गणतन्त्र एक अस्वाभाविक
व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत् हम अपना शासक स्वय चुनते हैं।
मनुष्य भूमण्डल क एक मात्र वह प्राणी है जिसे प्रकृति ने सोचने की क्षमता प्रदान
की है। अन्य सारे प्राणी महज अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुसार परीस्थितियों से
निबटते हैं जबकि मनुष्य सामान्यतय प्रवृत्ति के इतर औचित्य की कसौटी के माध्यम से
अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।
सदियों की कशमकश ने मनुष्य
को एक सामयिक समझौते के तौर पर गणतन्त्र में आस्था दी। स्वतन्त्र सोच का प्राणी
एक दूसरे व्यक्ति को अपने उपर शासन करने की इजाजत दे, यह निश्चित तौर पर एक
अस्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन जैसा कि चर्चिल ने कहा है कि “Democracy is the worst form of governance, yet it is
better than all that has been tried out till date”. विश्व में महज् 36
राष्ट्रों में गणतान्त्रिक प्रणाली कायम है। अन्य लगभग 200 राष्ट्रों में आज भी एक इकाई का शासन ही चल रहा है, गण का नहीं।
जब हम एक तीसरे व्यक्ति को
अपनी जिन्दगी के अहम् मुद्द्दों पर फैसले करने की इजाजत देते हैं, तब तराजु के
दूसरे पलड़े पर जो सन्तुलन बनाये रखने का बटखड़ा होता है, वह है “विश्वास” या MUTUAL TRUST का। गणतन्त्र की
आधारशिला वह MUTUAL TRUST ही है । आज भारत में
यह बटखड़ा तो तन्त्र से गायब हो चुका है। धोखा व झूठ के सहारे सन्तुलन बनाने का
उपक्रम ही जारी है।
हाल में मारे गये पुलिसकर्मी
तोमर की मौत ने इस MUTUAL TRUST की कमी को ऊंचे स्वरों में व्यक्त किया है।
अलग अलग गलियारों से अलग अलग
स्वर सुनाई पड़ रहें हैं। गण के एक बड़े हिस्से को सरकारी संवादों में षडयन्त्र की
बू मिल रही है।
आम आदमी ने तन्त्र पर से
अपना विश्वास खो दिया है। तन्त्र येन केन प्रकारेण मुख्य मुद्दे से इतर कुछ अन्य
मुद्दे खड़े कर मुख्य मुद्दे को DILUTE कर, गण को दिग्भ्रम कर पूर्वव्रत यथास्थिति में ले जाकर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री करने
के प्रयास में है। तन्त्र के पास स्थिति को सुधारने की इच्छा का अभाव व महज स्थिति
से निबटने का इच्छा ही सर्वोपरि दिख पड़ रही है।
इस अविश्वास के माहौल में
सही गणतन्त्र को बचाये रखना एक अत्यन्त दूष्कर कार्य है। आज महज दामिनी ही नहीं
हमारा गणत्न्त्र भी कराह रहा है और पुकार रहा कि “I
WANT TO LIVE”
1 comment:
so true !
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