लड़कियां पैदा नहीं होती बनायी जाती हैं
कुछ समय पहले बाजार में एक पुस्तक आयी थी “Men are from Mars and Women are from Venus”. इस पुस्तक का कथ्य था कि पुरुष और स्त्री में इतनी अधिक विषमतायें होती है कि मानो वे दो अलग अलग ग्रहों के प्राणी हों।यथा इनकी जातियां बिलकुल भिन्न हैं। लेखक ने इस पुस्तक में दोनो के एक ही अवस्था की भिन्न भिन्न प्रतिक्रिया का उल्लेख कर अपने कथन की प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया है। यथा किसी भी समस्या से मुखातिब होने से पुरुष, लोगों के पास जा कर अपनी समस्या बताते हुये उस समस्या का समाधान ढुंढने का प्रयास करता है। महिला भी लोगों के पास जाती जरुर है,अपनी समस्याओं को लेकर, लेकिन सिर्फ लोगों को अपनी समस्या से अवगत कराने के लिये।
इसके अलावा एक सुपरीचित अन्तर के तहत दोनो के लिये प्रेम शब्द के अर्थ में गहरी विषमतायें विद्यमान हैं।
वहीं मेरी धारणा इस विषय में बिल्कुल उलटी है। मेरा यह मानना है कि लड़किया या लड़के, समाज या परिवार गढता है। पैदाइशी तो दोनो बच्चे ही होते हैं। समाज अपनी संकुचित धारणा या अधपकी मान्यताओं के अनुसार दोनो के साथ भिन्न भिन्न व्यवहार कर उन्हें मानसिक व वैचारिक तौर पर अलाग अलाग रुप में ढालता है।
बायोलोजिकल व जनेन्द्रियों की भिन्नता तो सर्वविदित है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में इन भिन्नताओं की भुमिका नगण्य है।कुछ फर्क हार्मोन्स का भी रहता है। लेकिन हर्मोन्स का अन्तर व्यक्तित्व के संवर्द्धन में नगण्य सा ही रोल अदा कर पाता है। लड़कियों को कोमलांगी कहा जाता रही है। कोमलांगी शब्द पाषाण युग में सही था। क्योंकि उस योग में शारीरिक पुष्टता ही शक्ति का मापदण्ड होती थी।
मैथिली शरण गुप्त ने लिखा था कि:
अबला जीवन हाय तुम्हारी यह ही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।
अगर समाज ऐसे ही गीत गुनगुनाता रहेगा तो लड़कियों का कोमलांगी बने रहना एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रुप में उभर कर आयेगा। यहां मैं सिर्फ भारत की बात भी नहीं कर रहा हूं। पूरे विश्व में पुरुष प्रधान समाज और परिवार ने लड़कियों के खिलाफ साजिश के रुप में उन्हें एक अलग ढांचे में ढालने का प्रयास किया है। आज परीस्थितियां ऐसी हैं कि हम अनजाने में भी सहज स्वभाव वश उस साजिश में अपना किरदार निभा रहें हैं।
एक और तर्क आता है कि स्त्रियां अपने कोमल स्वभाव के कारण वे पुरुष की पूरक होती हैं। यह पूरक होने की भुमिका निभाने का ढोल सिर्फ महिला ही क्यों बजाये। क्या इससे यह अर्थ लगाया जा सकता है कि जिन लोगों ने विवाह नहीं किया या बिना स्त्री संसर्ग के जीवन जिया है, वे कभी पूर्ण हो ही नही सकते। दोनो संवाद सत्य की कसौटी खरे नहीं उतरते। भीष्म ने विवाह नहीं किया था तथापि महाभारत के अन्य किसी भी पात्र की तुलना में एक मात्र कृष्ण के अलावा उनके चरित्र में सबसे अधिक सम्पूर्णता थी। इसी तरह गौतमी का व्यक्तित्व अपनी पूर्णता के लिये गौतम बुद्ध का मुखापेक्षी नहीं है , तभी तो कहती हैं कि “सखी रे मुझसे कह कर जाते”।
समाज व परिवार अक्सर बच्चियों को मर्यादाओं की दुहाई दे एक विवादास्पद लक्ष्मण रेखा में कैद कर उन्हें लड़कियों में तदबील कर देता है।बच्ची से लड़की बनने के लिये उसे एक तंग दायरे में से होकर गुजरना पड़ता है।
लिंग भेद से उपजी इस जाति भेद को समझने की आवश्यकता है। लिंग भेद Physiology का अंग है sociology का नहीं।व्यक्तित्व की सम्पूर्णता के लिये kisiकिसी संगी के साथ का महत्व निःस्सेन्देह है लेकिन आवश्यकता सिर्फ सत्य के प्रति एक आस्था की है।
अगर पुरुष व स्त्री को समाज एक सा व्यवहार दे,तो दोनो का व्यक्तित्व एक सा ही उपजेगा।
पुरुष या स्त्री के व्यक्तित्व व व्यवहार का पार्थक्य परिवेश की देन है लिंग भेद की नहीं। यानि स्त्रियां पैदाइशी स्त्री न होकर अपने व्यक्तित्व में महज समाज की सोच व व्यवहार को ही प्रतिबिम्बित करती हैं।
6 comments:
अच्छा लिखा । सीमोन द बोआ की उक्ति 'स्त्री पैदा नही होती बनाई जाती है ' यूँ आज बहुत कही सुनी गयी उक्ति है तथापि आप पूरी पुस्तक 'सेकेंड सेक्स ' पढ लें फिर बात चीत भी होगी।
I had read that book and agreed with it. What you have written is about reasons why men and women are not from different planets; but only seem to be from diff planets.
About Bhishma and Gautami, I won't give much weight to the examples because whatever we know about them is through literature. And personalities and characters in the literature depends on how the author tries to shape them. It is generally accepted that men and women complement each other. Those who still achieved the 'balance' might have done by too much of tapasya and saadhna (as Bhishma did), or by too much of practice. By marriage, lessons are learnt by different means. Getting attracted towards opposite gender is a natural phenomenon for humans, but sadhus eliminate this by their tap. All of us can't achieve the same.
On the topic, I agree with the article. Though I believe there indeed are inherent differences between them. It can be explained by the theory which says females are right brain people while males are left brain ones - and hence they think differently. Then, due to actions of separate and different hormones, they also feel and behave differently. These two phenomena don’t have any intervention from society or parents and hence they indicate towards inherent differences between the two. Though I agree that to a large extent, men and women learn to behave in the way society expects them to behave. There are few rebels born…
As such if we say women are not born but made, we can equally say the same for men too. Similarly we can say the same for policemen, teachers, doctors, etc. No one is born as such; everyone is made by life's experiences...
AAh I see my dear friend Rahul here. All my arguments dried up immediately. alternately my hackles rose and i was relieved. what pains me is WHY...WHY do we still have to fight for women and prove things. Is man so insecure????????????????? the battle of the sexes.....rages
an interesting article, kudos
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