August 30, 2009
A Monologue by Death
या तो लोग मुझे शेष का पर्याय मानते रहें हैं। या जिन्दगी में मेरी भुमिका से परीचित ही नहीं हैं।
यनि जिस तरह लोग अन्धेरे को न भेद पाने की अवस्था में अन्धेरे से डरते हैं या प्लेटो के चिर निरुत्तरित प्रश्न से उत्पन्न शून्य से भयभीत हैं ,उसी तरह मुझसे मुझसे भी खौफजदा हैं। प्लेटो का प्रश्न था मृत्यु के पश्चात क्या। यह प्लेटो के चार चिर निरुत्तरित प्रश्नों में से एक है।
मेरा पहला समुचित परिचय एवं प्लेटो के इस प्रश्न का उत्तर नचिकेता के विषम प्रश्न के उत्तर में यम ने दिया था। जिसे पूर्वी जगत ने कथोपनिषद के नाम से जाना। पश्चिमी जगत आज भी इस प्रश्न को निरुत्तरित ही मानता रहा है।
कथोपनिषद का परिचय था कि मृत्यु जीवन यात्रा का एक पड़ाव भर है। उसी सत्य को प्रतिपादित करते हुये गीता ने उदाहरण के द्वारा सरली करण करते हुये “वासंसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहोति नरो पराणि” के श्लोक का उद्घोघोष किया।
मै अपना आत्मपरिचय या आत्मविश्लेषण करते हुये कहूं, तो कहूंगा कि मनुष्य के मुझसे साक्षत्कार के काल के भाव में उसकी सारी जिन्दगी प्रतिबिम्बित हो जाती है। मैं उस क्षण उसकी सारी जिन्दगी को प्रतिबिम्बित करता हूं।
उदाहरण के तौर पर सुकरात की मृत्यु के दृश्य को देखें। सुकरात से जब उसके शिष्य पुछते हैं कि उसक अन्तिम संस्कार कैसा होने चाहिये तो वह कहता है कि “जो मर रहा है वह सुकरात है ही नहीं। न कोई उसे पकड़ सकता है और न हीं कोई उसे मार सकता है।” कितनी सत्यता है इस संवाद में। वो 476 एथेन्स वासी जिन्होंने सर्वसहमति से उसे मृत्युदण्ड दिया था,सब मर चुके हैं लेकिन कालजयी सुकरात आज भी उतने ही मुखर रुप में जिन्दा है। सुकरात के इस एक वाक्य या यों कहें कि उसकी मृत्यु की अवमानना, उसके जीवन के सारे रंगों की एक झलक तो दिखला देती है।
अरस्तु का शिष्य व सम्राट अलेक्जेन्डर अपनी मृत्यु के वक्त कहता है कि “उसके दोनों हाथ से ताबुत से निकाल कर रखे जायें। ताकि दुनिया जान सके कि आधी दुनिया जीतने वाला अलेक्जेन्डर भी खाली हाथा जा रहा है।” यह एक योद्धा के अन्तिम काल का आभास था कि वह व्यर्थ ही सारी जिन्दगी मृग की भांति मरीचिकाओं के पीछे दौड़ता रहा।
जहां सुकरात ने मुझे अच्छी तरह पहचान कर जिन्दगी समुचित रुप से जीयी, वहीं अलेक्जेन्डर जिन्दगी भर भ्रम में जीया और अपने अन्त काल में ही मुझसे परीचित हो पाया।
क्रमशः
Thursday, August 20, 2009
Islam and Democracy
तकरीबन अस्सी वर्ष पहले कमाल अतातुर्क ने पहली बार किसी इस्लामिक राष्ट्र में गणतन्त्र की स्थापना का प्रयास किया था। आज वहां भी धार्मिक संगठन सरकार के उपर अपनी प्रभुता काबिज कर पा रहें हैं। मेरे मानस पटल पर फिल्म निर्माता हिचकाक की एक घटना अनायास ही कौंध जाती है। हिचकाक अपनी गाड़ी चलाते हुये कहीं जा रहे थे। वे हठात बोल पड़े के “मैने इससे भयावह कोई दृश्य जिन्दगी में नही देखा है”। दृश्य था ‘सड़क के किनारे एक पादरी एक बालक के सर पर हाथ रख कर उससे बातें कर रहा था।‘ हिचकाक ने खिड़की से सर निकाला और जोर से कहा, “बच्चे भागो। तुरन्त इससे दूर भागो”। संगठानात्मक धर्म और संगठानात्मक अपराध दोनो में काफी सामंजस्यता है। दोनो को पूर्णरुपेण मिटाना असम्भव है। दोनो ही अपने अपने आकाओं के लिये विशाल धन का श्रोत सिद्ध होते रहें हैं।
धार्मिक या यों कहूं कि Religious संगठनों की प्रभुता, समाज में सोच खत्म करने की प्रक्रिया है। इस्लाम सिर्फ मजहब से परे एक सविधान देने पर आमदा है। कोई भी पुस्तक,धर्मग्रन्थ जहां जिज्ञासा या अन्वेषण पर प्रतिबन्ध लगायें वे आततायी हो जाते हैं।
जिस जमीन पर भी धर्मगुरु शासन पर हावी हो जायें वहां गणतन्त्र नहीं पनप सकता। कुरान या शरीयत में आम चुनाव को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। आज इरान में धर्मगुरुओं ने अपने आपको खुदाई या दैवी हवाले से आवाम के प्रतिनिधियों से वरिष्ठ घोषित कर रखा है। पाकिस्तान और भारत तो एक ही मां से जन्मे दो राष्ट्र हैं। भारत में चुंकि हिन्दुओं का बहुमत था, सेक्युलर विचार धारा बिना किसी आन्दोलन के स्वीकृत हो गयी है। गणतन्त्र भी इसी सिक्के का दूसरा पहलु है। शायद भारत विश्व में एक मात्र राष्ट्र है जहां गणतन्त्र एवं ADULT FRANCHISE को बिना किसी आन्दोलन या प्रसव पीड़ा के, पहले दिन से ही लागु कर पाया गया । वहीं पाकिस्तान जिसका जन्म जुड़वे भाई कि मानिन्द एक साथ ही हुआ , आज 62 वर्ष पश्चात भी कार्यकारी गणतन्त्र से कोसों दूर है।
अगर कोई धर्म अपने ग्रन्थों को सर्वोपरि मनने के लिये मजबूर करता है,वहां गणतन्त्र कभी पनप नहीं सकता। गणतन्त्र में आवाम सर्वोपरि होता है अन्य कोई भी मृत संस्था नहीं। सारे ग्रन्थ एवं तीर्थ स्थल मनुष्य की सोच के आगे बौने हैं।गणतन्त्र का अर्थ है कि हर एक व्यक्ति का महत्व या वजन बराबर रहेगा। हर इकाई को अपने मत का महत्व दिया जाना। किसी खलिफा या मुफ़्ती का वजन अन्य किसी भी नागरिक से अधिक नहीं होगा। गणतन्त्र के लिये नागरिकों को अपनी पारम्परिक पहचान में विशेष परिवर्तन की कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी।
इस्लाम का अर्थ है समर्पण। धर्म के प्रति पूर्ण समर्पण । यहीं से गणतन्त्र की परम्परा को आघात पहुंचता है। गणतन्त्र में महत्व शासन का है, तन्त्र का है। अन्य सभी मानक यथा कुरान या मौलवी की सत्ता इनके सामने गौण हो जाती है।
