Sunday, January 29, 2012

Salaman Rushdie and M F Hussain

In the Aftermath of Jaipur Literary Jamboree there has been lot of brouhaha about Salaman Rushdie & Co...Most of the Talks/Articles/Discussions have compared this to the miasma about M F Hussain's paintings. No One repeat not a single soul has tried to analyze the distinctions between these two Fiascos. I would begin with a caveat that I neither support any vandalism of the so called Artistic portrayal of Hindu Goddesses nor the fatwa of Deoband's against Rushdie. I took my time to respond as i wanted to familiarize myself with the epicenter of this brouhaha i.e. The Satanic Verses. This book is available in PDF form easily downloadable free of cost. There are certain major differences in the ground realities of these two fiascos.

1) M F Hussain a Muslim and an Indian citizen living in India, a Hindu majority (80% plus) nation painted Hindu goddesses in a manner that could cause hurt to the sensibilities of a large segment of the majority community.

2) Now to understand the situation better let us extrapolate the Names,Nation and Religion. Let us presume one Mr.M F Sharma living in any of the 57 Muslim majority nations creates a few portraits or writes a book that could hurt the religious sentiments of Muslims. The probability of this Mr. M F Sharma living till 95 would be extremely remote.

3) Mr Rushdie is an Indian Origin British national Muslim writer.He wrote a book supposedly lampooning Prophet and his wives. Most of it is Metaphorical and in the words of the author, the book is not about Muslims or Prophet. Rushdie’s interpretation of his book, is that “it was not about Islam, but about migration, metamorphosis, divided selves, love, death, London and Bombay. He has also said "It’s a novel which happened to contain a castigation of Western materialism. The tone is comic”. Yet Government of India was the first State to Ban the book (Import and selling of it) most probably without anyone reading it. It was obviously a ‘Knee Jerk’ reaction to placate the Deoband like elements.

4) The State i.e. Government of India never banned M F Hussain’s painting.The people vandalizing paintings were prosecuted for criminal offence. The state did not Kow Tow the line of Sri Ram Sene.

5) Sri Ram Sene is a fringe body with no support from any of the mainstream groups. State has taken action against the so called supremos of Sri Ram Sene. Deoband is a lot more main stream Islamic organization and has following in the whole of South Asia and Middle East. All Indian Ulema & Mashaikh Board (AIUMB) a Sufi group, had alleged that seminaries like Darul Uloom Deoband get funds from Saudi Arab.

6) In the recent Brouhaha of Rushdie, state did “kow tow” to the Darul Uloom’s wishes of not allowing Rushdie step foot in India. Even his video link was not permitted in difference to the noise emanating from the Deoband Darul Uloom.

7) The commentators said that the state did not provide security to Mr M F Hussain. The senior most functionary of the state Union Home Secretary, GK Pillai, had said that MF Husain was free to come back and would be provided security if he requested it. No one caused him any physical harm,nor was he threatened with any Fatwa by any of the “Rightist” organizations. Certain cases were filed against him, Even this could be a despicable act yet perfectly within legal parameters. Several cases in Delhi High Court were dismissed in 1998. He migrated in 2006.

8) M F Hussain migrated to Qatar IN 2006. The Income Tax rate in Qatar is ZERO. .Mr Hussain struck a deal with Mr Guru Swarup Srivastav an industrialist to sell his 100 paintings for Rs.100 Crores in 2004.The total Income of Mr G S Srivastav’s company was little over Rs.One Lakh in the previous year as stated by IT authorities. Mr Guru Swarup Srivastav has been arrested several times and intensely investigated by Enforcement Directorate and IT authorities since 2005. Mr Hussain migrated in 2006 to Qatar. I do not know of any connection in these facts/ incidents.

