पिछले दिनों कुछ ताजा तरीन घटनाओं से अनुतप्त हो सरकार ने सोशल नेटवर्किंग के माध्यमों पर रोक लगाने की पेशकश की। कहा गया कि फेसबुक या गूगल जैसे माध्यम सरकार की आलोचनात्मक टिप्पणियों पर सेंसरशिप लगाये या बन्द किये जाने के लिये प्रस्तुत हों। भारतीयों की जुगाड़ ढुंढने की कला ने सरकार के इस फरमान के तोड़ के लिये एक और चिर परिचित आजमाया हुआ अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम ढुंढ निकाला। इस माध्यम को बन्द करना भी अत्यन्त दुष्कर था। यह नया माध्यम था जूता या पादुका।
जूता परिधान का वह अंश है जो खुलने के बाद ही दिखता है। जूता अपनी सहज अवस्था में तो अद्दृश्य रह कर ही पांव को ढंकने का काम करता रहता है। हां असहज अवस्था में पांव से निकल जब हाथों में दृष्टिगोचर होता है तब किसी न किसी ढंके हुये को नंगा करने की भुमिका में अपना योगदान कर रहा होता है।
सर्वप्रथम जूते की भुमिका को त्रेता युगीन पौराणिक ग्रन्थ रामायण में वाल्मिकि ने चित्रित किया था। भरत अपने बड़े भाई राम की श्रद्धा में अवनत अयोध्या की राजगद्दी पर भाई राम चन्द्र्जी की पादुका या जूते को ही राम का प्रतीक बना, आसीन कर देते हैं। राम की पादुका के परोक्ष से स्वयम पास के गांव में रह, राज्य संचालन करते हैं।
आज कलयुग में भी भाइयों के कई ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे। अब अयोध्या की जगह मुम्बई को रख कर देख लीजिये। राजा यानि जिसका मुम्बई राज्य के लिये राज्याभिषेक हो रखा है, वह 14 वर्षों से बनवास या दुबई वास भोग रहें हैं, और मुम्बई में उनकी पादुका के परोक्ष से अन्य “भाई” उनके राज्य यानि मुम्बई का संचालन कर रहें हैं। यानि यहां जूता “भाई” भक्ति की अभिव्यक्ति है।
इस उपरोक्त समीकरण को महज variables बदल कर दिल्ली या इस्लामाबाद तक CURVE को extrapolate किया जा सकता है। धुरी या axis भी वही बनी रहेगी और सत्ता में जूते की भुमिका भी।
द्वापर युग में पहले तो श्री कृष्ण, पाण्दवों के यज्ञ के दौरान, आगन्तुकों के जूते सहेजते हैं और युग के अन्त में स्वयं जूता नहीं पहने,नंगे पांव होने के कारण एड़ी में तीर से आहत हो अपने प्राण गवांते हैं।
कलियुग एवं 21 वी सदी में जूता दो जगह दिखता है। मन्दिर के बाहर या किसी जिन्दा व्यक्ति के हाथ में। मन्दिर के बाहर जूता आपके अहं का प्रतीक है। जिस तरह आपको अपने अहं के साथ भगवान के दर्शन नहीं हो सकते उसी त्तरह जूता पहन कर आपको किसी भी मन्दिर के भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। अतएव मन्दिर के बाहर पड़ा जूता व्यक्ति के अहं की अभिव्यक्ति है। जूता या अहं त्यागिये और प्रभु दर्शन से लाभान्वित होने के लिये कतार में आ जाइये।
जिन्दा व्यक्ति के हाथ का जूता इन दिनों काफी चर्चा में है। 21 वी सदी में जार्ज बुश से शुरु हुयी जूते की गाथा हमारे गृह मन्त्री पी सी चिदाम्बरम के पड़ोस से गुजरते हुये हाल में युवराज के सुरक्षा चक्र को भेदते हुये अपनी गण शक्ति को अभिव्यक्त कर गयी। यहां जूते की खासियत है कि इच्छित निशाने पर न लगने के बावजूद लक्ष्य भेदने में अर्जुन जैसी अचुक क्षमता है। पिछले दिनों चलाये हुये सारे जूतों की TRAJECTORIES अपने निशानों से दूर ही रहे।