अपनी अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता,तर्क को किसी भी नियम से उपर की सत्ता,सत्य की कसौटी को सर्वोच्च पायदान आदि गणतन्त्र के मूलभुत नींव के पत्थर हैं। किसी भी DOGMA की कोई अड़चन गणतन्त्र की हत्या कर देगी।
अगर इस्लाम अपने प्रारुप में थोड़ा परिवर्तन स्वीकार कर ले,थोड़ा लचीलापन ले आये तो गणतन्त्र की स्थापना जरुर सम्भव है। अन्यथा नहीं।
Monday, July 20, 2009
Rakhi Savant and Rahul Gandhi
आजतक हमने तो दो ही स्वयंवर का उल्लेख सुना था।एक जिसमें शिवजी का धनुष तोड़ा गया था एवं दूसरा जिसमें मछली की आंख फोड़ी गयी थी। इस कलियुग में पहली बार तीसरे स्वयम्वर की चर्चा सुनी। राखी भौजी का स्वयम्वर।अब आप कहेंगे कि भौजी के स्वयंवर का क्या अर्थ है ? अरे भई जो भी धनुष तोड़ लेगा कोई न कोई “भाई” ही होगा। तो फिर इन्डिया में हो या न हो हमारे भारत में तो भावी भौजी को भी भौजी कहने का रिवाज है।
तो जनाब हम भी पंहुच गये राखी सावन्त का स्वयंवर देखने। इच्छा तो participate करने की ही थी। लेकिन कुंवारा होना उम्मीदवारी की अनिवार्य शर्त थी। अब भैया क्या पता उ स्वयंवर जीते या न जीते ,लेकिन उस की उम्मीदवारी में जो हम जीत चुके थे उसे तो नहीं गंवा सकते थे।
तो हमने पड़ोस के नेताजी को पटा कर दर्शक दीर्घा का पास बनवा ही लिया। अब ये बात और है कि हमारी संसद तक में दर्शक दीर्घा के पास पर भी मण्डप में प्रवेश सकता है , तो यह तो NDTV का स्टुडियो भर था। सोचा अगर मौका मिला तो ठीक वर्ना चलो दूल्हा नहीं तो कम से बाराती बन दावत तो मिल ही जायेगी । फिर गधे और नट की कहानी याद आयी। क्या पता लड़की रस्सी से गिर ही जाये। या फिर एक और भी सम्भावना थी कि जैसे BAYWATCH की Pamela भौजी ने अपनी हनीमून की विडियो राइट्स बेची थी क्या पता सीरीयल के निर्माता TRP के खातिर यहां भी ऐसा कुछ कर दें।तो भैये सम्भावनायें अनन्त थीं।
राखी जी के स्वयंवर की शर्तें बाहर वीडियो पर सुन्दर एनीमेशन के साथ नाच रहीं थी.:
शर्तें::
1) कुंवारा होना
2) जन्म कुण्डली मिलनी चाहिये
3) सार्वजनिक रुप से कभी किसी को किस्स नही किया होना चाहिये
4) कद लम्बा
5) रंग गोरा
6) उम्र : 25 से अधिक
7) तालीम : चेक पर दस्तखत करना आता हो।
8) अगर प्रेम पत्र अच्छे लिख सके तो एक अतिरिक्त योग्यता मानी जायेगी।
9) थप्पड़ खाने का तजुर्बा भी आवश्यक है।
9) सब उम्मीदवरों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने बैंक (स्विस) एकाउंट स्टेटमेंट साथ ले कर आयें।
10) शादी की मियाद बैंक (स्विस) स्टेटमेंट के अनुसार तय की जायेगी।
पर्दा उठता है। कोई एक श्रीमान भावी वधु का परिचय करवाते हैं।
ये राखी सावन्त हैं।
इनकी जबान तो बोलती ही है जिस्म उससे अधिक बोलता है।
सबजगह से बोलता है।
इनकी खासियत है कि ये खुद कितना भी नीचें गिरें, बस TRP उपर जानी चाहिये।
लोग इनसे थप्पड़ खाने के लिये भी कतार में खड़े रहते हैं। अब मीका को कोई नहीं जानता था लेकिन एक थप्पड़ ने उसकी तकदीर बदल दी। स्टेज शो एव स्टेज शो के पैसे दोनो मिलने लगे।
अब बगल में एक दिलजले (खट्टे अंगूर वाली लोमड़ी, किस्म के व्यक्ति) बैठे थे। उनसे रह नही गया। फुसफुसाते हुये कान के पास आ कहने लगे ,भाई साहब उस थप्पड़ से मीका की तकदीर तो खुली ही, साथ साथ राखी की तकदीर को भी चार चंद लग गये। इनसे शादी करने के बनिस्बत थप्पड़ खाना अधिक लाभ का सौदा है।
मैंने कहा भाई अभी तक तो मेरा या आपका दोनो(शादी का और थप्पड़ का) का ही कोई चान्स नहीं है। तो फिर दोनों के बीच मोल तोल क्यों किया जाये।
फिर तमाम कुंवारों का परिचय करवाया गया। भारत के सारे WHO’S WHO कुंवारे वहां उपस्थित थे। mahendra siमहेन्द्र सिंह धोनी से लेकर राहुल गान्धी तक।
राखी पहले उम्मीदवार के रुप में राहुल गान्धी से मुखातिब होती हैं।
राखी:: आपके बैंक एकाउंट से तो सारा देश वाकिफ है। स्विस भी और इटालियन भी। और आपकी नाम राशि भी हमारे नाम राशि से मिलती है।जब नाम राशि मिलती है तो कुण्डली भी मिल ही जायेगी। पेशे से आप किसान हैं ऐसा आपने लोकसभा के चुनाव अधिकारियों को बताया है।
भारत में आपसे अधिक अमीर किसान तो और कोई नही, होगा। बाकी अन्य खुबियां भी बताइये।
राहुल G :: अब देखिये तुम्हारी प्रेम पत्र वाली शर्त पर तो हमसे बेहतर कोइ नहीं होगा । हमने अपने प्रेम पत्र से पूरा उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान हिला दिया। तुम अपनी cleavageccleavagecc से तो सिर्फ झुमरी तिलैया ही हिलाती रही हो।
मेरे प्रेम के किस्से कोलम्बिया तक फैले हैं।
T R P के लिये जैसे लटके झटके तुम करती हो।मैं भी करता हूं। कभी किसी गांव में रात बिताता हूं, कभी दिहाड़ी
मजदूरी करता हूं। तुम्हारा भी सारा किरदार TRP पर निर्भर करता है मेरा भी। isaइस TRP के बाहर तुम भी और कुछ भी करने में अक्षम हो ,मैं भी। फर्जी युनिवर्सिटी की डिग्री, चुनाव आयोग में दाखिल कर चुनाव तो लड़ा जा सकता है। CORPORATE SECTORमें कोई नौकरी तो नहीं मिल सकती इसकी बिना पर।
बाकी उम्मीदवार जैसे महेन्द्र सिंह धोनी कि क्रिकेट की कोई जागीर तो है नहीं।बकौल गब्बर जब तक इसका बल्ला चलेगा तब तक इसकी TRP चलेगी। क्या पता बैंक एकाउन्ट पहले खत्म हो या TRP। तो फिर क्या मुकाबला है मुझमें और उसमें। यहां तो खानदानी जागीर है। कम से कम चार पुश्तों से तो चल ही रही है।