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Friday, January 27, 2012

SHOE:A MEDIUM OF EXPRESSION

पिछले दिनों कुछ ताजा तरीन घटनाओं से अनुतप्त हो सरकार ने सोशल नेटवर्किंग के माध्यमों पर रोक लगाने की पेशकश की। कहा गया कि फेसबुक या गूगल जैसे माध्यम सरकार की आलोचनात्मक टिप्पणियों पर सेंसरशिप लगाये या बन्द किये जाने के लिये प्रस्तुत हों। भारतीयों की जुगाड़ ढुंढने की कला ने सरकार के इस फरमान के तोड़ के लिये एक और चिर परिचित आजमाया हुआ अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम ढुंढ निकाला। इस माध्यम को बन्द करना भी अत्यन्त दुष्कर था। यह नया माध्यम था जूता या पादुका।
जूता परिधान का वह अंश है जो खुलने के बाद ही दिखता है। जूता अपनी सहज अवस्था में तो अद्दृश्य रह कर ही पांव को ढंकने का काम करता रहता है। हां असहज अवस्था में पांव से निकल जब हाथों में दृष्टिगोचर होता है तब किसी न किसी ढंके हुये को नंगा करने की भुमिका में अपना योगदान कर रहा होता है।
सर्वप्रथम जूते की भुमिका को त्रेता युगीन पौराणिक ग्रन्थ रामायण में वाल्मिकि ने चित्रित किया था। भरत अपने बड़े भाई राम की श्रद्धा में अवनत अयोध्या की राजगद्दी पर भाई राम चन्द्र्जी की पादुका या जूते को ही राम का प्रतीक बना, आसीन कर देते हैं। राम की पादुका के परोक्ष से स्वयम पास के गांव में रह, राज्य संचालन करते हैं।
आज कलयुग में भी भाइयों के कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे। अब अयोध्या की जगह मुम्बई को रख कर देख लीजिये। राजा यानि जिसका मुम्बई राज्य के लिये राज्याभिषेक हो रखा है, वह 14 वर्षों से बनवास या दुबई वास भोग रहें हैं, और मुम्बई में उनकी पादुका के परोक्ष से अन्य “भाई” उनके राज्य यानि मुम्बई का संचालन कर रहें हैं। यानि यहां जूता “भाई” भक्ति की अभिव्यक्ति है।
इस उपरोक्त समीकरण को महज variables बदल कर दिल्ली या इस्लामाबाद तक CURVE को extrapolate किया जा सकता है। धुरी या axis भी वही बनी रहेगी और सत्ता में जूते की भुमिका भी।
द्वापर युग में पहले तो श्री कृष्ण, पाण्दवों के यज्ञ के दौरान, आगन्तुकों के जूते सहेजते हैं और युग के अन्त में स्वयं जूता नहीं पहने,नंगे पांव होने के कारण एड़ी में तीर से आहत हो अपने प्राण गवांते हैं।
कलियुग एवं 21 वी सदी में जूता दो जगह दिखता है। मन्दिर के बाहर या किसी जिन्दा व्यक्ति के हाथ में। मन्दिर के बाहर जूता आपके अहं का प्रतीक है। जिस तरह आपको अपने अहं के साथ भगवान के दर्शन नहीं हो सकते उसी त्तरह जूता पहन कर आपको किसी भी मन्दिर के भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। अतएव मन्दिर के बाहर पड़ा जूता व्यक्ति के अहं की अभिव्यक्ति है। जूता या अहं त्यागिये और प्रभु दर्शन से लाभान्वित होने के लिये कतार में आ जाइये।
जिन्दा व्यक्ति के हाथ का जूता इन दिनों काफी चर्चा में है। 21 वी सदी में जार्ज बुश से शुरु हुयी जूते की गाथा हमारे गृह मन्त्री पी सी चिदाम्बरम के पड़ोस से गुजरते हुये हाल में युवराज के सुरक्षा चक्र को भेदते हुये अपनी गण शक्ति को अभिव्यक्त कर गयी। यहां जूते की खासियत है कि इच्छित निशाने पर न लगने के बावजूद लक्ष्य भेदने में अर्जुन जैसी अचुक क्षमता है। पिछले दिनों चलाये हुये सारे जूतों की TRAJECTORIES अपने निशानों से दूर ही रहे।
इसके बावजूद भी इन चले हुये जूतों के mass communication की क्षमता अपार रही है। आवश्यकता है mass communication महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में जूता चलाने की कला पर प्रशिक्षण देने की। इससे जनता जूता चलाने का RETURN ON INVESTMENT भली भांति आंक कर ही जूता चलाये। बुश पर चले हुये जूते के कीमत एक महानुभाव ने बीस लाख तक आंकी थी। कहते हैं कि जिन्दा हाथी लाख का तो मरा सवा लाख का ।इसी तरह पांव में पहना हुआ जुता कुछ सौ या हजार का लेकिन चल हुआ जूता कई लाख का। शोध का विषय है कि चलने के बाद जूते का सेंसेक्स इस बात पर निर्भर करता है कि लक्ष्य पर कौन था। यानि जूते की कीमत बाजार इस कसौटी पर आंकता है कि जूते की TRAJECTORY के निशाने पर कौन था। यहां पर कोई आरक्षण की प्रणाली भी नहीं है। लक्ष्य की TRP ही जूते की कीमत आंकती है। तभी तो बुश जैसे खास व्यक्ति पर चले जूते की कीमत 20 लाख और आम आदमी पर चले जूते की कीमत ?? आम आदमी पर जूता कौन चलाता ? उसे तो सिर्फ आधी रात को जूतों से रौन्द दिया जाता है। आम आदमी पर जूता चल जाये तो कम से उस कम बेचारे को नंगे पांव तो “इलाहाबाद के पथ पर पत्थर नहीं तोड़ने पड़ेंगे”।
कहते हैं कि “जाके पांव न फटी बवाई,वो क्या जाने पीर पराई”। आज 21वीं सदी में नेतागण से अपेक्षा रखें की जूते न पहनें और पांव में बवाई फटने दें ताकि वे जनता की पीर को समझ सकें, यह तो अन्याय है।ये बवाई का फटना और जनता की पीर समझना ये तो का नाटक के प्रथम चरण के सीन हैं। दूसरे अंक से तो पांव में जूते आ ही जाते हैं फिर काहे की फटी बवाई और काहे की जनता की पीर।
आज के नेता गण की एक और बेबसी है कि चरण रज तो जूतों के चलते अब रही नहीं । पहले किसी व्यक्ति के नेता बनते ही उसके चरण कमल हो जाते थे और उसकी चरण रज मात्र से जनता कृतार्थ हो जाती थी।। अब जूतों की रज से लोग आतंकित भले ही हो जायें कृतार्थ कोई नहीं होता।
एक बहु चर्चित पुरानी कहावत है कि जब बाप का जूता बेटे के पांव में आने लगे तो बाप को पुत्र के साथ मित्र वत व्यवहार आरम्भ कर देना चाहिये। इसी कहावत को आगे बढ़ाते हुये कहा जा सकता है कि अब जब जनता का जूता नेता के सुरक्षा चक्र तक आने लगा है तो नेताजी को भी मालिक का पद त्याग बकौल स्वामी विवेकानद “दासस्य दासम” का पद अख्तियार कर लेना चाहिये या दिग्गी राजा का सुझाव मान जूते पर भी फेसबोक सम बन्दिश लगा ही देनी चाहिये। अन्यथा इस एक अभिव्यक्ति के माध्यम की शक्ति अन्य सारे सोशल नेटवर्किंग माध्यमों से भारी पड़ेगी।
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Sunday, January 15, 2012