इसके बावजूद भी इन चले हुये जूतों के mass communication की क्षमता अपार रही है। आवश्यकता है mass communication महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में जूता चलाने की कला पर प्रशिक्षण देने की। इससे जनता जूता चलाने का RETURN ON INVESTMENT भली भांति आंक कर ही जूता चलाये। बुश पर चले हुये जूते के कीमत एक महानुभाव ने बीस लाख तक आंकी थी। कहते हैं कि जिन्दा हाथी लाख का तो मरा सवा लाख का ।इसी तरह पांव में पहना हुआ जुता कुछ सौ या हजार का लेकिन चल हुआ जूता कई लाख का। शोध का विषय है कि चलने के बाद जूते का सेंसेक्स इस बात पर निर्भर करता है कि लक्ष्य पर कौन था। यानि जूते की कीमत बाजार इस कसौटी पर आंकता है कि जूते की TRAJECTORY के निशाने पर कौन था। यहां पर कोई आरक्षण की प्रणाली भी नहीं है। लक्ष्य की TRP ही जूते की कीमत आंकती है। तभी तो बुश जैसे खास व्यक्ति पर चले जूते की कीमत 20 लाख और आम आदमी पर चले जूते की कीमत ?? आम आदमी पर जूता कौन चलाता ? उसे तो सिर्फ आधी रात को जूतों से रौन्द दिया जाता है। आम आदमी पर जूता चल जाये तो कम से उस कम बेचारे को नंगे पांव तो “इलाहाबाद के पथ पर पत्थर नहीं तोड़ने पड़ेंगे”।
कहते हैं कि “जाके पांव न फटी बवाई,वो क्या जाने पीर पराई”। आज 21वीं सदी में नेतागण से अपेक्षा रखें की जूते न पहनें और पांव में बवाई फटने दें ताकि वे जनता की पीर को समझ सकें, यह तो अन्याय है।ये बवाई का फटना और जनता की पीर समझना ये तो का नाटक के प्रथम चरण के सीन हैं। दूसरे अंक से तो पांव में जूते आ ही जाते हैं फिर काहे की फटी बवाई और काहे की जनता की पीर।
आज के नेता गण की एक और बेबसी है कि चरण रज तो जूतों के चलते अब रही नहीं । पहले किसी व्यक्ति के नेता बनते ही उसके चरण कमल हो जाते थे और उसकी चरण रज मात्र से जनता कृतार्थ हो जाती थी।। अब जूतों की रज से लोग आतंकित भले ही हो जायें कृतार्थ कोई नहीं होता।
एक बहु चर्चित पुरानी कहावत है कि जब बाप का जूता बेटे के पांव में आने लगे तो बाप को पुत्र के साथ मित्र वत व्यवहार आरम्भ कर देना चाहिये। इसी कहावत को आगे बढ़ाते हुये कहा जा सकता है कि अब जब जनता का जूता नेता के सुरक्षा चक्र तक आने लगा है तो नेताजी को भी मालिक का पद त्याग बकौल स्वामी विवेकानद “दासस्य दासम” का पद अख्तियार कर लेना चाहिये या दिग्गी राजा का सुझाव मान जूते पर भी फेसबोक सम बन्दिश लगा ही देनी चाहिये। अन्यथा इस एक अभिव्यक्ति के माध्यम की शक्ति अन्य सारे सोशल नेटवर्किंग माध्यमों से भारी पड़ेगी।
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2 comments:
काश! कि हम पर भी कोई नबाब जूता फेंक मारता, और स्व. पं. मदन मोहन मालवीय जी का अनुकरण करते हुए हिन्दू विश्वविद्यालय की तर्ज पर हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापनार्थ उसे लाखों में नीलाम कर पाते।
Amazing analysis!!!
Only you could do this... Wonderful...
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