मिxxन्द वो तो हमारे मुनीम का बेटा है। युवराज के पास तो सिर्फ भारत के टटपुंजिया बैंकों की पासबुक ही है।
और फिर जब हमने एक हाथ से हाथी को पछाड़ दिया तो शिव जी का धनुष तोड़ने में क्या देर लगेगी।
मेरी मानो बाकी सब को दफा करो ।
यह सब सुनने के बाद राखी जी ने भी सीता मैया की जय का उद्घोष लगाया। मुझे तुलसी दास जी की चौपाइयां याद आ रहीं थी “याते सब सुधी भुल गयी।। कर टेक रही, पर टारत नाहीं”। तो भैये अब बिल्कुल राम राज्य आने को ही है। “अब हमारे चारण, विप्र, गण मिलि वेद पढ़ाईं” शुरु कर ही दें।
मध्यान्तर के बाद दूसरे एपिसोड की शूटिंग होनी थी। शूटिंग शुरु हुयी। राहुल भैया ने मंच पर आकर धनुष ढुंढना शुरू किया। राखी ने कहा देखो शायद पलंग के नीचे पड़ा होगा। राहुल ने धनुष निकाला, तो पाया कि वह तो पहले से दो जगह से टूटा हुआ था। राहुल ने कहा कि यह तो पहले से ही टूटा हुआ है। राखी ने झुंझलाते हुये कहा कि देखो मंए कब कहा कि यह मेरा पहला स्वयंवर है। तो। यह तो मेरा तीसरा स्वयंवर है। भइ यह क्या तमाशा है।
राखी: देखो मैं समझाती हूं। पहला स्वयंवर टू व्हीलर आलों में से हुया था। दूसरा फोर व्हीलर वालों में से था। अब आज तीसरी बार मर्सीडिज वालों के साथ स्वयंवर है। अब अधिक नखरा किये बिना एक कोने से तुम भी तोड़ लो।
तुम्हारी TRP भी पांच साल बाद मार खा सकती है। तो देखना कि धनुष में चौथे स्वयंवर के लिये भी प्रावधान बना रहे।
और उधर धोनी भी कह रहे थे कि भइ यहां तो मुख्य शर्त धनुष तोड़ने की थी। हमें भी मौका तो मिलना ही चाहिये।
अन्य लोगों ने सुर में सुर मिलाया। बगावत होने को थी।
राखी भौजी ने बड़ी समझदारी का परिचय देते हुये कहा कि छोड़िये ये सब। हम चारों को ही जीता घोषित कर चारों से ही ब्याह रचा लेते हैं। पिछली बार भी तो पांच पतियों के वरण का इतिहास है ही। अब मेरी बांछें खिल रहीं थीं कि ये तो चार ही हैं। क्या पता मीका नहीं यार मीका नहीं, छींका ,हां हमारे भाग्य का छींका टुट ही जाये।
Thursday, July 16, 2009
Meri Betiya
आज कुछ मानवीय सम्बन्धों पर लिखने की इच्छा हुई।मैं एक Mid aged पचासोत्तर उम्र का मारवाड़ी व्यवसायी हूं। मैं आज उम्र के जिस पड़ाव पर हूं, उस पड़ाव पर मेरे प्रायः हमउम्र मित्रों के पुत्र वयस्क हो चुके हैं ,एवं पारिवारिक व्यसाय में रत हैं।
इन समीकरणों मे अक्सर एक असंतोष देखने में आता है। कहीं पिता को पुत्र पर पूरा भरोसा नहीं है एवं पुत्र पांच या दस वर्षों के बाद भी Learning License वाली driving ही कर रहें हैं। कहीं पुत्र परिवर्तन चाहते हैं एवं पिता अपने पुराने Tried एवं Proven मार्ग से हिलने को तैयार नहीं हैं।
कारण कुछ भी हों,सम्बन्ध अक्सर तनाव मय हैं।
यह सब देख कर अक्सर प्रतीत होता है कि मैं खुशकिस्मत हूं कि मेरे कोई बेटा नहीं है,सिर्फ दो बेटियाँ हैं। सिर्फ कहना गलत है। सिर्फ कहीं न कहीं न्यूनता का भाव प्रदर्धित करता करता है। यहां तो बाहूल्य का मौसम है।
प्रधान मन्त्री श्री मनमोहन सिहं ने भी कुछ ऐसे ही भाव व्यक्त किये थे ,जब उन्हों कहा था कि "वे खुशकिस्मत हैं कि उनकी तीन बेटियां हैं कोई बेटा नहीं है। अगर उनके कोई बेटा होता तो वो कभी भी प्रधान मन्त्री नहीं बन सकते"।
स्वाभाविक तौर पर मेरे ढेर सारे अनुभव हैं इन बेटियों के बचपन के, किशोरवस्था के आदि।
मुझसे किसी व्यक्ति ने एक दिन कहा कि आपने अपनी बेटियों को बेटों की तरह पाला है। मैं चौंक गया कि, कहां चूक हो गयी। मेरा उत्तर था कि भाई साहब मुझे तो एक ही तरह से पालना आता है। बताइये कहां चूक हो गयी। पता लगे तो अब भी भूल सुधार कर लूं।
एक और शुभचिन्तक हितैषी अतिथि के रुप में घर आये थे। कहने लगे कि बेचारे कुलदीप के तो सिर्फ बेटियां हैं।कोई बेटा नहीं है। मुझे और मेरी वहां उपस्थित बेटियों को बेचारा शब्द बहुत नागावार गुजरा। अब अतिथि धर्म के सामने बहुत कुछ कहा भी नहीं जा सकता। मैं उनकी भावनाओं को भी समझ रहा था। फिर भी मैंने तुरन्त बेचारा शब्द पर ऐतराज करते हुये पूछा कि मैं कहां से उन्हें से बेचारा नजर आगया।अच्छा खासा व्यसाय चला रहा हूं। कभी मांगने के लिये हाथ नहीं उठाया। मेरी बेटियां मुझे तो अति प्रिय हैं। तो कमी कहां और बेचारगी कहां है।
प्रश्न है एक सही व्यक्तित्व के निर्माण का। फिर चाहें वे इन्दिरा नूयी बनें या सहज गृहणी कोई फर्क नहीं पड़ता।
Friday, May 01, 2009
WHY I AM A HINDU
The title of each work has been “Why I Am Not A Christian or Muslim or Hindu” Each of the authors Namely Nobel Prize winner Bertrand Russell, Ibn Al Rawandi and Illiah Kancha have looked up the discrepancies , blemishes in their respective religions and have espoused on them. It is healthy to criticize and introspect one’s belief. It is a prerequisite for evolution. Accordingly I would welcome all such works. Yet one must tread with caution with all such works. At least the one by Illiah Kancha is an
extremely superficial work and filled with Hatred. When one has been at the” receiving end “ of a social system, Loss Of Objectivity is an obvious fall out.