What They Do not Teach You at IIM.

Let me confess I never wrote the CAT examination, consequently never attended any B school. I was fortunate to spend those two years on the shop floor of an Industry, instead of learning hundred different Jargons in a B school.
It may sound preposterous yet it is true that in India, it pays to be uneducated to be an Entrepreneur . A Diploma or a Degree from IIM would stand you good in getting a Fat Pay Cheque as your starting salary. It would be of little help for you to be a successful Entrepreneur. It may rather be a hurdle. I did a random check on the worlds Ten Richest people. The most common Academic Qualification was DROPOUT before Graduation amongst these successful Entrepreneurs.
The Header of the Blog has been lifted from a book written by Mark McCormack in 80’s.His book had an American background and the title was “What they don’t teach you at Harvard”. The Tag Line of Harvard Business School is Veritas or Truth. The tag line of any institute is expected to be an abbreviated form of the MISSION of said institute. This taglines is misleading. If all business is to be based on Truth, sadly all the advertisement agencies in the world would have to close shop pronto. In war they say TRUTH is the first casualty. In Business activity the chessmen are Street Smartness,Strategy, Courage, , Façade, Fraud, Deception etc. There is just no chessmen carrying the name of TRUTH in the game of Business. In India you show me One Successful Entrepreneur who swears having never paid any bribe and I would show you a LIAR. Unalloyed Gold can never be crafted into a jewel. It has to necessarily carry some impurity to be usefully crafted. A little bit of corruption is the soul of Business. Business would be dead without this soul. So the AXIOM taught in B schools that “Clean Business is Good Business” is only a euphemism and not a reality.
The Tag Line of IIM A is Vidya Viniyoga Vikasaha (progress through knowledge). All IIM or any other B School student are well aware of the IDIOM that “Knowledge is the currency of 21st Century.” Believe me it is a Tag Line to hustle their college seats and to finagle their own pay cheques PERIOD. Progress in India is through Networking and not through Knowledge. Whom you know is HUNDRED times more important that what you know. Borrowing from Bible (Matthews.19:24) "It is easier for a camel to go through the eye of a needle through contacts, than for a Super Genius Un Networked man to enter into the kingdom of God."Otherwise Mr Ratan Tata would have had no need of hiring Neera Raadia.
Drawing from my first hand experience, I was told once by a Senior Bureaucrat that in Odisha at least, to succeed as an Entrepreneur it was imperative that I had a Senior Politician or a Senior Bureaucrat as a GODFATHER. He was surprised as to how I was surviving ? Hence the Rule: To succeed one needs God Father / Net working aka Neera Raadia and her ilk.
Corporate Social Responsibility: All that talk about the Society being a stake holder is merely an IDOL to be placed with reverence on the Altar. Thirty-five years ago, Milton Friedman wrote a famous article for The New York Times Magazine whose title aptly summed up its main point: "The Social Responsibility of Business Is to Increase Its Profits."Mostly under the guise of CSR the corporates pay ransom money to you know who, or to Curry Favor from senior Bureaucrats or to placate Politicians etc., Yes at times in the name of CSR activities some Image Building Exercises are undertaken too. In all cases either it is to directly increase profits or for Corporate image building.The entire façade of Corporate Social Responsibility is similar to the inane rhetoric mouthed by the beauty pageant participant. They swear by Mother Teressa and ape Rakhi Savant. Corporate Magnets parrots Bytes viz., “In a free enterprise, the community is not just another stakeholder in business, but is in fact, the very purpose of its existence”, in the press conference. Soon thereafter has a cocktail dinner and yields to the whims of Local Authorities or those of the Relevant Political Leaders in the name of CSR.
……..to be continued in the next class.

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