बीतता कौन है
रीतता कौन है
समय या मैं
प्राचीन काल में सूर्य का रथ,
जब समय के चक्र के साथ संलग्न था।
तब सूर्य भी पृथ्वी के चारों ओर
वृत्ताकार घूमने में मग्न था।
हां, तब समय ही बीतता था।
एक दिवस का समय
सूर्य का पृथ्वी के चारों ओर,
वृत्ताकार घूमने में लगता प्रातीत होता।
लेकिन आज के नये परिप्रेक्ष्य में
जब पृथ्वी घूमती है
और सूर्य स्थिर है
तब सूर्य के साथ संलग्न
समय का चक्र भी तो
गतिहीन हो ही जाता है।
हां, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बन्धा
मैं निरन्तर घूमता रहता हूं,
किसी इन्द्रधनुषी आभा से मण्डित
किसी सूर्य रुपेण मरीचिका
के Orbit की परिधि में।
अतएव अब बीतना भी मेरा है
और रीतना भी मेरा है।
और रीतना भी मेरा है।
अब इस बीतने और रीतने में
व्यक्तित्व का निरन्तर क्षीण होना तो लाजिमी है।
बीतते बीतते या रीतते रीतते,
मैं शायद व्यतीत हो
वर्तमान से भूत हो जाउंगा
समय अपनी जगह पर स्थिर
तब भी मेरे वर्तमान से भूत हो जाने की
यात्रा का साक्ष्य एवं दर्शक होगा।
कहते हैं व्यक्ति मृत्योपरान्त भूत हो जाता है।
मेरे यूधिष्ठीर सम
सशरीर भूत होने का साक्ष्य यह समय
तब भी ठीक यहीं खड़ा
अक्षुण्ण जुगाली करता मिलेगा।
2 comments:
Profound...
Achhi Kavita hai. Pasand aai.
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