I am euphemistically a “Born Hindu”. Yet the phrase of being born Hindu or Muslim beats me. One is born a Human being. One is born of Hindu or Muslim parents. But no one is born with a religion. Why can’t it be like our professional careers, matter of simple choice, without any baggage to be discarded or vented against?
Coming to the Subject of the blog, Why I am a Hindu. Primarily one must define the premise first and then extrapolate from there. Hence the premise WHAT IS HINDUISM. I have read several articles expounding on the origin of the word Hindu and its Arabic origin. This intellectual exercise itself in Un Hindu. The word Hindu and its Arabic origin are absolutely irrelevant and all such deliberation is a mere intellectual diarrhea. Let us discuss its contents. There are several texts which have explained the Concept of Hinduism without using the word. Swami Vivekanand rejected the word outright and substituted it with Vedantik. Supreme Court of India too opined that one who believes and abides by Vedas and Upanishads is a Hindu.
Hindu is a DHARM disparate from Religion. Hinduism is a DHARM and not a religion. This is the first important input required to get even a faint understanding of Hinduism. All other systems of belief commonly known as RELIGION begin with a Founder and culminate in a BOOK. Once you have dead institution prevailing over intellect the “Man” becomes a “Great Beast” as described by Alexander Hamilton.
In Hinduism one of the important works is “Brahma Bhasya” by Adi Shankaracharya the 8th Century philosopher. The opening lines are “Atho Jigyasa Bhav”, “Let us question (Brahma the Creator)”. Signifying that everything all concepts are subservient to man’s intellect and subject to examination.
I would like to simplify the perception of Hinduism. An anecdote of an encounter of a Rabi and Goering illustrates percepts of Hinduism.
A Rabi was brought in the presence of Goering. Goerring maliciously told him that Talmud was a very ordinary book. There was nothing great about it. He did not understand why Jews accepted such an ordinary text with so much veneration. Rabi smiled and said “Mr. Goering , you have not been bale to understand Talmud”.
Goering took it as an affront and asked the Rabi to prove his contention.
Rabi said:”I would ask you three questions. If you are able to answer any one, I would accept that you have understood the Talmud”.
Goering in contempt asked him to go ahead.
Rabi : The First question,” Two men wearing WHITE clothes slide down a chimney. One emerges spotless, other all darkened with soot. Who will go for a WASH”?
Goering says, “Obviously one who has emerged all covered with dark soot, he will go for a wash”
Rabi,” Wrong! They look at each other. The one in spotless clothes sees other darkened guy and presumes that he has become dirty too and goes for a WASH. While the other guy looking at his friend all spotless believes that he too is spotless and does not go for a WASH”
Rabi: The Second question,” Two men wearing WHITE clothes slide down a chimney. One emerges spotless, other all darkened with soot. Who will go for a WASH”?
Goering: “It is the same question”.
Rabi, No It’s different.
Goering: “OK now I know the answer. The Guy with spotless clothes would go for a wash”.
Rabi: “Wrong. They are human beings and would not react such mechanically. The one with soiled and darkened clothes would go for a WASH”.
Goering got exasperated said,”OK! Let us have the last question”.
Rabi: The Third question,” Two men wearing WHITE clothes slide down a chimney. One emerges spotless, other all darkened with soot. Who will go for a WASH”?
Now Goering got really annoyed and said “What nonsense this question has been comprehensively answered and yet you pose again”.
Rabi: “No Mr. Goering, this is a fresh question. Please answer.”
Goering:” Well I don’t know of any third answer. Both the possible answers have already been tried”.
Rabi: “The correct answer is, it is impossible for one person to remain spotless and one dirtied, if both have undergone identical experience.” The correct answer to all three was this only. But you without referring to the Basics kept mulling over frivolous details”.
Hinduism too says one thing,”Go to the basics”.
The FOUR MAHAVAKYAS’ The Kernel of Upanishads’ emphasize that “Superimposition of WE over ME is God hood. Dharma is an attempt to manifest the inner self. Understanding ones own consciousness is DHARMA. Being a more alive and a conscious person is DHARMA”.
I would like to distinguish between Religion and Dharma with another analogy. We say “अग्नि का धर्म है जलाना”। now let us translate it verbatim. It would say “The Religion of Fire is to Burn”. The statement becomes meaning less. Hence it is evident that Religion and DHARMA are two very distinct ideas.
Most of the apologists decrying “Hinduism or Hindutva” do it by cognizing PRIESTCRAFT for Hinduism.
The level of discussion on Hindutva in the Talk shows in the media with Pygmies masquerading as Intellectuals is of the level of EKTA KAPOOR serials. Totally devoid of any substance. These talk shows are vain efforts to have a fabricated consciousness.
I am a Hindu as it TELLS ME “Aham Brahmasmi”. As it says “Atho Jigyas Bhav” as it says “Ekal Satya, Vipra Bahudha Vadanti”. As it liberates me to THINK and not be relegated to being a “Great Beast” of Alexander Hamilton.
Sunday, April 26, 2009
Karl Marx,Marxism and Hinduism
Karl Marx wrote about Hinduism being a religion of worshipping cows and monkeys. He called it a religion of absolute deprivation and forced ascetics. So he did have some knowledge of Hinduism but very evidently a second hand percept and a weak knowledge of Hinduism as a religion. His words and views merely reflected the views of the Christian missionary writers of that time. There is no record of his reading of any Hindu scriptures.
Any one who has studied Hinduism beyond the visible rituals would verily perceive his folly. Hinduism as practiced in Non Dualism as a philosophy is a precursor to communism. The Isa Upanishad shloka
Om Sahana Vavatu,Sahan Bhunaktu
Sah Veeryam Karvavahe
Tejaswina Vadhi Tamastu
Ma Vidvisha vahai
Om Shanti Shanti Shanti
.
Amply demonstrate the desire of an all round growth. Bahujan Hitay Bahu Jan Sukhay also speaks of Greater Good for Greater Mass.
Marxism also speaks about Mass Upliftment. About rule of the Workers.
The distinction being, Marxism professed physical force as an essential instrument. Whereas Hinduism lay more emphasis on Inner transformation and the Strength of Soul was construed as the applied force.
Initially Marx under Hegel too, to certain extent believed in the said percept of Inner Strength. Latter on he moved on to more physical domain with the influence of Feuerbach and Engels. Yet when Marx writes that “Emancipation of a Man is brought about by his completeness. By destruction of his ego. By his realization of his inner self devoid of other embellishments of citizenship and other trappings”. He is talking about Morality and Hinduism percepts are evident.in his statements.
