आजकल कविता वेताल सम
अनचाहे ही कन्धे पर
सवार हो जाती है।
वेताल सम प्रश्न उठाती है
एवं उत्तर न दे पाने की
अवस्था में
एक बार फिर पेड़ से उतर
मेरा कन्धा तलाश लेती है।
वो सामन्य से दिखने वाले
प्रश्न भी
मुझे अक्सर निरुत्तर कर देते
हैं।
अब जैसे कल ही का प्रश्न था
क्या समझौता ही जिन्दगी का
पर्याय है?
मैं उत्तर नहीं जेब टटोल रहा
था कि
बाबा अठन्नी लो और दूर हटो,
बोहनी हो जाये
फिर सोचुंगा कि समझौता या
आस्था
जिन्दगी को जीने में
किसका वजूद भारी है।
नहीं ली अठन्नी कविता के वेताल
ने
फिर आ बैठी कन्धे पर।
फिर मैं तो सांझ तक
सिर्फ बोहनी टोहता रहा
लेकिन कन्धा मेरा उसी वेताल
को ढोता रहा
दिन सारा खोटा हुआ
इस वेताल को ढोने पर
और आखिर सूरज ढलने पर
कविता का वेताल तो पेड़ पर
चढ गया
और मैं एक अद्धा चढा
रोज की तरह स्वय से लड़ गया॥
अब आज फिर सुबह
दुकान खोल, गल्ले को धूप
दिखा
बैठा हूं
एक बार फिर बोहनी की तलाश
में
कन्धा आतंकित है
कविता रुपी वेताल की आशंका
से
उसके प्रश्नों से
कहीं आज
फिर एक नया प्रश्न
ले पुनः न आ धमके॥
अब कन्धा पूछ रहा है
कि साफ बताओ क्या ढोऊं मैं
8 comments:
अब अगर कविता की लत लग ही गई है तो दोनों को ढोना पढ़ेगा .. अच्छी रचना है ..
कविता का वेताल.............
इसे ढोये बगैर चारा नही और दूकानदारी वह अलग है वह आपका चरितार्थ है।
कितना अच्छा लिखा है आपने।
बहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति.हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |सादर मदन
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पहली बार आया.. पढ़ना सुखद लगा
मेरे भी ब्लॉग पर आये
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bahut hi sundar kavita hai.
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बहुत सुन्दर उपमा ... सुन्दर रचना ... बधाई
- प्रमोद कुमार कुश ' तन्हा '
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