सायरन बजता है
सुरज ढलता है
और Boiler बुझा
दिहाड़ी मजदूर
चल पड़ता हैं
निश्चिन्त
कि आग तो बुझ
गयी है
हां भट्टी में बस
थोड़ी आंच है
जो थोड़े समय
में
स्वतः ठण्डी हो
ही जायेगी।
लेकिन तब भी Boiler की भट्टी में
बुझी राख के नीचे
अधजले कोयलों
के बीच बची रहती है आग।
किसी हवा के
झोंके की इन्तजार में
हां सुरज ढलने
के बाद
कभी कभी
निःश्ब्द रातों
में
अचानक बहती है
हवा
उड़ती है राख
और धधक उठते
हैं
सुलगते कोयले
फिर से
बहना तो हवा की
नियति है
लेकिन कब राख
पर काबिज हो
और उड़ा दे राख
को
इसमें उन
कोयलों का
कोई नहीं है श्रेय
उन धधकते
कोयलों से
निकलती हूंई
चिंगारियां
स्फुलिंग की
उर्जा लिये
मेरे जेब में
रखे सफेद कागज को
अक्सर राख कर
जाती हैं
मैं उस राख को
समेट
मन्च से
बिखेरता हूं
और तालियां
बटोरता हूं।
सोचता हुं कि
इस राख में मेरा क्या है
ये तो हवायें
जो कभी बहती हैं
उत्तराखण्ड से,
कभी बस्तर के जंगल से
और कभी गोधरा
से
कागज तो ये
जलाती हैं, राख बनाती हैं
हां अगर कुछ
श्रेय या देय है
तो है Boiler
में दबी आग का
लेकिन वे ही चिंगारियां
मेरे मित्र की
जेब में
बैंकों से मिले
हरे कागजों को
जला नहीं पाती
शायद उनपर रिजर्व बैंक के promissory note
के साथ
नैन दहति पावकः
का उद् घोष भी छपा
है।
2 comments:
बढ़िया है भाई कुलदीप |
शुभकामनायें-
Nice one...
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