When Swami Vivekanand says that to a hungry man Bread is his God. He though a great Hindu seer is talking Marxism.
Marx professed the rule of Proletariat. Vivekanand said the next leaders would be one who is “Dasasya Dasam” . Hinduism is of service to the Proletariat whereas Marxism is the Rule of Proletariat.
Marx is all but a failure today. Even during his life time he remarked “Thank god I am not a Marxist”. His most ardent successors both Lenin and Stalin were not Marxist in the real sense. The Mass Murders of your own fellowmen to promote your Concepts can not be termed as Marxism or rule of the Proletariat. Marx Marx did not believe in Party. He was an ardent supporter of Multi Party democracy and Press Freedom. He would had strongly objected to the sort of Governance where the Government derives its strength from Secret Police keeping an eye on its populace.
Marx looked at Hinduism as a religion with all its ill hackneyed rituals.He had no perception of “DHARMA”. The very fact that basically Hinduism was not a religion but a “DHARMA” was alien to him. His basic understanding of religion was borne out of semetic religions. Principally that of Christianity and to a much lesser extent Islam.
Wednesday, April 01, 2009
Illusions
इस गणतन्त्र की हाट में
मैं भ्रम बेचता हूं
सब तरह के भ्रम
रखे हैं मेरे झोले में
अलग अलग रंग
अलग अलग छाप के
पूरा विश्वास है आपको
आपकी पसन्द का भ्रम भी दे पाऊंगा
बताईये कैसा भ्रम ढूंढ रहें हैं आप
रंग बताइये आकार समझाइये
हां क्या कहा आपने
सफेद रंग में चाहिये है आपको
तो ले जाइये यह हाथ छाप भ्रम
पिछले पचास साल से एक ही माडल
ज्यों गुजरे समय की
अम्बासडर कार
मार्क एक से मार्क चार तक
कुछ अलग दिखने का भ्रम
फर्क सिर्फ नाम का
न फर्क किसी काम का
सिर्फ़ एक अकेला बिक रहा था इस बाजार में
यह तो पिछले पचास सालों में खुब बिका है
आपकी गराबी हटायेगा
आपके लिये
21 वीं सदी को सीधे सूर्य से
मोल ले आयेगा
भई खूब बिका है यह भ्रम
अच्छा कोई दूसरा माल दिखाऊं
तो भई ये ले जाइये
लाल रंग का भ्रम
इसके wrapper पर
छपी है एक मजदूर की तस्वीर
दम है कि इससे मिलता है
सर्वहारा वर्ग तक को
सुख और खुशहाली का भ्रम
इस भ्रम ने भारत में
मजदूरों के आराम के लिये
व्यापार-उद्योग बन्द करवाये
काम हराम है की धुन बजाई
निठल्लेपन के आराम से
बहुत ही दिलवाया है खुशहाली का भ्रम।
या ये ले जाइये भगवे रंग का भ्रम
इसकी विशेषता
जो wrapper पर छपी है
वह है राम के राज्य की तस्वीर
इसे मन्दिर की
लुभावनी शक्ल में ले जाइये
इस भ्रम से
लोगों को चमक तो नहीं
हां अपनी "SHINING" के ढेर
सारे नारे जरूर मिले
और भी बहुत से रंग व आकार
के भ्रम हैं मेरे झोले में
काले,हरे व पीले रंग के भ्रम
क्या पूछते हैं
कौन सा भ्रम मुझे पसन्द है
जिसे मैं पालता हूं
तो भाई साहब वह है
यह, बिन रंग व wrapper का
एक बेचारा सा भ्रम
जम्हूरियत में
एक आम आदमी,
एक अपग से आम आदमी की
लाचारी को परोसता
हर सवाल पर निरुत्तरित रह जाता
सर झुकाये पीठ पर
ढोता नामर्दगी
और पालता
अपने मर्द होने का भ्रम
अपने जिन्दा होने का भ्रम।
Sunday, March 22, 2009
Mirror
सिहर उठता हूँ
हर बार एक नया चेहरा
हर बार आईना
एक बिना धार के चाकु से
मेरे व्यक्तित्व का
कुछ न कुछ अंश
तराश ही देता है।
और फिर मुझे
इस क्षीण होते
व्यक्तित्व की विभीषिका
से भय लगता है।
कभी कभी प्रतीत होता है
कि सम्भवतः अगली बार
जब आईना देखूं
तो उसमें,
मेरा लुप्तप्रायः व्यक्तित्व
शायद नजर ही न आए।
अब अब इस सम्भावना से निजात हेतू
मैने हाल के
अपने बिखरे छितरे चेहरे को
समेट कर
उसकी एक तस्वीर बनवा ली है
समय कहीं बदरंग न कर दे,
इसीलिये इस तस्वीर को शीशे में मढ़ दिया है।
अब आईने में न सही
आईने के बाहर तो
कम से कम कहीं तो बचा रहेगा मेरा व्यक्तित्व
जिसे मैं खुद भी निहार पाउंगा
और परीचितों के समकक्ष भी
चाहे निष्प्राण ही
प्रस्तुत कर पाउंगा।
कहीं तो, इसी तरह बाकी रह जायेगा
ये मेरा चेहरा।
Malignant Mesothelioma
Saturday, February 21, 2009
Myth Of Mrs. Indira Gandhi Part -II
Mrs. Gandhi’s first major move was to arrange the dismissal of first Communist Government of Kerala elected in 1957.This was the first occasion in the world to see a Communist Government coming into power through Popular Mandate. Mrs. Gandhi who was AICC president spent party fund to woo MLA’s and organize the collapse of a democratically elected Government. Pundit Nehru the then PM was dismayed by this act of Mrs. Gandhi and called her a DICTATOR for her this deed. This was one of the first signs of things to come and her dictatorial traits.
She became Prime Minister in 1966. Her incompetence in the Parliament till 1969 gave her the nickname of “Goongi Gudiya” or the “Dumb Doll”.
She tried to break the mould by deceit in the Presidential Elections. Then to gain cheap popularity she broke all laws by “Nationalizing the Banks” and “Abolishing Privy Purse”.
She lost in court on both issues. Then she had to revert to extra constitutional amendments through Parliament. Abolition of Privy Purse was grossly illegal. Mrs. Gandhi engineered abrogation of trust with Government of India. After all the Privy Purse was borne out of an Agreement signed by Government of India. Its abrogation was Loss of Trust in Government Instruments.
Then came the infamous phrase “COMMITTED JUDICIARY”. Now it was deemed that even the Judiciary must come under the control of the Government of the day and pursue the policies of THE GOVERNMENT. It went against the basics of Independence and multi party democracy. Mrs. Gandhi in a bid to obtain “COMMITTED JUDICIARY” superseded Three Senior Judges and promoted a Junior Judge to the post of Chief Justice. Another Independent institution was made subservient to the INFAMOUS POLITICAL MASTERS.
Maybe some of the aforesaid events brought some benefits yet “A Rape can not be sanctified, even if the child borne out of the rape be as brilliant as Einstein”. Mrs. Gandhi was merely busy raping or destroying institution to strengthen her tentacles on Power. Any consequential benefit was merely a coincidence.
