चुनाव की मर्यादा है कि
मैं मतदान करूं , और
स्वेच्छा से अपने अधिकारों
का मुख्तार नामा
एक “अन्य” को सुपुर्द कर दूं
और फिर उस मुख्तारनामे की
बदौलत
मेरे जिन्दगी के सारे अहम्
निर्णयों पर
मेरे सारे अधिकार,
आवश्यकताओं व कर्त्तव्यों सम्बन्धी फैसलों
पर उस “अन्य” का हक् हो रहेगा।
मेरी त्रासदी है कि
मेरी आंखें अभी खुली हैं
इनपर किसी Cataract
ने दखल भी नहीं दी है।
स्पष्ट देख पाने की त्रासदी
को झेलते हुये
बहुत ही कठिन बन पड़ रहा है
अ व ब के मध्य चुनने में ।
नहीं चुन कर
तटस्थ रहने की विलासिता का
अधिकार
भी कहां है मेरे पास ,
तटस्थ रह कर भी मैं गणतन्त्र
के साधारण
नियमों का अपराधी माना
जाउंगा और
समय लिखेगा मेरा भी अपराध।
या शायद औने पौने में बेच
दूं
मेरे इस चुनने के अधिकार को।
एक दिन के लिये बी पी एल की
रेखा से उपर आने के
शुल्क के एवज में
अपने हाथों अपने अगले पांच
वर्ष के भविष्य को
दफन कर दूं।
ए वी एम पर टंके सारे नाम
उन व्यक्तियों के हैं जिन्होंने स्वयं अपनी चेतना
बेचदी है , शक्ति के ठेले
पे, सत्ता के मेले में , भीड़ के रेले में
क्या इन चेतना शून्य
व्यक्तियों को
खुद मुख्तारी सौंपने का नाम
ही चुनाव है।
3 comments:
http://swayheart.blogspot.in/
Please check my blog http://swayheart.blogspot.in/
Very interesting perspective on elections :) There are elements of honesty and innocence in what you wrote - which gives an impression of all your writings being from your heart.
On the issue of elections and choosing best candidate, I guess the popular idea of "choosing the least evil" still holds good. We should select one who is least harmful to the nation at large. I think elections do not happen at a personal level but at a collective level.
Post a Comment