Mesothelioma
Sunday, February 08, 2009
Secularism and Indian Media
अभी हाल में तथाकथित धर्म सम्बन्धित दो घटनायें हुंई। पहली मैंगलौर में जहां किसी श्री राम सेना ने पब में शराब पीती हुई लड़कियों के साथ हाथापाई की और उन्हें वहां से भाग जाने पर मजबुर किया। एक सम्पूर्णतया निन्दनीय वाकया है। किसी व्यक्ति विशेष को किसी अन्य व्यक्ति पर अपनी मान्यतायें थोपने का कोई अधिकार नहीं है।कानून अपने हाथ में लेने वाले के साथ सख्ती से पेश आना सरकार की जवाबदेही है।
इसके साथ एक और प्रश्न उठता है मीडीया में इस घटना के प्रक्षेपण का । इस आम घटना को इतना तूल दिया गया कि मानो एक और मुम्बई घट रहा हो।सारे टी वी चैनेलों ने इस समाचार को काफी Prominence दी। आरोपी के किसी पुराने वक्तव्य से जोड़ कर उसे मालेगांव बम धमाके से जोड़ने का प्रयास भी किया। साथ ही तमाम "हिन्दुवादी संस्थाओं" यानि संघ से जुड़ी सभी संस्थाओं को भी बिना किसी सबूत के इस घटना के अप्रत्यक्ष दोषी के रुप में रंगने का प्रयास भी किया।
वहीं एक दूसरी घटना ::पांच फनवरी को अंग्रेजी के समाचार पत्र ने एक आलेख छापा "Why should i respect oppressive Religions". यह लेख ब्रिटिश समाचार पत्र "The Independent" से उद्धृत है। इस लेख में किसी भी "Oppressive Religion" के खिलाफ लिखा गया है। इसमें मूलतः इसाई एवं इस्लाम धर्म्गुरुओं की मानसिकता पर प्रश्न खड़े किये गये हैं।मूल मुद्दा है कि सोचने और विश्वास (Thought, belief) पर अंकुश लगाने का अधिकार किसी को नहीं है। किसी भी विषय पर स्वस्थ बहस स्वीकार्य ही नहीं लाजिमी भी होनी चाहिये।
ख़तिपय इस्लाम धर्मगुरुओं को यह लेख बहुत नागवार लगा। उन्होंए लिख कर पुलिस कमीश्नर को शिकायत की। यहां तक तो औचित्य या अनौचित्य से परे गणतान्त्रिक अधिकार की परिसीमा का उल्लंघन नहीं किया।
लेकिन 6 फनवरी और सात फनवरी लगातार दो दिन तक The Statesman की कलकत्ते की Office के बाहर अवैध प्रदर्शन एवं मार्ग अवरोध सीधे सीधे अपराध की श्रेणी में आते हैं।यह एक समाचार पत्र की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगानेए का कुत्सित प्रयास है। लेकिन कमाल है हमारी किसी भी SECULAR मीडिया ने इस समाचार पर दो शब्द की टिप्पणी भी नहीं की।कहां एक कुछ दसेक व्यक्तियों द्वारा पब में शराब पीती हुई लड़कियों के साथ की गयी हाथापाई और दूसरी तरफ एक सम्माननीय समाचार पत्र में छपे एक आलेख को लेकर एक बड़े जनसमूह द्वार शहर के एक प्रमुख मार्ग का दो दिनों तक अवरोध । समाचार पत्र में छपे आलेख का शान्तिप्रद विरोध करने का कानूनी तरीका भी है। अगर धर्म विरोधी या धार्मिक भावनाओं को उकसाने का आरोप साबित किया जा सके तो यह एक दण्डनीय अपराध है। लेकिन श्री राम सेना की तर्ज में इस्लामिक शक्तियों का कानून की परवाह न करना एक दण्डनीय अपराध है। उधर यहां चुंकि कलकत्ते में मुस्लिम अपराधियों की संख्या एव कारवाई को देखते हुये यह कहा जा सकता है।कि यह अपराध हर मायने में बैंगलौर की घटना से अधिक दण्डनीय है। लेकिन कलकत्ते की इस घटना को अन्य किसी भी समाचार पत्र या टी वी ने Cover ही नहीं किया। वहां मैंगलौर में पूर्व जानकारी के आधार पर मीडिया को बुला कर मिडिया की उपस्थिति में दस मिनट तक इस घटना को अन्जाम होने दिया गया। जब पूर्व जानकारी थी तो पुलिस को बुला कर इस अवांछनीय घटना से बचा जा सकता था।लेकिन तब सनसनी कैसे पैदा होती। मीडिया टी आर पी के लिये कुछ भी करेगा।
भारतीय मीडिया प्रतीत होता है कि सब समय हिन्दुओं के खिलाफ बोलने का मौका ढुढंता रहता है।
समाचार पत्र पर रोक लगाने का प्रयास अत्यन्त घृणित उपक्रम है।समाचार पत्र या टी वी को समाज के चौथे स्तम्भ के रुप में माना गया है।मीडिया हमारी सोच को ही प्रतिबिम्बित करता है । लेकिन नहीं इनके मापदण्ड अलग समाज के लिये अलग अलग है। किसी भी अल्पसंख्यकों के जुर्म को IGNORE करना और कहीं से भी हिन्दुओं के खिलफ कोई महक आजाये मीडिया का तुरन्त दौड़ पड़ना ।
मनुष्य और पशु में एक मात्र फर्क सोचने की शक्ति का है। वैचरिक व लेखन की स्वतन्त्रता सभ्य समाज का पहला सोपान है। एक चीनी कहावत है कि "Growth is the only sign of life" वहीं एन्गेल्स के कथनानुसार सोचना ही जिन्दगी का द्योतक है। हम सोच की हत्या कर समाज की हत्या कर रहें है।
एक शायर ने सही ही कहा है,
"हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
वो कत्ल तक कर देते हैं, चर्चा नहीं होती।"
Want to read the Statesman matter, "http://www.thestatesman.net/page.news.php?clid=1&theme=&usrsess=1&id=243412"
Mesothelioma And Veterans
Monday, January 26, 2009
Indira Gandhi the MYTH
कभी कभी कुछ लोग अज्ञानवश ऐसे भ्रम का शिकार होते हैं और कभी कभी तथाकथित उंची आवाज एवं larger then life छवि वाले लोग ऐसे भ्रम पैदा करवाने में सफल होते रहें हैं।इन्दिरा जी की राजनीतिक सूझबूझ,statesmanship या बहदुरी,एक मिथक के रुप में कफी समय से चर्चा का विषय रही है।आजके परिपेक्ष में इस मुद्दे पर चर्चा आज की परीस्थितियों का बेहतर आंकलन करने में सहायक होगी।
वहां: सन 1971 में पाकिस्तान के आम चुनाव के पश्चात पूर्वी पाकिस्तान की आवामी लीग का बहुमत पश्चिमी पाकिस्तानी के आकाओं एवं पंजाबी बाहुल्य पाकिस्तानी सेना को बिलकुल भी गवारा नहीं था। पुर्वी पाकिस्तानी या वहां का बंगाली पश्चिमी पाकिस्तान में हमेशा से दोयम दर्जे का गरीब व मूर्ख नागरिक माना जाता था। इन मान्यताओं के बीच इस्लामाबाद की गद्दी एक बंगाली को सौंप देना , तात्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान को गवारा नहीं हुआ। फलस्वरुप जनमत कुचलने हेतू सेना द्वारा दलन और कत्ले आम का कुचक्र चलाया जा रहा था। अल्प समय में ही पाकिस्तानी सेना पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश में दुश्मन सेना हो चुकी थी।
यहां: इन्दिरा गान्धी को सन 1966 में कुछ मनसबदार नेताओं, ने अपने स्वार्थ वश, भारत का कठपुतली प्रधानमन्त्री बनाया । उनकी प्रधानमन्त्री के रुप में जो छवि थी कि मोरारजी भाई ने उनको गुंगी गुडिया की पदवी दे डाली। सन 1969 तक इन्दिरा जी संसद में पूरी तरह अपनी अक्षमताओं का परिचय दे चुकी थी। सन 1969 में राष्ट्रपति चुनाव में अभूतपूर्व भितरघात करते हुये अपने ही द्वारा नामांकित उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार कर उसे हरवाया। सन 1967 के चुनाव में वैसे भी कांग्रेस की स्थिति बिगड़ चुकी थी। सन 1971 में इन्दिरा गान्धी की संसद स्वयं अपनी स्थिति भी काफी कमजोर थी।
युद्ध : इन्दिरा गान्धी को इस पृष्ठभुमि में अपनी कमजोर स्थिति से उबरने का एक अवसर नजर आया। पूर्वी बंगाल से काफी तादाद में हिन्दु शरणार्थी भारत आ रहे थे।उन्हीं दिनों भारत के एक विमान का अपहरण कर भुट्टो की नजरों के सामन्र लाहौर हवाई अड्डे पर उड़ा दिया गया। पूर्वी पाकिस्तान में जनमत देखते हुए इन्दिरा गान्धी ने शनैः शनैः भारतीय सेना को मुजीब वाहिनी के भेष पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करवाया। जब दिसम्बर के महीने में अधिकारिक रुप से युद्ध शुरु हुआ तब तक वहां, पाकिस्तानी सेना सम्पूर्ण रुप से HOSTILE TERRITORY में थी। इस लिये युद्ध जीतना आसान हो चुका था।
परिणाम: बहुचर्चित धारणा है कि भारत को इस युद्ध से काफी लाभ हुआ है। मेरी धारणा है कि बांग्लादेश की आजादी भारत के लिये लाभ नहीं हानि का सौदा था। सन 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान आर्थिक रुप से पाकिस्तान एक एक गरीब अंग था। सन 1971 के युद्ध के पहले पाकिस्तानी सेना अपने नरसंहार के द्वारा वहां तकरीबन तीस लाख लोगों का खून बहा चुकी थी। पूर्वी पाकिस्तान के प्रति पश्चिमी पाकिस्तान का रवैया कभी भी सौहार्द पूर्ण नहीं रहा था। भाषा के मुद्दे पाकिस्तान के दोनों धड़ों में गहरे मतभेद व्याप्त थे। इन सब के बीच अगर इन्दिरा जी ने सूझबूझ का परिचय दे वहां सिर्फ गृहयुद्ध को ही बढावा दिया होत्ता , तो शायद आजतक पाकिस्तान का पूर्वी अंग, पाकिस्तान का भारी रुप से रिस रहा कैन्सर का फोड़ा बन कर पाकिस्तान को अन्दर ही अन्दर कमजोर कर रहा होता। पूर्वी पाकिस्तान की शेष पाकिस्तान से भौगोलिक दूरी उसे कभी भी एक Contiguous/Harnonious प्रदेश का रुप लेने नहीं देती। भाषाई मतभेद और अपरोक्ष भारतीय हस्तक्षेप इस हिस्से को पाकिस्तान के लिये एक बड़ी समस्या के रुप में जीवित रखने में कामयाब होता। और फलस्वरुप काश्मीर और आतंकवाद की समस्या आज की तुलना मे 10 प्रतिशत भी नहीं हो पाती।
Malignant Mesothelioma
Sunday, January 18, 2009
Cross of Secularism
भारत आरम्भ से ही धर्म निरपेक्ष राज्य रहा है। यों SECULAR शब्द को संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ने का श्रेय श्रीमती इन्दिरा गान्धी का है। घुसेड़ने शब्द का प्रयोग बहुत ही प्रासंगिक है। जब सन 1947 से ही 'सर्व धर्म सम्भाव' की भावना एवं कार्यप्रणाली हमारे तन्त्र का आवश्यक अंग थी,तो इसे संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ना, श्रीमती गान्धी द्वारा किया गया सिर्फ एक सस्ती लोकप्रियता भुनाने का प्रयास भर था।
वैसे धर्म निरपेक्षता और Secular दो अलग अलग संज्ञायें हैं। साधारणतया Secular शब्द का अर्थ होता है धर्म विहीनता या धर्म की अनुपस्थिति जबकि धर्म निरपेक्षता का अर्थ है 'सर्व धर्म सम्भाव' या आधिकारिक रुप से किसी भी विषय पर धर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेना। इस सारे संवाद में एक मूलभुत कठिनाई है। अंग्रेजी में 'धर्म' के लिये कोई शब्द है ही नही, तो 'धर्म निरपेक्षता' के लिये अंग्रेजी शब्द ढुंढना पूर्णतया बेमानी है।
शायद संविधान में धर्म और RELIGION के फर्क को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। इसीलिये secular शब्द को घुसेड़ कर इन्दिरा गांधी ने मूर्खता या बाजारु Populist प्रक्रिया का परिचय भर ही दिया है।
अगर हम मूल भावना की ओर जाते हैं तो धर्म निरपेक्ष अधिक सही बैठता है। Secular या धर्म विहीनता मनुष्य को इन्सानियत से ही परे कर देती है।
यहाँ महात्मा गांधी को उद्धृत करना अत्यन्त प्रासंगिक है। गान्धी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि भारत में राजनीति एवं धर्म को अलग अलग नहीं किया जा सकता। इस संवाद को समझने के लिये गांधी जी को एवं धर्म शब्द को परिभाषित करने की आवश्यकता है। अरविन्द घोष ने कहा था कि सनातन धर्म के उत्थान व जागरण में ही भारत का उत्थान व जागरण निहित है।
विश्व में हिन्दू धर्म एक अकेला ऐसा धर्म है,जो किसी भी भौगोलिक राष्ट्र के संरक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं करता। ब्रिटेन जैसे अग्रणी राष्ट्र का राज्य धर्म Protestant है। अमेरीका में अलग अलग प्रान्तों के अलग अलग अलग राज्य धर्म हैं।
भारत का एक तथाकथित अभिजात्य या बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुत्व शब्द मात्र को ओछा एवं घृणित मानने लगा है।सरकार की प्रत्यक्ष एव अप्रत्यक्ष सोच यह ही है कि यहां सिर्फ हिन्दुओं को ही धर्मनिरपेक्ष रहना है,अन्य सभी धर्म वालों को मनमानी करने के सारे अधिकार हैं। अंग्रेजी की कहावत की "To Bear One's Cross" हिन्दु चुंकि एक Majority है और जांत पांत के नाम पर बंटी हुई है और अल्पसंख्यक समुदाय का वोट बैंक है इसलिये हिन्दुओं को चुपचाप सरकारी apartheid सहन करना लाजिमी है। यानि secularism का "Cross Bear" सिर्फ बहुसंख्यक की जिम्मेदारी है। शेष समाज अल्पसंख्यक के नाम पर महज 10% अंक प्राप्त भर कर लेने से secular का दर्जा प्राप्त कर लेता है लेकिन हिन्दुओं के लिये पास मार्क्स 100% हैं।
भारत में secularism एक ऐसा शब्द हो गया है कि आप हिन्दु शब्द का उच्चारण मात्र करने से या तिलक लगा लेने से Fanatic या कम से कम non secular की परिधी में तो आ ही जाते हैं। कुछ हद तक हिन्दी प्रेमी भी सन्देह के घेरे में तो आ ही जाते हैं। अगर आपको सेक्युलर दिखना है तो अंग्रेजी में बातें कीजिये,अंग्रेजी में लिखिये।
सर्वोच्च न्यालाय ने भी धर्मान्तरण को धर्म निरपेक्षता के दायरे में रखने से मना किया है। तथापि कुछ राज्यों में यथा ओड़ीशा में लागु "Freedom of Religion Act" को अल्पसंख्यकों ने धार्मिक कट्टरवाद की संज्ञा दी है। सर्वोच्च न्यालाय ने कहा था प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने,प्रचार करने एवं प्रसार करने की स्वतन्त्रता है। लेकिन धर्मान्तरण प्रचार एव प्रसार की परिसीमा के बाहर है। किसी भी व्यक्ति या समूह को प्रलोभन या अन्य किसी प्रकार के मिथ्याचरण से वशीभुत कर धर्मान्तरण करवाना उस व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है। स्वामी विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा है कि, एक धर्मान्तरित हिन्दु से सिर्फ एक हिन्दु की संख्या कम ही नहीं होती है,वरन एक शत्रु की संख्या भी बढ़ जाती है।
इसाई प्रचारकों के अनेक संवाद हैं जहां धर्मान्तरण को अत्यन्त महत्व दिया गया है। यहां तक कि स्वय पोप ने अपनी भारत की यात्रा के दौरान कहा था 'Conversion is the Basic Tenet of Christianity'। यह दारुल इस्लाम की नाईं 'Land Of Christianity' और 'civilising others is the white mans burden' द्वारा एक और exclusivism का परिचय है।
धर्म निरपेक्षता भारत में सिर्फ वोट बटोरने का एक बाजा हो कर रह गया है। एक भी राजनैतिक दल इस पर इमानदारी से काम करने के लिये आग्रही नहीं है। पाकिस्तान में कहा जाता है कि मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त करनी आवश्यक होगी। वहीं पशिम बंगाल के मुख्यमन्त्री यहां ऐसा कहने के तुरन्त पश्चात माफी मांगते हुये अपना बयान वापस लेते हैं। एक धर्म निरपेक्ष राज्य के प्रधान मन्त्री किस हक से धर्म के नाम पर एक वर्ग विशेष को "राष्ट्रीय संसाधनों पर प्रथमाधिकार" देने का बयान देते हैं मेरी समझ से परे है। यह सिर्फ तुष्टीकरण है या एक राजनैतिक चाल है। पहले जति के नाम पर आरक्षण अब धर्म के आधार पर आरक्षण। जहां अंग्रेजों ने भारत को दो टुकड़ों में बांटा ये तुच्छ एव टुच्चे नेता इस राष्ट्र के सौ टुकड़े कर देंगे। क्या विडम्बना है कि ये सारी ओछी राजनीति secularism के नाम पर ही हो रही है। विरोधी स्वरों को धार्मिक कट्टरता की संज्ञा दे कर अपनी संख्या की दुन्दुभी से दबा जिया जाता है।
भाजपा एव संघ को कट्टरवादी करार देना मीडिया की वामपथी या "राजनैतिक CORRECT" छवि बनाने के तहत एक मजबूरी है। आजतक एक भी सार्थक बहस इस मुद्दे पर नहीं हो पायी है कि कौन सा राजनैतिक दल भाजपा की तुलना में कम साम्प्रदायिक है। दूरदर्शन में अनेक बार इस मुद्दे पर बहस का नाटक होता रहता है। लेकिन वहां भी तर्क से परे फेंफड़ों की शक्ति का आह्वान ही होता है। कतिपय पैनेलिस्ट के तर्कों को सुनकर तो प्रतीत होता है कि उनकी परिभाषा के अनुसार तो गांधी,अरविन्द घोष,स्वामी विवेकनन्द इत्यादि सभी हिन्दु कट्टरवादी थे।
तथाकथित मीडिया में बैठे लोग अद्भुत व चमत्कारी कुड़ा करकट पैदा करने की क्षमता रखते हैं। इनका अज्ञान और इनकी अक्षमता दोनो एक दूसरे के पूरक है।
आजादी के पहले मुस्लिम लीग, कांग्रेस पर हिन्दु कट्टरता के जो जो इल्जाम लगा रही थी, आज कांग्रेस, भाजपा पर सारे के सारे वे ही इल्जाम लगा रही है। यानि आज कांग्रेस मुस्लिम लीग के आसन पर है और भाजपा कांग्रेस के।यह तो सर्व विदित है कि भारत के विभाजन में सबसे अधिक भूमिका मुस्लिम लीग की ही रही है। यानि आज कांग्रेस अपनी पूरी सक्रियता से मुस्लिम लीग के सम विघटनात्मक गतिविधियों मे बद्ध है। आजतक भारत में जितनी भी विघटनत्मक कार्य हुए हैं यथा भिन्डरेवाला , उल्फा, बोडो या JKLF इनके सबके नेताओं के पार्श्व में कांग्रेसक़ का हाथ रहा है। उदाहरण के तौर पर भिन्डरेवाला को कांग्रेस ने तात्कालीन अकाली एवं भाजपा गठबंधन सरकार को मुश्किल में डालने हेतू स्वर्ण मन्दिर में स्थापित करवाया। वह ही भस्मासुर बन इन्दिरा जी को लील गया। भारत में balkanisation के तमाम काम कांग्रेस अपने अदूरदर्शिता व शार्ट्कट्स के तहत करवाती रही है।
भारत का सुविधावादी तथाकथित बुद्धिजीवी (गमले में उपजा वर्ग), तो सिर्फ अपनी और अपनों की सुनता है।इनमें से चाटुकारों और चारणों को अगर निकाल दिया जाये तो इनकी संख्या 99% तक कम हो जायेगी।
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